Agriculture

अनाज की अधिकता का दावा आंकड़ों की बाजीगरी तो नहीं?

भारत में एक तरफ जहां भूख चरम पर है, वहीं दूसरी तरफ देश में जरूरत से अधिक अनाज होने का दावा किया जा रहा है। इस दावे में कितनी सच्चाई है?

 
By Jitendra
Published: Thursday 13 December 2018
1991 से 2011 के बीच 1.4 करोड़ से अधिक किसानों ने आर्थिक तंगी के चलते खेती छोड़ दी (अग्निमिरह बासु / सीएसई)

पिछले कुछ वर्षों में भारत ने लगातार कृषि में सफलता की कहानी लिखी है। पिछले दशक के सात सालों में रिकॉर्डतोड़ अनाज उत्पादन हुआ। 2006-07 में जहां देश में 21.7 करोड़ टन खाद्यान का उत्पादन हुआ वहीं 2016-17 में यह 27.5 करोड़ टन तक पहुंच गया। सूखे के तीन साल, 2009, 2014 और 2015 के दौरान भी उत्पादन में कमी नहीं आई। सरकार ने गर्व से घोषणा की कि खाद्यान के मामले में देश न केवल आत्मनिर्भर था, बल्कि निर्यात करने के लिए भी पर्याप्त अन्न है।

इसलिए, यह परेशान करने वाली बात थी कि पिछले दो दशकों में किसानों ने भारी संख्या में आत्महत्या की और किसानों का विरोध प्रदर्शन भी रिकॉर्ड संख्या में दर्ज हुआ। 1991 से 2011 के बीच 1.4 करोड़ से अधिक किसानों ने आर्थिक तंगी के चलते खेती छोड़ दी।

जो लोग एक कृषि कार्य से जुड़े थे, उन्हें गुमराह कर विश्वास दिलाया गया कि उनके प्रयास व्यर्थ थे, क्योंकि देश का उत्पादन सरप्लस था। खाद्यान बाजार में कीमतें गिर रही थीं, जिससे किसानों को अपना अनाज कम कीमतों पर बेचने या फिर अनाज को सड़ने देने पर मजबूर होना पड़ा।

तथ्य यह है कि किसान अपनी उपज को बढ़ा रहे हैं और मंडी में डंप कर रहे थे। इससे सरकार को खाद्यान आत्मनिर्भरता और सरप्लस कृषि उत्पादन का नैरेटिव (कहानी) बनाने में मदद मिल रही है। मीडिया रिपोर्ट और विशेषज्ञों ने अनाज निर्यात और सरप्लस अनाज का प्रबंधन करने के लिए अधिक से अधिक प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना की वकालत की। भारत भी गर्व से निर्यातक देश होने का दावा करता है। इसका मतलब है कि भारत आयात से अधिक निर्यात करता है।

किताबी दावे

आंकड़ों से पता चलता है कि देश में अपने लोगों को खिलाने के लिए शायद ही पर्याप्त अनाज है, खाद्यान आत्मनिर्भर या निर्यातक बनने की बात तो अलग है। भारत 27 करोड़ भूखे लोगों का घर है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा है। ऑक्सफैम के खाद्य उपलब्धता सूचकांक में भारत 97वें स्थान पर है और 2018 ग्लोबल हंगर इंडेक्स में इसका स्थान 103 है।

एक देश तभी आत्मनिर्भर कहा जा सकता है जब यह घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त उत्पादन करता हो। खाद्य कृषि संगठन ने आत्मनिर्भरता के तीन स्तर बनाए हैं- 80 प्रतिशत से नीचे, जो खाद्य घाटे का संकेत, 80 से 120 प्रतिशत के बीच, जो आत्मनिर्भरता का संकेत है और 120 प्रतिशत से ऊपर, जिसका मतलब फूड सरप्लस है। भारत इस स्तर में खुद को दूसरे स्थान पर दिखाता है, यानी भारत खुद को आत्मनिर्भर दिखाता है। इस समूह में चीन, यूनाइटेड रिपब्लिक ऑफ तंजानिया और बोलीविया शामिल है। सरकार का अपना आंकड़ा ही दिखाता है कि देश आत्मनिर्भर नहीं है।

नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने 2016-17 में 25.7 करोड़ टन खाद्यान की मांग की भविष्यवाणी की थी। चंद केंद्रीय कृषि मंत्रालय के उस कार्यकारी समूह का हिस्सा थे, जिसने 2012 से 2017 तक मांग और आपूर्ति संतुलन पर विस्तृत रिपोर्ट दी थी। सरकार अगर इससे अधिक उत्पादन करती तो सरप्लस उत्पादन का दावा कर सकती थी। देश ने उस वर्ष 27.5 करोड़ टन खाद्यान का उत्पादन किया। यह अनुमानित मांग से कुछ ही मिलियन टन अधिक था और सूखे के दौरान मांग पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं था।

देश तभी आत्मनिर्भर कहा जा सकता है जब यह घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त उत्पादन करता हो (रवलीन कौर / सीएसई)

भूख के समय में निर्यात

अब कृषि उत्पादन का शुद्ध निर्यात करने वाले देश होने के सरकार के दावे का विश्लेषण करते हैं। देश ने 2015-16 में 2.04 करोड़ टन कृषि उपज का निर्यात किया और 2017-18 में 2.23 करोड़ टन निर्यात किया। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत ने 2015-16 में 81 लाख टन और 2017-18 में 94 लाख टन अनाज का आयात किया। इसे देखते हुए सब कुछ ठीक लगता है, लेकिन भारत बड़े पैमाने पर अनाज आयात कर रहा है। खाद्य अनाज के आयात से संकेत मिलता है कि देश प्रमुख खाद्य उत्पादन में कितना पीछे है। 2015-16 में, आयातित कृषि उपज का 79 प्रतिशत हिस्सा खाद्यान्न था। अगले वर्ष यह आंकड़ा 78 प्रतिशत था।

2016 में गेहूं का बड़े पैमाने पर आयात के पीछे सूखा को जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन पिछले दो दशकों में खाद्य तेल और दालों का बड़े पैमाने पर आयात किया गया है।

देश के कई हिस्सों में अब भी चावल, गेहूं और दाल की भारी कमी है। कृषि नीति विश्लेषक देवेंद्र शर्मा कहते हैं, “अगर सरकार अपने सभी भूखे लोगों को खिलाने का फैसला करती है तो देश का शुद्ध निर्यातक होने का दावा खत्म हो जाएगा।” पिछले कई दशकों से प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता स्थिर रही है। आर्थिक सर्वेक्षण 2018 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि खाद्यान्न की शुद्ध उपलब्धता प्रति व्यक्ति 487 ग्राम प्रति दिन है। 1961 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 468.7 ग्राम थी, जबकि 1971 में यह 468.8 ग्राम थी। यह 1981 में 454.8 ग्राम तक गिर गया। 1991 में प्रति दिन प्रति व्यक्ति 510 ग्राम के रूप में शुद्ध उपलब्धता बढ़ी तो जरूर लेकिन इसके आगे यह कभी नहीं बढ़ सकी।

1991 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति खाद्यान उपलब्धता 186.2 किलोग्राम और 2016 में 177.7 किलोग्राम थी। 1903 से 1908 के बीच खाद्यान्न की शुद्ध उपलब्धता 177.3 किलोग्राम थी। ऐतिहासिक रूप से ये कम आंकड़े भारत में ब्रिटिश शासन की याद दिलाते है, जब इसी तरह की खाद्यान उपलब्धता होती थी।

इसके विपरीत, 2015 में चीन में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 450 किलोग्राम, बांग्लादेश में 200 किग्रा और अमेरिका में 1,100 किलोग्राम से अधिक थी।

स्रोत : कृषि सांख्यकीय, कृषि एवं परिवार कल्याण मंत्रालय

पौष्टिकता निराशाजनक

जहां इतने सालों में खाद्य पहुंच में सुधार नहीं हुआ वहीं पोषण की उपलब्धता भी निराशाजनक है। 2011-12 में ग्रामीण भारत में रहने वाले लोगों के बीच वास्तविक और अनुशंसित आहार ऊर्जा सेवन में 30 प्रतिशत का अंतर था। उस वर्ष, शहरी क्षेत्रों में यह अंतर 20 प्रतिशत था।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि यह अंतर तब है जब देश की प्रति व्यक्ति आय लगभग 1,400 गुना बढ़ी है। यह आय 1991 के 6,270 रुपए से बढ़कर 2016 में 93,293 हो गई है। लेकिन लोगों की क्रय शक्ति कम हो गई है। यह असंगठित और कृषि क्षेत्रों में निवेश न होने के कारण है। वह कहते हैं, “पिछले दो दशकों में देश के निवेश का केवल 10 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में आया जबकि कृषि क्षेत्र में 50 प्रतिशत ग्रामीण श्रमिक लगे हुए हैं।”

1993-94 से 2011-12 के बीच, कम आय वर्ग के बीच औसत कैलोरी का सेवन बढ़ गया। हालांकि, अमीर परिवारों के बीच कैलोरी सेवन में गिरावट आई है। चंद के मुताबिक, गरीबों में कैलोरी खपत में वृद्धि बताता है कि भोजन पहुंच में सुधार हुआ है। वह अमीर लोगों के बीच कैलोरी सेवन में आई कमी की वजह बदलती खाद्य आदत और स्वास्थ्य चेतना में वृद्धि बताते हैं।

जेएनयू की प्रोफेसर एमेरिटस उत्सा पटनायक कहती हैं, “सरकार व अकादमी जगत के अधिकांश लोग कम पोषण को खपत विविधीकरण से जोड़कर देखते हैं।” लेकिन यह सच नहीं है।

वह कहती हैं कि कारण अनाज की कमी है।

खाद्य अनाज के उपभोग में गिरावट असल में लोगों की खरीद शक्ति में आ रही निरंतर गिरावट के कारण है। इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में अर्थशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रद्युमन कुमार पोषण में कमी की वजह दाल आदि जैसे अनाज की अनुपलब्धता को मानते हैं। वह कहते हैं, “पोषण का तीन-चौथाई हिस्सा दाल और इस जैसे अन्य अनाज से मिलता है। दाल की खपत में गिरावट की क्षतिपूर्ति फल या पशुधन उत्पादों की खपत में वृद्धि से नहीं होती है।” पौष्टिकता में कमी और भूख को देखते हुए यह चिंताजनक है कि देश का ध्यान कृषि से हटकर आयात की तरफ स्थानांतरित हो गया है।

देविंदर शर्मा, कृषि नीति विश्लेषक, चंडीगढ़

“हम जल्द एक पूर्ण आयातक देश बन सकते हैं”

देविंदर शर्मा - कृषि नीति विश्लेषक, चंडीगढ़

खाद्यान्न उत्पादन में देश निश्चित रूप से सरप्लस नहीं है। जब तक हम अपनी भूख की समस्या हल नहीं करते, हम खाद्यान सरप्लस होने का दावा नहीं कर सकते। अमेरिका के पास पहले अपने लोगों और पशुओं का पेट भरने और फिर निर्यात करने की नीति है। भारत में ऐसी कोई नीति नहीं है। हम एक शुद्ध निर्यातक देश होने का दावा करते हैं। यह सच नहीं है। अगर हम सरप्लस उत्पादन वर्षों में लोगों के बीच समान रूप से अनाज वितरित करते हैं, तो हम घाटे में आ जाएंगे। सरप्लस उत्पादन करने के बजाय, हम वास्तव में आत्मनिर्भर होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सरप्लस उत्पादन होता है, लेकिन खराब प्रबंधन से लोग भूखे रह जाते हैं। हमारे पास सरप्लस उत्पादन को प्रबंधित करने के लिए आवश्यक भंडारण, कोल्ड स्टोरेज और परिवहन सुविधाओं जैसे बुनियादी ढांचे नहीं हैं। इन राज्यों में जितना अधिक उत्पादन होता है, उतना ही सड़ता भी है। अगर यही स्थिति बनी रहती है, तो भारत जल्द ही शुद्ध आयातक देश बन जाएगा।

पीके जोशी, निदेशक, साउथ एशिया, इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली

“भारत फूड सरप्लस बन जाएगा”

पीके जोशी, निदेशक, साउथ एशिया, इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली

हम भोजन में आत्मनिर्भर हैं और फूड सरप्लस देश बनने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। वितरण समस्याओं के कारण भूख और कुपोषण है। इसके अलावा, कुछ क्षेत्रों में लोगों के पास पर्याप्त क्रय शक्ति नहीं है। इसलिए वे पौष्टिक भोजन नहीं खरीद सकते। हम गेहूं और चावल में सरप्लस हैं, इसलिए मांग कम हो गई है। हम फल और सब्जियों में भी सरप्लस हैं। हम कुछ वर्षों के भीतर दाल के मामले में आत्मनिर्भर हो जाएंगे। जैसे-जैसे हम फूड सरप्लस होने की ओर बढ़ते हैं, हमें अपनी रणनीति बदलनी चाहिए और अनाज की तुलना में अधिक पौष्टिक भोजन पैदा करने की दिशा में जाना चाहिए। हम इसे निर्यात कर सकते हैं और इस प्रकार किसानों की आय में वृद्धि कर सकते हैं। भारत में निर्यात और आयात दोनों बढ़ रहे हैं। हमें निर्यात के लिए अफ्रीका, पश्चिम एशिया और मध्य एशिया को लक्षित करना चाहिए और यूरोपीय संघ व अमेरिका में आकर्षक पौष्टिक खाद्य बाजारों की तलाश करनी चाहिए।

नीलकंठ मिश्रा, इंडिया इक्विटी स्ट्रैटिजिस्ट, क्रेडिट सुइस, मुंबई

“थोड़ा आयात, थोड़ा निर्यात”

नीलकंठ मिश्रा, इंडिया इक्विटी स्ट्रैटिजिस्ट, क्रेडिट सुइस, मुंबई

भारत अनाज उत्पादन में सरप्लस है। हम आत्मनिर्भरता के बावजूद दालों का आयात करते हैं क्योंकि हमने कुछ देशों के साथ अनुबंध किए हैं। इसे तोड़ने से नकारात्मक प्रतिक्रिया हो सकती है। इसलिए, कृषि उत्पादों के आयात में वृद्धि के बावजूद, हम शुद्ध कृषि निर्यात देश हैं। आयात डेटा एक बढ़ती प्रवृत्ति दिखाता है। हम हमेशा कुछ आयात करेंगे और कुछ निर्यात करेंगे। कभी-कभी ऐसा भौगोलिक कारणों से भी होता है। तथ्य ये है कि भारत अब कृषि उत्पाद में अब सरप्लस है। यहां तक कि अमेरिका, जो कृषि व्यापार में सरप्लस है, 138 बिलियन डॉलर खाद्यान का निर्यात करता है। वह बड़ी मात्रा में आयात भी करता है। वास्तव में अमेरिकी कृषि व्यापार सरप्लस भारत की तुलना में कम है।

भास्कर गोस्वामी - उपाध्यक्ष, एनआर मैनेजमेंट कंसल्टेंट्स, नई दिल्ली

“मोटे अनाज के निर्यात पर ध्यान दें”

भास्कर गोस्वामी, उपाध्यक्ष, एनआर मैनेजमेंट कंसल्टेंट्स, नई दिल्ली

हमारी फूडग्रेन बास्केट उपलब्धता मिश्रित है। हम गेहूं और चावल जैसी वस्तुओं में सरप्लस हैं, लेकिन दाल और खाद्य तेल आयात करते हैं। यह देखना महत्वपूर्ण है कि हम क्या निर्यात कर रहे हैं। हम चावल निर्यात करते हैं। इसकी फसल को सिंचाई के लिए बहुत सारे पानी की आवश्यकता होती है। हमें कम पानी की आवश्यकता वाले मोटे अनाज, जैसे बाजरा निर्यात करने के बारे में सोचना चाहिए। ऐसे निर्यात से हम अपने पारिस्थितिकीय पदचिह्न (इकोलॉजिकल फुटप्रिंट) बढ़ा सकते हैं। फसल का सरप्लस उत्पादन आगे भी सरप्लस उत्पादन की गारंटी नहीं देता है। सूखे के लगातार दो वर्षों में हम 60 लाख टन गेहूं आयात करने के लिए मजबूर हुए। चीनी को लेकर भी ऐसा ही था। खाद्य उत्पादन खाद्य सुरक्षा में नहीं बदल पा रहा है। उपलब्धता और सही कीमत पर खरीद पाने की क्षमता भी महत्वपूर्ण कारक हैं। सरकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) एक सार्वभौमिक कार्यक्रम था। इससे कैलोरी का सेवन बढ़ने में मदद मिली। लेकिन जब पीडीएस एक लक्षित कार्यक्रम में बदल गया तो भोजन तक पहुंच कम हो गई। इससे भूख की समस्या बढ़ी।

रमेश चंद
सदस्य, नीति आयोग

“फूड बास्केट में परिवर्तन पोषण कम कर रहा है”

रमेश चंद, सदस्य, नीति आयोग

मुझे नहीं लगता कि प्रति व्यक्ति शुद्ध खाद्यान उपलब्धता असली तस्वीर पेश करती है। मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूं कि 1991 से खाद्यान उपलब्धता में वृद्धि नहीं हुई है। अनाज की कई परिभाषाएं हैं। कुछ के अनुसार, इसमें केवल गेहूं और चावल शामिल है। अन्य के मुताबिक, अनाज और दालें खाद्यान हैं। जब हम खाद्यान उपलब्धता पर चर्चा करते हैं, तो हम अन्य महत्वपूर्ण चीजों को भूल जाते हैं। यदि हम कुल भोजन को देखें, जिसमें अनाज, दाल, सब्जियां, फल, मोटे अनाज, दूध, मांस, अंडे और मछली शामिल हैं, तो प्रति व्यक्ति उपलब्धता बहुत अधिक हो जाती है। वर्तमान में, हम अनाज से अधिक फल और सब्जियां पैदा करते हैं। हम अब अधिक उपभोग करते हैं, खाद्य तेलों और दालों के आयात पर अत्यधिक निर्भर हैं। हम खाद्य तेलों का 60 प्रतिशत और दाल का एक-तिहाई आयात करते हैं। हमने हाल ही में दाल उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल की है। वर्षों से दाल और इन जैसे अन्य अनाज की खपत और उन पर व्यय में कमी आई है। यह दिखाता है कि हमारे खाने की प्लेट या फूड बास्केट विविधतापूर्ण होती जा रही है। लोग अनाज से दूर जा रहे हैं। उच्च आय समूह कम खाना खा रहा है और पोषण खो रहा है। न्यूनतम ऊर्जा आवश्यकताओं के महत्व पर जागरूकता पैदा करना और खाद्य पदार्थों से ऊर्जा अवशोषित करने के लिए शारीरिक गतिविधियों में वृद्धि करना महत्वपूर्ण है।

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