Governance

आबादी, श्राप या संसाधन?

दुनिया को ऐसे विचारों की जरूरत है जो तय कर पाएं कि जनसंख्या श्राप है या संसाधन क्योंकि जनसंख्या को श्राप बताते वाले कई अनुमान औंधे मुंह गिरे हैं। 

 
By Rakesh Kalshian
Published: Tuesday 15 May 2018

तारिक अजीज / सीएसई

1968 में एक युवा अमेरिकी बटरफ्लाई एक्सपर्ट पॉल एहर्लिच की पुस्तक “द पॉपुलेशन बम” प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने एक विवादास्पद दावा किया था कि मानवता को खिलाने की लड़ाई खत्म हो गई है और आने वाले दो दशकों में भूखमरी से लाखों की मौत हो जाएगी। उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की थी कि आर्थिक विकास के लिए हमें आबादी की विशालता को रोकना चाहिए। हालांकि, उनका “बम” फुस्स साबित हुआ, क्योंकि उन्होंने मानव चतुराई को कम आंकने का काम किया। हरित क्रांति ने इतना अन्न का उत्पादन कर दिया कि वह लाखों लोगों को बचाने में कामयाब रहा।

एहर्लिच को जबरदस्ती बंध्याकरण की वकालत करने के लिए “हिटलर से भी बदतर” मना जाता था। इस किताब के आने के 50 साल बाद और गलत साबित होने के बावजूद वह फिर से शोर मचा रहे हैं। उन्होंने हाल ही में द गार्डियन को बताया “कुछ ही दशकों के भीतर सभ्यता का पतन निश्चित है...जब तक आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का लक्ष्य मानव है।”

एहर्लिच, नव-माल्थसवाद के पोस्टर बॉय हैं, जो जनसंख्या वृद्धि के विपदात्मक परिणामों के बारे में बहस को पुनर्जीवित करते हैं। सबसे पहले 1780 के अपने निबंध में जनसंख्या सिद्धांत पर टीआर माल्थस ने लिखा था। माल्थस ने तर्क दिया था कि आबादी की वृद्धि ज्यामितीय ( 1, 2, 4, 8, 16, 32, 64 ...) रूप से होती है, जबकि भोजन अंकगणितीय मात्रा (1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 ...) से बढ़ता है। कोई भी व्यक्ति, जिसने बुनियादी अंकगणित नहीं पढ़ा है, यह पता लगा सकता है कि इस विसंगति का परिणाम क्या होगा।

चतुर जनसांख्यिकी विशेषज्ञ यह देख सकते हैं कैसे यह एक तरह का सांख्यिकीय कुतर्क है। फिर भी मानव तेजी से प्रजनन करता है, एक सार्वजनिक कल्पना है। चीन की एक बच्चे की नीति और भारत में लंबे समय से चला आ रहा परिवार नियोजन कार्यक्रम संख्याओं की घातक शक्तियों को बताता है। 9 मार्च को, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी याचिका को खारिज कर दिया था, जो प्रति परिवार सिर्फ दो बच्चों की मांग करती थी। न्यायालय ने बुद्धिमतापूर्ण तरीके से मामले को संसद के पाले में डाल दिया।

इसी तरह की मंजूरी मांगने वाली कम से कम पांच अन्य याचिकाएं अब भी कतार में हैं। ये सभी याचिकाएं कमोबेश इस कल्पना पर आधारित हैं कि “अधिक जनसंख्या” हमारे सभी समस्याओं, संसाधनों की कमी, बेरोजगारी, अपराध, पर्यावरणीय क्षति, बीमारी और गरीबी का कारण है।

हम भूल जाते हैं कि वह इंदिरा गांधी ही थी, जिन्होंने 1972 में गरीबी को चित्रित किया था, न कि जनसंख्या ने गरीबी बढ़ाने का काम किया। विडंबना यह है कि उनकी सरकार ने आपातकाल के दौरान आबादी नियंत्रण के नाम पर जघन्य कृत्य किए। 1974 में उनके मंत्री कर्ण सिंह ने पहले “विकास को सबसे अच्छे गर्भनिरोधक के रूप में” बताया। बाद में यू-टर्न लेते हुए “गर्भनिरोधक को सर्वश्रेष्ठ विकास के रूप में” बताया।

आबादी के बारे में यह भावना शैक्षणिक बहस से भी निर्मित होती है, जब शुरू से ही हमें पढ़ाया जाता है कि क्या जनसंख्या श्राप है या संसाधन। 1980 में, एहर्लिच ने एक बिजनेस प्रोफेसर जूलियन साइमन, जो जनसंख्या को संसाधन मानते थे, से यह दांव लगाया कि अगले दशक में पांच मुख्य औद्योगिक धातुओं-क्रोमियम, तांबा, निकल, टिन और टंगस्टन का मूल्य बढ़ जाएगा। पॉल सबिन के मुताबिक ये एक ऐसी प्रतियोगिता थी, जो भविष्य के प्रतियोगी माहौल और मानव अधिकता को लेकर थी।

एहर्लिच फिर से हार गए। विश्व की आबादी में 800 मिलियन जनसंख्या और जुड़ने के बावजूद, सभी पांच धातुओं की कीमत नीचे आ गई। एहर्लिच जैसों के लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि बहुतायत के कारण जरूरी नहीं की कमी हो ही। संसाधनों में कमी और बढ़ती कीमतों के कारण बाजार विकल्प तलाशता है।

यह सच है कि पॉपुलेशन बम के बारे में एहर्लिच की भयानक भविष्यवाणियां गलत साबित हुईं। इसके विपरीत, हाल के विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अधिकांश देशों की जनसंख्या गिरावट पर है। दरअसल, ऐसे लोगों के लिए यह खबर है, जो मुस्लिम विकास दर के बारे में अफवाहें फैलाते हैं। ईरान, सऊदी अरब, बांग्लादेश और इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम बहुल देशों में प्रजनन दर कम या स्थिर है, जबकि मिस्र और पाकिस्तान बहुत पीछे नहीं हैं।

यानि, कुल जनसंख्या अभी भी बढ़ रही है, भले ही कम रफ्तार से। वर्तमान दरों पर, यह इस शताब्दी के अंत तक 11 बिलियन हो जाएगी। नीयो-माल्थुसियन, जैसे एहर्लिच के लिए यह सीमा अधिकतम 2 बिलियन है, जिससे कि धरती जनसंख्या का भार सह सके। एहर्लिच और हार्वर्ड के जीवविज्ञानी ईओ विल्सन जैसे लोग चाहते है कि आधा ग्रह मानव से खाली हो।

अधिकांश पर्यावरणविद खतरनाक लक्षणों पर सहमत हो सकते हैं, लेकिन इस तरह के निदान पर असहमत हैं। उनके लिए, असल समस्या दुनिया के गरीब नहीं बल्कि धनी दुनिया के लालची लोग हैं। यह देखना जरूरी है कि वैश्विक खपत कितनी गलत तरीके से हो रही है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि आधा बिलियन धनी (विश्व जनसंख्या का लगभग 7 प्रतिशत) दुनिया के उत्सर्जन के 50 प्रतिशत के लिए जिम्मेवार है, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत केवल 7 प्रतिशत का योगदान करते हैं।

“पारिस्थितिक पदचिह्न” का पैमाना- एक औसत व्यक्ति के लिए भोजन और कपड़े जैसे आवश्यक संसाधनों को हासिल करने के लिए हेक्टेयर की संख्या को भी देखिए। यह अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के लिए क्रमशः 9.5, 7.8 और 5.3 है जबकि चीन के लिए 2, भारत और अफ्रीका के लिए 1 है।

बहुत से लोगों के लिए, यह असहनीय असमानता हमारे सामाजिक और पर्यावरणीय बुराई का असली स्रोत है। प्रजनन को केवल बलि का बकरा बनाया जाता है। यह कल्पना करना आसान है कि आने वाले कल में बढ़ती मानव संख्या खाद्य आपूर्ति उपलब्धता को कम कर देगा। लेकिन, अगर हम इतिहास में झांकना चाहे, तो पाएंगे कि हमारे वर्तमान संकट का असली अपराधी असमानता, युद्ध और उपनिवेशवाद है। इस दृष्टि से, माल्थस और उनके आधुनिक संस्करण, फ्रांसीसी साहित्यिक सिद्धांतवादी रेने जिरार्ड के अनुसार ऐसे लोग हैं, जैसे शिकारी स्वयं को अपने पीड़ितों के मुकाबले पीड़ित के रूप में देखते हैं।

नीयो-माल्थुसियंस से इस समस्या का समाधान मिलने की बहुत उम्मीद नहीं है। जाहिर है, हमारे जीवन में तेजी से परिवर्तन करने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। हालांकि, ब्रिटिश पर्यावरण विश्लेषक लैरी लोहमैन का तर्क है, “ये संघर्ष संख्या के बजाय अधिकारों को लेकर है। यह संघर्ष एक असंभव से स्व-विनियमन बाजार और केंद्रीकृत और विकेंद्रीकृत शक्ति की विवादित मांग को लेकर है।

यह एक राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्ष है, न कि सूचित और असूचित के बीच कोई विवाद है।” अमेरिकी दार्शनिक रिचर्ड रोर्टी ने एक बार लिखा था, “यह वचन की बजाय तस्वीर है, बयान के बजाय रूपक है, जो हमारी ज्यादातर दार्शनिक मान्यताओं को निर्धारित करते हैं।” शायद जनसंख्या पर एक ताजा बहस शुरू करने के लिए दुनिया को एक नए रूपक की जरूरत है।”

(इस कॉलम में विज्ञान और पर्यावरण की आधुनिक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है)

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