नदी के संगम का कुंड गायब हो चुका है। चाहे जितनी बरसात हो और बाढ़ आए, एक भी डॉल्फिन नहीं आती। मंदिरों पर बने घाटों पर मछलियों की कलाबाजी गायब हो चुकी है।
संजय राय
हमारी धरती का पर्यावरण समय के साथ कैसे बदलता है, इसे आसानी से समझने के लिए मैं अपने बचपन के गांव की ओर लौटता हूं तो बहुत कुछ तेजी से आए बदलाव समझ पाता हूं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर पश्चिम के एक कस्बे फूलपुर से 6 किलोमीटर उत्तर में स्थित प्रसिद्ध तपोस्थली दुर्वासा के पास सटे दुबैठा गांव में मेरा बचपन गुजरा। दुर्वासा तमसा और मंजूषा (मझुई) नदियों की संगम स्थली है। इन नदियों के किनारे लगभग हजार मीटर की दूरी पर दोनों तरफ कई गांव बसे हैं। दुर्वासा नदी से बिलकुल सटा हुआ मेरा गांव है और यहां अलग-अलग देवी-देवताओं के, समाज के सभी वर्गों के कई मंदिर हैं। बरसात के मौसम में पूरा इलाका इन नदियों की बाढ़ से टापू जैसा बन जाता है। यहां के संगम पर मई-जून की भयंकर गर्मी में इतना पानी रहता था कि हजारों विशाल मछलियां उछलकूद मचाती रहती थीं।
समाज ने अलिखित नियम बना रखा था कि मंदिर के आसपास एक-दो किलोमीटर क्षेत्र में कोई भी मछली नहीं मारेगा। इसकी वजह मंदिरों से सटा नदी का पूरा इलाका मछलियों का अभ्यारण्य बन गया था। नदी के बीच में बड़ी मछलियां कलाबाजियां दिखातीं, तो सीढ़ियों के किनारे पारदर्शी जल में छोटी-छोटी मछलियां तैरती देखी जा सकती थीं। इनकी संख्या इतनी अधिक रहती थी कि एक अंजुली पानी हाथ में लेने पर चार-पांच मछलियां आ जाती थीं। हम सभी दोस्त अपने पांव पानी में डालकर बैठ जाते और मछलियां हमारे पैरों की मृत कोशिकाओं को खाकर तलवों को चिकना बना देती थीं।
शहर में आने के कई साल बाद मुझे पता लगा कि इन्हीं मछलियों से आज के ब्यूटी पार्लरों में पैरों की सफाई की जाती है, जिसे अंग्रेजी में पेडीक्योर कहा जाता है। इस नदी के किनारे दोनों तरफ घने जंगल थे। इस जंगल में बबूल, आम, शीशम, पलाश के काफी पेड़ थे। इसमें तरह-तरह के जीव-जंतु जैसे मोर, तीतर, बटेर, खरगोश, साही, सांप, नेवला, सियार, लोमड़ी, लकड़बग्घा आदि रहा करते थे। हम इसी जंगल में अपने पालतू पशुओं को चराने जाते थे और सूरज डूबने से पहले वापस लौट आया करते थे।
आज नदी के संगम का कुंड गायब हो चुका है। चाहे जितनी बरसात हो और बाढ़ आए, एक भी डॉल्फिन नहीं आती है। मंदिरों पर बने घाटों पर मछलियों की कलाबाजी गायब हो चुकी है। जंगल के पेड़ कट गए हैं। इक्का-दुक्का जानवर बचे हैं। नदी के किनारे तक के पेड़ों को भी लोगों ने नहीं बख्शा और खेत बना लिए। जानवरों के चरने का चारागाह गायब हुआ तो इसके साथ ही पालतू पशु भी गायब हो गए। नदी पर लकड़ी का पुल गायब है। अब वहां सीमेंट के पुल बन गए हैं।
गर्मी के मौसम में अब यह कुंड पूरी तरह सूख जाता है और पैर गीला किए बगैर कुत्ते भी आसानी से इस पार से उस पार दौड़ लगाते देखे जा सकते हैं। नदी के पानी में कई कारखानों के रसायन बहाए जाते हैं। पानी कहां चला जाता है, पता नहीं। दोनों नदियां अपनी दुर्दशा के आंसू बहा रही हैं। गौर करने वाली बात यह है कि तमसा नदी आगे चलकर बलिया में गंगा से मिल जाती है। तमसा नहीं साफ होगी तो गंगा कैसे साफ हो जाएगी, मुझे यह बात समझ में नहीं आती। मैंने एक सपना देखा था।
दुर्वासा के संगम पर नदी के उस पार महलिया बाबा की कुटिया के पीछे एक पत्ती विहीन विशाल वृक्ष पर खिला एक बड़ा सा चटख लाल रंग का फूल। मैं बैठा था, उसी पीपल के पेड़ की छाया में नदी किनारे के घाट की सीढ़ी के एक कोने में। पूरब से सूरज उग रहा था, हल्की-हल्की हवा बह रही थी, मैं बहुत खुश था। सच! बहुत-बहुत खुश था। संतोष की बात यह है कि वह पीपल अभी भी वहीं खड़ा है। मानो वह पीपल का वृक्ष मुझसे यह कह रहा है कि बेटा उदास मत होना, सपने सच होते हैं। फिर पैदा होगा कोई नया दुर्वासा, जो यहां की जमीन पर तेरे सपनों का स्वर्ग उतारेगा।
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