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कबरई में पत्थर उद्योग से घर-घर बीमार, हर घर शिकार

बुंदेलखंड क्षेत्र के महोबा जिले में स्थित कबरई और उसके आसपास का इलाका पत्थर खनन और धूल उगलती क्रेशरों की भारी कीमत चुका रहा है। पत्थर उद्योग ने कबरई क्षेत्र के पर्यावरण और जन स्वास्थ्य पर ऐसी चोट की है जिसकी भरपाई आसान नहीं है। जमीनी हकीकत से रूबरू कराती भागीरथ की रिपोर्ट

 
By Bhagirath Srivas
Published: Friday 06 September 2019
कबरई के विशाल नगर के पास बांध रोड पर स्थित पहाड़ में पातालफोड़ खुदाई कर दी गई है और अब भी खनन जारी है (फोटो: भागीरथ/ सीएसई)

सुबह सात बजे हम महोबा से निकले और बाइक से 16 किलोमीटर दूर कबरई पहुंचते-पहुंचते पूरी तरह धूल (सिलिका डस्ट) में सन चुके थे। राष्ट्रीय राजमार्ग-76 पर गिट्टी-पत्थर से भरे डंपरों की लगातार आवाजाही, धूल का ऐसा गुबार उड़ा रही थी कि कई बार आंखों के सामने धुंधलका छा गया। कबरई से करीब 10 किलोमीटर पहले डहर्रा मोड़ से राष्ट्रीय राजमार्ग-76 के दोनों तरफ खेतों और बस्तियों के ऊपर धूल का गुबार दिखना शुरू हुआ जो कबरई नजदीक आने के साथ बढ़ता और गाढ़ा होता गया। कबरई पहुंचने तक धूल की एक परत हमारे चेहरे, कपड़ों और बालों को ढंक चुकी थी। सड़क किनारे चल रही दर्जनों क्रेशरों के आसपास खेतों में जमी धूल की मोटी चादर बता रही थी कि अब जमीन में अनाज नहीं, धूल उगती है। पेड़-पौधों का हरा रंग बदरंग था। प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन क्या होता है, यह कबरई पहुंचकर समझ में आता है। विकास की भारी कीमत यह इलाका चुका रहा है।

करीब 23 साल पहले कबरई के पर्यावरण पर मंडराते इस संकट की सूचना दे दी गई थी। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली और विज्ञान शिक्षा केंद्र, बांदा द्वारा 1996 में प्रकाशित “प्रॉब्लम्स एंड पोटेंशियल ऑफ बुंदेलखंड” रिपोर्ट में आगाह किया गया था, “वर्तमान में कबरई ग्रेनाइट खनन और स्टोन क्रेशिंग का केंद्र है। यह इतना गंभीर है कि आसपास के क्षेत्र में पर्यावरण प्रदूषण का खतरा मंडरा रहा है। अगर इस पर अभी ध्यान नहीं दिया गया तो यह आसपास के नगरों की कृषि और स्वास्थ्य को पूरी तरह बर्बाद कर देगा।” रिपोर्ट में जिस डर का जिक्र था, वह अब हकीकत का रूप ले चुका है।

प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के महोबा जिले में 29,632 लोगों की आबादी वाले कबरई में साल 1979 में सर्वप्रथम दो स्टोन क्रेशर चालू हुए और इसी के साथ पत्थर मंडी की नींव पड़ी। 1982 में सरकार ने इस ओर ध्यान दिया और फिर धड़ाधड़ स्टोन क्रेशर लगने का सिलसिला चल पड़ा। विकास व निर्माण कार्यों में तेजी के कारण गिट्टी की मांग बढ़ने पर इस कारोबार को पंख लग गए और देखते ही देखते यह इलाका पत्थर खनन का केंद्र बन गया। स्थानीय पत्रकार हरिकिशन पोद्दार बताते हैं कि वर्तमान में महोबा में करीब 400 स्टोन क्रेशर चल रहे हैं। इनमें करीब 350 क्रेशर अकेले कबरई क्षेत्र में हैं। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक, चित्रकूट धाम मंडल (महोबा, बांदा और चित्रकूट जिले) में कुल 308 स्टोन क्रेशर हैं (देखें सैटेलाइट तस्वीरें)।

इन सैटेलाइट तस्वीरों में कबरई और अासपास के इलाकों में दिख रहे सफेद धब्बे क्रेशरों की बढ़ती संख्या को प्रदर्शित करते हैं। 1985 और 1995  के मुकाबले 2018 में यह सफेद परत काफी बढ़ गई है। इससे जहां भूमि बंजर हुई, वहीं वायु प्रदूषण की समस्या भी गंभीर हो गई

ताक पर कानून

कबरई के मोचीपुरा और विशाल नगर के पास पहाड़ों को 250-300 फीट की गहराई तक खोद िदया गया है। इतनी गहराई तक हुए खनन के कारण जमीन से पानी निकलने लगा है। मोचीपुरा में तो खनन बंद है लेकिन विशाल नगर में बस्ती के पास खदान में खनन लगातार जारी है। स्थानीय भाषा में इतनी गहरी खुदाई को पातालफोड़ खुदाई कहते हैं। इस तरह की खुदाई खान अधिनियम 1952 का खुला उल्लंघन है। अधिनियम कहता है कि खनन उच्चतम बिंदु से निम्नतम बिंदु के 6 मीटर की गहराई तक ही हो सकता है। अधिनियम में खदान में 18 वर्ष से कम उम्र के मजदूर से काम कराना प्रतिबंधित है। साथ ही मजदूरों को काम के निश्चित घंटे, चेहरे को ढंकने के लिए मास्क, चिकित्सा सुविधा, समान मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने को कहा गया है। आमतौर पर पत्थर खदानों में इन प्रावधानों का पालन नहीं किया जाता है। बाल मजदूरी तो बहुत आम है। लंबे समय से खनन पर नजर रख रहे सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सोनी बताते हैं कि महोबा में लगभग 350 वैध पट्टे हैं और करीब 3,500 एकड़ में खनन होता है। इतने ही क्षेत्र में अवैध खनन का धंधा भी फल-फूल रहा है। खनन में प्रतिबंधित विस्फोटक अमोनियम नाइट्रेट का भी प्रयोग होता है। जुलाई 2018 में कबरई के पहरा में छापा मारकर खनन निरीक्षक ने 50 किलो अमोनियम नाइट्रेट पकड़ा था। जनवरी 2019 में मध्य प्रदेश से अवैध तरीके से आ रही अमोनियम नाइट्रेट की 50 बोरियां कबरई पुलिस ने जब्त की थीं। पोद्दार बताते हैं कि खनन में नियमों को ताक पर रखना आम है। दो एकड़ के पट्टे का स्वामी तीन से चार एकड़ में खनन कर देता है। वह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अवैध खनन प्रशासन की मिलीभगत से होता है। सूचना के अधिकार कार्यकर्ता आशीष सागर पत्थर खनन उद्योग को भयावह बताते हुए कहते हैं कि पत्थर उद्योग ने महोबा, चित्रकूट और बांदा जिले में करीब 300 पहाड़ खत्म कर दिए हैं।

विकास की भारी कीमत

“प्रॉब्लम एंड पोटेंशियल ऑफ बुंदेलखंड” रिपोर्ट में जो भयावह कल्पना की गई थी, आज कबरई का मोचीपुरा इलाका इसका जीता जागता उदाहरण बन चुका है। यहां रहने वाली गायत्री के पति का साल 2000 में खदान में काम करने के दौरान एक पैर टूट चुका है। अब उनके पति एक स्टोन क्रेशर में 10 हजार के मासिक वेतन पर काम कर रहे हैं। गायत्री को अपने पति के स्वास्थ्य की चिंता है क्योंकि वह अक्सर खांसते रहते हैं और उन्हें सांस लेने में भी दिक्कत होती है। उनके ससुर की भी एक आंख खराब हो चुकी है। गायत्री से बातचीत के बीच ही मोचीपुरा के गंगाराम हमारे पास आए और बताया कि 2005 में उनका छोटा भाई संतोष घर में बैठा था, तभी लौडा पहाड़ में विस्फोट के बाद उछलकर आया पत्थर उसकी गर्दन पर जा लगा, जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गई। उस समय उनका भाई महज आठ साल का था। खदानों में विस्फोट से पत्थर आने की घटनाएं बेहद आम हैं। भारी विस्फोट के दौरान 200-300 मीटर की दूरी तक बड़े-बड़े पत्थर आकर गिरते हैं और छोटे पत्थर तो 500 मीटर तक चले जाते हैं।

कबरई के ही एक अन्य मुहल्ले विशाल नगर में रहने वाले 38 साल के मातादीन 2017 में खदान में काम करते वक्त 90 फीट के ऊंचाई से गिर गए थे। किस्मत से उनकी जान तो बच गई लेकिन रीड़ की हड्डी और पसलियों में फ्रैक्चर आ गया। उन्हें भी मुआवजा नहीं मिला। मातादीन अब लाचार हो गए हैं। वह मेहनत का काम नहीं कर पाते। घर में परचून की छोटी-सी दुकान के सहारे जिंदगी की गुजर-बसर कर रहे मातादीन खदान में काम करने को मजबूरी बताते हुए बुझे मन से कहते हैं कि पहाड़ और क्रेशर में काम नहीं होगा तो भी लोग भूख और बेरोजगारी से मरेंगे। काम करके धूल और हादसे में मरना है। उनका आकलन है कि अकेले कबरई में पिछले एक साल में 25-30 लोग पहाड़ से गिरकर मर चुके हैं। विशाल नगर के बाद हम कबरई के ही दूसरे मुहल्ले लक्ष्मीबाई नगर पहुंचे। यहां हमें 55 साल की रानी मिलीं। उन्होंने जुलाई 2018 में एकमात्र कमाऊ बेटा खोया है। उनका बेटा सुनवा पहाड़ में सुराख कर रहा था, तभी रस्सी टूट गई और वह दो अन्य लोगों के साथ 400 फीट की ऊंचाई से गिर पड़ा। हादसे में दो लोगों की मौत हो गई जबकि एक अपाहिज हो गया। रानी बताती हैं कि जब सुनवा नीचे गिरा तो उसे डंपर में डालकर अस्पताल ले जाया गया। चार पहिए की गाड़ी में उसे समय पर अस्पताल पहुंचा दिया जाता तो शायद जान बच जाती। सुनवा मकरबई गांव की एक खदान में काम कर रहा था। सुनवा की मौत के बाद ठेकेदार ने भारी दबाव पर करीब 6 लाख रुपए मुआवजे के तौर पर दिए, लेकिन अधिकतर हादसों में ऐसा नहीं होता। आमतौर पर 20 हजार से एक लाख रुपए देखकर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है। रानी सुनवा से पहले अपने पति को भी टीबी की बीमारी से खो चुकी हैं।

खदानों और क्रेशर में काम करने वाले मजदूरों की मौत, बीमारी और विक्लांगता का कोई आधिकारिक और प्रमाणित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है क्योंकि अधिकांश मामले प्रशासन तक नहीं पहुंच पाते। पोद्दार बताते हैं कि महोबा में पत्थर उद्योग से जुड़े औसतन 6 लोग हर महीने जान गंवा रहे हैं। कैलाश सोनी खनन और क्रेशर को धीमा जहर बताते हुए कहते हैं कि कबरई क्षेत्र में करीब 50 हजार लोग खदानों और क्रेशरों में काम करते हैं और औसतन दो लोग रोज मर रहे हैं। महोबा के एक सरकारी अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर डाउन टू अर्थ को बताया कि पत्थर कारोबारियों से टकराने की हिम्मत कोई नहीं दिखा सकता। अगर वे चाहे तो डीएम और एसपी का रातोंरात ट्रांसफर करवा सकते हैं क्योंकि इस कारोबार में जुड़े अधिकांश लोगों के तार राजनीति से जुड़े हैं। पत्थर कारोबार का एक वीभत्स रूप सड़क हादसों के रूप में भी दिख रहा है। क्षेत्र के सांसद पुष्पेंद्र सिंह चंदेल ने जुलाई 2019 में संसद को बताया कि कबरई से कानपुर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-86 पर प्रतिदिन 10 हजार ट्रक पत्थर और बालू लेकर गुजरते हैं। इस राजमार्ग से आसपास बसे प्रत्येक गांव में पिछले तीन साल में 30-40 युवा हादसों में मारे जा चुके हैं। सांसद ने हादसों को रोकने के लिए राजमार्ग को चौड़ा करने की सख्त जरूरत बताई है। उन्होंने बताया कि हादसों के डर से बहुत से लोगों ने अपने बच्चों को नौकरी करने से मना कर दिया है।

रानी ने पिछले साल अपना इकलौता कमाऊ बेटा सुनवा खो दिया। खदान में काम करने के दौरान वह पहाड़ से गिर गया। उसे डंपर में  डालकर अस्पताल पहुंचाया गया (ऊपर)। कबरई से गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-76 में धूल उगलती क्रेशरों के कारण कोहरा सा छाया रहता है (बाएं)

बीमारियों का गढ़

कबरई की पत्थर खदानों और क्रेशर में काम करने और इसके आसपास रहने वाले लोग कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। विशाल नगर में रहने वाले विद्यासागर ने हाल में पथरी का ऑपरेशन कराया है। उन्होंने 15 साल खदान में काम किया है और इसे ही वह बीमारी का जड़ मानते हैं। विद्यासागर के घर के पास एक खदान है। खदान से पत्थर ढोने वाले भारी वाहन दिन-रात उनके घर के सामने कच्ची सड़क से गुजरते हैं। इस कारण दिनभर धूल उड़ती रहती है। ये धूल सांस, पानी और भोजन के जरिए शरीर में पहुंचकर बीमार करती है।

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ साइंस एंड रिसर्च (आईजेएसआर) में अक्टूबर 2016 में महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय के महेंद्र कुमार उपाध्याय और सूर्यकांत चतुर्वेदी का अध्ययन “रेस्पिरेटरी एलमेंट्स ऑफ स्टोन क्रेशर वर्कर्स इन बुंदेलखंड रीजन ऑफ उत्तर प्रदेश” प्रकाशित हुआ था। यह अध्ययन बताता है कि पत्थरों की तुड़ाई, ड्रिलिंग, ब्लास्टिंग, लोडिंग-अनलोडिंग और परिवहन से निकलने वाली धूल हवा और आसपास का वातावरण प्रदूषित करती है। सिलिका डस्ट स्वास्थ्य और कृषि के लिए बेहद खतरनाक है। अध्ययन में चित्रकूट के भरतकूप, बांदा और महोबा के कबरई क्षेत्र को शामिल किया गया। अध्ययन बताता है कि अधिकांश स्टोन क्रेशर में धूल को नियंत्रित करने के पर्याप्त उपाय नहीं हैं जिससे लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। क्रेशर में काम करने वाले अधिकांश मजदूर खांसी, कम वजन, बुखार, सीने में दर्द आदि से पीड़ित मिले। कम से कम पांच साल काम कर चुके 35 साल से अधिक उम्र के लोग टीबी के मामलों के लिए अधिक संवेदनशील पाए गए। सर्वेक्षण में शामिल कबरई के 40 प्रतिशत लोगों की रेडियोलॉजी रिपोर्ट असामान्य पाई गई।

बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के शेख असदुल्ला, एसवीएस राणा और अमित पाल का 2011 में जर्नल ऑफ ईकोफिजियोलॉजी एंड ऑक्युपेशनल हेल्थ में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि स्टोन क्रेशर से पानी और हवा खराब होती है। झांसी के क्रेशर प्रभावित क्षेत्रों में किए गए इस अध्ययन में 20-45 साल के 300 लोगों का स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया गया। इसमें पाया गया कि खदानों और क्रेशरों में काम करने वाले 45.11 प्रतिशत मजदूर सांस की बीमारियों, 43.33 प्रतिशत त्वचा रोगों, 21.53 प्रतिशत सुनने की क्षमता में कमी, 17.8 प्रतिशत आंखों की बीमारियों, 14.66 प्रतिशत दमा से जूझ रहे हैं। सिलिका फेफड़ों के कैंसर, तपेदिक (टीबी) का कारण बनने के साथ प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर करती है। वातावरण में बड़े पैमाने पर पहुंच रही धूल मनुष्यों के साथ वनस्पति और पशुओं को भी प्रभावित कर रही है।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों के अनुसार, स्टोन क्रेशर राष्ट्रीय अथवा राज्य राजमार्ग से 500 मीटर, अन्य मार्ग से 300 मीटर और आबादी से 1 किलोमीटर दूर होना चाहिए। वायु प्रदूषण को रोकने के लिए कवर्ड टीन शेड युक्त वाइब्रेटिंग स्क्रीन, धूल के भंडारण के लिए डस्ट खापा, बरसात का पानी जमा करने के लिए कच्चा गड्ढा, क्रेशर चलने के वक्त फव्वारे से छिड़काव का प्रावधान है। क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय ने आशीष सागर को सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए प्रश्न के जवाब में बताया है कि राष्ट्रीय राजमार्ग-76 पर कोई स्टोन क्रेशर सड़क किनारे नहीं चल रहा है। डाउन टू अर्थ ने अपने दौरे के दौरान राजमार्ग-76 किनारे कई क्रेशर चलते देखे। जब इस संबंध में क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय में 2004 से तैनात व हाल ही में सेवानिवृत हुए क्षेत्रीय अधिकारी वीके मिश्रा से बात की गई तो उन्होंने बताया, “राष्ट्रीय राजमार्ग किनारे चल रहे क्रेशर नियम बनने से पहले के हैं। उन्हें हटाने की प्रक्रिया चल रही है।” उनका कहना है कि क्रेशर रोजगार का बड़ा साधन हैं। अगर इन्हें बंद कर िदया गया तो लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा और वे हथियार उठा लेंगे। वह बताते हैं कि हालात में सुधार हुआ है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) में कॉप्लायंस मॉनिटरिंग से जुड़े वरिष्ठ कार्यक्रम प्रबंधक निवित कुमार गुप्ता बताते हैं “ स्टोन क्रेशर इकाई के साथ दो प्रमुख समस्याएं हैं। पहला है धूल का उत्सर्जन और दूसरा ध्वनि प्रदूषण। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अनलोडिंग, भंडारण और क्रशिंग ऑपरेशन से भारी मात्रा में पैदा हुई धूल नियंत्रित करने के लिए कारगर कदम नहीं उठा पा रहे हैं। इन स्टोन क्रेशर से ध्वनि प्रदूषण का स्तर कई बार इतना बढ़ जाता कि आसपास लोगों का रहना मुश्किल हो जाता है। क्रेशर संचालक लागत बढ़ने के डर से प्रदूषण नियंत्रण के उपाय करने से बचते हैं।”

चौपट खेती

यह धूल स्वास्थ्य के साथ खेती को बुरी तरह प्रभावित करती है। लक्ष्मीबाई नगर में रहने वाले कौशल किशोर बताते हैं कि उनके कबरई में उनके 40 बीघा खेत हैं। 30 बीघा के खेत में चार साल से एक दाना नहीं उगा है। आशीष बताते हैं कि कबरई में 80 प्रतिशत खेत डस्ट के कारण बंजर हो चुके हैं। पूरे बुंदेलखंड की बात करें तो 1,140 हेक्टेयर जमीन बंजर हो गई है। कृषि भूमि पर चल रही क्रेशरों का एक मामला नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) में भी लंबित है। याचिककर्ता मदनपाल सिंह ने कहा है कि महोबा में छह क्रेशर पर्यावरण के नियमों का उल्लंघन कर कृषि भूमि पर संचालित हो रहे हैं। 31 मई 2018 को हुई सुनवाई में एनजीटी ने इस मामले में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से तथ्यात्मक रिपोर्ट मांगी है। एनजीटी में चल रहे एक अन्य मामले में महोबा में चल रही 283 स्टोन क्रेशरों की रिपोर्ट बोर्ड से मांगी गई है।

आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर और बुंदेलखंड में पर्यावरण के मुद्दों पर लंबे समय से काम रहे भारतेंदु प्रकाश बुंदेलखंड में तमाम समस्याओं को खनन उद्योग से जोड़ते हुए कहते हैं, “यहां का पर्यावरण जंगल और पहाड़ों के आधार पर बना है। पहाड़ और जंगल बारिश लाने में अहम भूमिका निभाते हैं। खनन उद्योग पहाड़ों और जंगलों का विनाश करने पर तुला है। इसी कारण बुंदेलखंड में वर्षा असंतुलित हो गई है। पिछले कई साल से सूखा पड़ रहा है। कुएं, तालाब, ट्यूबवेल और नदियां सूख गई हैं। विकास के नाम पर पर्यावरण का सर्वनाश किया जा रहा है। इसका सबसे बुरा असर जनजीवन और खेती पर पड़ा है।” भारतेंदु कहते हैं कि 1980 के दशक में यहां के पहाड़ों और जंगलों में करीब 450 जड़ी बूटियां थीं। अब 10-15 भी मिलनी मुश्किल है।

भारतेंदु कबरई की तुलना कब्रिस्तान से करते हुए बताते हैं कि आने वाले समय में बहुत से कबरई अस्तित्व में आएंगे। उनकी यह बात सच साबित हो रही है। कबरई के बाद डहर्रा और अब छतरपुर जिले पर पत्थर कारोबारियों ने नजरें टिका दी हैं। कबरई के करीब 20 किलोमीटर दूर मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित प्रकाश बम्हौरी गांव में बड़े पैमाने पर खनन शुरू हो गया है। भारतेंदु कहते हैं, “अगर पहाड़ों को इसी गति से छलनी किया जाता रहा तो 25 साल में बुंदेलखंड के सारे पहाड़ खत्म हो जाएंगे और पूरा इलाका बंजर हो जाएगा।”

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