महात्मा गांधी की विचारधारा में आप एक पर्यावरणविद की सोच भी देख सकते हैं। वास्तव में यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि गांधीवाद के गर्भ में ही पर्यावरण छुपा बैठा है।
ए अन्नामलई
गांधी अपने काल में ही इतने प्रासंगिक हो गए कि वह एक विचारधारा बन गए थे। अल्बर्ट आइंस्टीन जब कह रहे थे कि आने वाली नस्लें भरोसा नहीं करेंगी कि दुनिया में ऐसा कोई हाड़-मांस का आदमी पैदा हुआ था तो उस वक्त गांधी पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक हो गए थे। आज के समय में जब समाज में नफरत और तनाव ज्यादा फैल रहा है, लोगों की जिंदगियां खतरे में हैं तो गांधी ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं।
आज जल, जंगल, जमीन के साथ इंसान भी नफरत के शिकार हो रहे हैं। हिंसा की भावना पूरे जैव जगत के लिए विध्वंसकारी होती है। 1942 से लेकर 1945 तक का समय वैश्विक इतिहास में अहम है। दुनिया के सारे बड़े देश अपने संसाधनों को युद्ध में झोंक रहे थे। दुनिया के अगुआ नेता युद्ध को ही समाधान मान रहे थे। लेकिन उसी समय गांधी अहिंसा की अवधारणा के साथ पूरे जैव जगत के लिए करुणा की बात करते हैं। हिंसा सिर्फ शारीरिक नहीं होती है। यह विचारधारा के स्तर पर भी होती है। आज परोक्ष युद्ध नहीं हो रहे हैं, लेकिन जिस तरह से पर्यावरण के साथ हिंसा हो रही है उसके शिकार नागरिक ही हो रहे हैं। जिस तरह दुनिया के अगुवा देश पर्यावरण को धता बताकर खुद को सबसे पहले बताता है तो इस समय गांधी याद आते हैं। आज के संदर्भ में देखें तो आपको गांधी एक पर्यावरण योद्धा भी नजर आएंगे, उनकी विचारधारा में आप एक पर्यावरणविद की सोच भी देख सकते हैं। वास्तव में यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि गांधीवाद के गर्भ में ही पर्यावरण छुपा बैठा है। गांधीवाद ने विकास और विनाश की बहस छेड़ी थी। वे सिर्फ इंसानों की ही नहीं जैव समुदाय की बात कर रहे थे। हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें किस ओर ले जा रही है और शिक्षा का मकसद क्या होना चाहिए इस पर वे चेतावनी दे चुके थे। साधन और साध्य की शुचिता की बात करते हैं तो आप गांधी की बात करते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि पर्यावरण का बीज गांधीवाद की पौधशाला में रोपा जा चुका था।
हालांकि तत्कालीन संदर्भ में हम पर्यावरण और गांधी को तकनीकी शब्दावली के साथ नहीं जोड़ सकते। लेकिन आज पर्यावरण का फलक जिस पैमाने पर उभरा है उसमें अहिंसा की नीति पर चलकर ही बात बनेगी। कम उपभोग की नीति पर चलकर, लालच को कम करके ही तो पर्यावरण को बचाया जा सकता है। गांधीवाद हमें यह सब सिखाता है, कुदरत के प्रति करुणा का भाव सिखाता है।
गांधीवाद हमें सिर्फ मानव हत्या नहीं पूरे जीव हत्या के खिलाफ खड़ा करता है। जब सुंदरलाल बहुगुणा पेड़ों के काटने के खिलाफ होते हैं, पेड़ों पर चली कुल्हाड़ी चिपको कार्यकर्ता अपने सीने पर झेलने को तैयार हो जाते हैं तो यह क्या है? नर्मदा को बांधने का असर एक बहुत बड़ी जनसंख्या पर पड़ेगा। लेकिन कुछ लोग जो अपना सर्वस्व एक नदी को बचाने में झोंक देते हैं उनके पीछे यही गांधीवाद की ही शक्ति निहित है, अनशन की शक्ति है। उपवास की शक्ति को नागरिक आंदोलन से जोड़ने का श्रेय तो गांधी को ही जाता है। जल, जंगल, जमीन बचाने के लिए अहिंसक तरीके से खड़े होना, खुद भूखे रहकर दूसरों के कष्ट का अहसास करना, इस कष्ट के प्रति दूसरों में करुणा का भाव लाने की प्रेरणा यही तो गांधी का भाव है।
अगर हम भूदान आंदोलन को देखें या खादी को आम लोगों से जोड़कर को देखें तो इन गांधीवादी मुहिमों को आप पर्यावरण के करीब ही देंखेंगे। जिनके पास जरूरत से ज्यादा जमीन है और जो भूमिहीन हैं उनके बीच संतुलन बनाना। खादी के वस्त्र कुदरत के करीब हैं। अगर आप खादी वस्त्रों के हिमायती हैं तो आप पर्यावरण के हिमायती हैं।
गांधी के अनुयायियों ने लोगों को पर्यावरण से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। इस संदर्भ में गांधी के अनुयायियों ने अकादमी स्तर से लेकर आंदोलन तक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसकी शुरूआत जेसी कुमारअप्पा से होती है। भारत जैसा देश जहां बहुत से इलाकों में पानी की भारी किल्लत है, अनुपम मिश्र जैसे गांधीवादी लोगों को उसके सीमित उपभोग और उसके संरक्षण के लिए शिक्षित करते हैं। गांधीवाद की पौधशाला में पर्यावरण संरक्षण के बीज भी रोपे हुए मिलेंगे।
पर्यावरण मुद्दों को उठाने में भारत जैसे विशाल देश में भाषा महत्पूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में स्वतंत्रता के बाद से अब तक जितने भी पर्यावरण आंदोलन हुए, वे दक्षिण से लेकर उत्तर तक फैले हुए हैं, लेकिन इन आंदोलनों में हम देखते हैं कि कहीं भी भाषा आड़े नहीं आई। इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि गांधी के शिष्य जिस इलाके में भी गए उसी इलाके के लोगों की जुबान बोलने में देरी नहीं की। इसके लिए मैं आपको गांधी का एक उदाहरण देना जरूरी समझता हूं। बात 14 अगस्त 1947 की है। रात लगभग साढ़े दस बजे नोआखली में जब गांधी दंगों को रोकने के प्रयास में जुटे हुए थे तभी एक बीबीसी संवाददाता ने आकर कहा “आपका देश कुछ घंटों बाद आजाद हो जाएगा। कृपया अपना संदेश दें।” इसके बाद गांधी ने बोलना शुरू किया। उनका संदेश खत्म होने के बाद संवाददाता ने उनसे अपनी बात अंग्रेजी में भी दुहराने की गुजारिश की। तब गांधी का जवाब था, अब दुनिया को बता दो कि गांधी अंग्रेजी भूल चुका है। वास्तव में गांधी बहुत व्यावहारिक थे। वह जानते थे कि भाषा संस्कृतियों की वाहक है। अगर हम किसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो उस भाषा से जुड़ी संस्कृति को भी ढोते हैं। यानी अंग्रेजी के साथ आपको औपनिवेशिक संस्कृति को भी ढोना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने मातृभाषा की वकालत की। गांधी हिन्दुस्तानी जुबान के हिमायती थे। मैं दक्षिण भारतीय हूं लेकिन मुझे पूरे हिंदुस्तान में भाषा की समस्या आड़े नहीं आती।
आजादी के पहले ही गांधी ने इंसानी जीवन और पर्यावरण के लिए स्वच्छता की अहमियत समझी थी और आज भी गांधी स्वच्छता के पर्याय बने हुए हैं। इन दिनों हमारे देश में भी स्वच्छता अभियान जोरों पर है। लेकिन गांधी के अभियान और इसमें भाव का फर्क है। सिर्फ सरकारी मशीनरियों के झोंके जाने के कारण इसमें सामुदायिक भाव नहीं आ पाया है। गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती पर उन्हें स्वच्छ भारत का जो तोहफा देने की सरकारी तैयारी है उससे जनभागीदारी नहीं जुड़ पाई है। और इसकी खास वजहें भी हैं। यह बहुत अहम है कि हमारे घरों में शौचालय हो, लेकिन उससे भी अहम है कि सबके सिर पर एक छत हो। इसके साथ ही जिस तरह के शौचालयों का निर्माण किया जा रहा है पानी की किल्लत वाले इलाकों में वे बेमानी हैं। जब पीने और खाना पकाने के लिए ही पर्याप्त पानी नहीं हो तो शौचालयों के इस्तेमाल के लिए पानी कहां से लाएंगे। हमें ऐसी तकनीक को अपनाना होगा जो हमारे पर्यावरणीय हालात से कदमताल कर सके। अभी जलरहित शौचालय की तकनीक सामने आ गई है। ऐसी तकनीकों को दूर-दराज के गांवों तक पहुंचाना चाहिए।
किसी लोकहितकारी मुहिम में समाज के सभी वर्गों को जोड़ने की कला गांधी से सीखी जा सकती है। आज पर्यावरण की जंग में अहम है कि उसके साथ लोक का भाव जोड़ा जाए। और लोक और पर्यावरण को एक साथ जोड़ने का औजार गांधीवाद ही हो सकता है।
(अनिल अश्विनी शर्मा से बातचीत पर आधारित। लेखक राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय के निदेशक हैं।)
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