Agriculture

जहर का आयात!

अमेिरका से अनुवांशिक संशोधन युक्त पशु आहार बीज के आयात का प्रस्ताव भारत के पशुधन उद्योग के लिए एक बड़े खतरे की आहट है

 
By Meenakshi Sushma, Anil Ashwani Sharma
Published: Tuesday 09 April 2019
पिछले कुछ समय से मुर्गियों का दाना महंगा होने के कारण चिकन की कीमत में लगातार तेजी देखी जा रही है (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)

मुर्गी पालन केंद्र चारे की समस्या से जूझ रहे हैं। इसका मुख्य कारण है सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ा दिया है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश में मक्के की फसल इस साल खराब होने के कारण भी चारे की कीमत में बेतहाशा वृद्धि हुई है। ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ है कि कीमत इतनी बढ़ी। यह बात गुड़गांव स्थित पोल्ट्री फार्म फेडरेशन ऑफ इंडिया के पूर्व सचिव शब्बीर अहमद खान ने कही। वह कहते हैं, इस समय मक्का का रेट 22,500 रुपए प्रति टन पहुंच चुका है। ध्यान रहे कि पिछले वर्ष अक्टूबर, 2018 में मक्के का रेट अचानक 11,000 से बढ़कर 20,000 रुपए प्रतिटन हो गया था।

खान कहते हैं कि जनवरी, 2019 में मक्के का रेट 15,000 रुपए प्रति टन के आसपास था। हालांकि उन्होंने कहा कि आंध्र प्रदेश राज्य सरकार ने मक्के की फसल खराब होने के कारण बाहर से आयात किया गया है। किसानों को 18,500 रुपए प्रति टन के हिसाब से दिया गया। इसी का परिणाम हुआ है कि 18 से 21 फरवरी, 2019 के बीच मक्के का रेट टूटा है और अब मक्का 21,500 रुपए प्रति टन के हिसाब से बिक रहा है। वहीं इलाहाबाद में चिकन की दुकान चलाने वाले शाहिद अहमद ने बताया कि यहां पिछले दो माह से चिकन का रेट घटा है। वह कहते हैं, “यह तब है जब इस समय यहां कुंभ का मेला चलने के कारण इसकी बिक्री पर अच्छा खासा असर पड़ा है।” हालांकि जब चारा महंगा हो गया है तो चिकन का रेट कम क्यों? इस पर अहमद कहते हैं कि यह सब बिचौलियों का खेल है। वे अपने हिसाब से रेट तय करते हैं।

यही नहीं गाजियाबाद के वैशाली में चिकन की दुकान करने वाले वसीम बताते हैं कि देश का सबसे अधिक शोषण का शिकार किसान है। वह चाहे दूध, अनाज, मांस, सुअर या भेड़-बकरी पालन का ही काम करता हो। वह कहते हैं कि जिस रेट से किसानों से दूध डेरी वाले उठाते हैं क्या उससे उसकाे लाभ होता है? सरकार अपनी योजनाओं में नारा लगाती रहती है कि डेरी चलाओ। लेकिन आज यदि मैं डेरी शुरू करूं तो तीन माह में ही मेरा दिवाला निकल जाएगा। क्यों कि मैं अपने मवेशियों को महंगा चारा नहीं खिला पाऊंगा। फरीदाबाद मछली मार्केट एसोसिएशन के प्रधान यामीन कहते हैं कि इस क्षेत्र में हम संगठित नहीं हैं इसका पूरा लाभ बिचौलिए उठाते हैं। हम मार्केटिंग में पूरी तरह से जीरो हैं। वहीं दूसरी ओर गाजीपुर मुर्गा मंडी एसोसिएशन के सदस्य सद्दाम ने बताया कि इस वक्त चिकन की मांग बूचड़खाने बंद होने की वजह से भी मांग बढ़ी है। ध्यान रहे कि चारे की कमी को पूरा करने के लिए भारतीय चारा उद्योग ने डिस्टिलर्ज ड्राइड ग्रेन्स विथ सॉल्युबल्स (डीडीजीएस) के आयात की मांग की है। मकई से इथेनॉल के उत्पादन के दौरान यह एक बाइप्रोडक्ट के तौर पर निकलता है और इसे अमेिरका से मंगाया जाना है। यह प्रोटीन, वसा, खनिज व विटामिनों का सस्ता स्रोत है और इसका इस्तेमाल पशु आहार के एक घटक के रूप में किया जा सकता है।

हालांकि अमेिरका में डीडीजीएस अनुवंशिक रूप से संशोधित (जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम) मक्का से तैयार की जाती है। भारत में जीएम डीडीजीएस के आयात को नियंत्रित करनेवाला कोई विनियमन अब तक लागू नहीं है। इसी का लाभ उठाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां केंद्र सरकार पर चारे के आयात के लिए हरी झंडी देने का दबाव बना रही हैं। इस संबंध में नागपुर में भाभा परमाणु अनुसंधान केद्र के पूर्व वैज्ञानिक एस. पवार कहते हैं, “आन्ध्र प्रदेश सरकार ने फसल खराब होने के कारण बाहर से मक्का आयात कर किसानों को दिया। बाहर से चारा मंगाना पूरी तरह से गलत है। क्योंकि सरकार ने यह अवधारणा बनाई है कि यहां चारा नहीं मिलता है तो बाहर से आयात करो। हम यह मानते हैं कि हमारे देश में चारा नहीं है लेकिन उसके लिए तो सरकार को ही देशभर में चारागाह पर अवैध कब्जा को हटाना होगा।”

वहीं वर्धा के किसान एस. निमसरकार कहते हैं कि वास्तव में यहां चिकन का रेट बुरी तरह से घटा हुआ है। इसका कारण है कि बिचौलियों की दखलंदाजी। वहीं चौधरी चरण सिंह विश्व विद्यालय के रिसर्च फेलो अनिल चौधरी ने बताया कि हमारे देश में जीएम कॉटन के पत्ते खाकर दुधारु पशुओं की दूध देने की क्षमता पहले ही कम हो गई है। ऐसे में जीएम चारा अमेरिका से आयात कर वास्तव सरकार पूरे देश के लोगों के स्वास्थ्य के साथ ही खिलवाड़ करने पर उतारू है।

विदर्भ के शेतकारी संगठन के वरिष्ठ नेता विजय जांबिया सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इतनी हरित क्रांति होने के बाद हम चारा उत्पन्न नहीं कर सकते। अगर हम चारा ही पैदा नहीं कर सकते तो हमें खेती बंद कर देनी चाहिए, साथ ही कृषि मंत्रालय बंद कर देना चाहिए। वह कहते हैं कि देश में जहां बांधों से सिंचाई होती थी तो वहां ज्वार या मक्के की उपज कम क्यों हो रही है? यही नहीं स्वामीनाथन फाउंडेशन के एक अध्ययन के अनुसार विदर्भ में 40 फीसदी खेतीहर भूमि में ज्वार बोई जाती थी अब यह घटकर कर एक प्रतिशत रह गई है। यही कारण है कि विदर्भ के गांवों में मवेशियों की संख्या लगातार कम हो रही।

वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अंदर आनेवाली जेनेटिक इंजीिनयरिंग अप्रूवल कमिटी (जीईएसी) इस मामले में कोई फैसला लेने में नाकामयाब रही और उसने इस विषय में निर्णय लेने के लिए सितंबर 2018 में एक विशेष उपसमिति का गठन किया लेकिन अब तक उसकी एक भी बैठक नहीं हो सकी है । 20 नवंबर 2018 को आयोजित जीईएसी की आखिरी बैठक के दौरान इस बात पर सहमति बनी थी कि समिति डीडीजीएस के आयात से संबंधित आवेदन पर विचार करेगी। जीईएसी की सलाहकार और उपाध्यक्ष सुजाता अरोड़ा, जो स्वयं भी इस उपसमिति की सदस्य हैं, ने डाउन टू अर्थ को बताया कि चारे के आयात से संबंधित आवेदनों को होल्ड पर रखा गया है। वह बताती हैं, “जल्द ही उपसमिति की बैठक होगी जिसमें आयात संबंधित दिशानिर्देशों का निर्धारण किया जाएगा।” डीडीजीएस के अलावा जीएम सोयाबीन युक्त घोड़े के चारे के निर्यात के आवेदनों पर भी रोक लगी है। दिल्ली स्थित पीआर सीड्स एन्ड ग्रेंज प्राइवेट लिमिटेड (घोड़ों के चारे की सप्लायर) के मैनेजर अनिल शिरसत बताते हैं कि उनको आयात के लिए आवेदन दिए साल भर से ऊपर हो चला है। उनकी मानें तो आयातित चारे की पोषक क्षमता अधिक होती है। शिरसत कहते हैं, “क्योंकि घोड़ों का मांस खाया नहीं जाता अतः उन्हें जीएम सोयाबीन से प्राप्त किया गया आयातित चारा खिलाए जाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।”

इंडियन ग्रासलैंड ऐंड फॉडर रिसर्च के अनुसार भारत में चारे की कमी का आंकड़ा 50.2 प्रतिशत है  (फोटो: रॉयटर्स )

अधिक चारे की जरूरत

झांसी स्थित इंडियन ग्रासलैंड ऐंड फॉडर रिसर्च द्वारा जून 2013 में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में चारे की कमी का आंकड़ा 50.2 प्रतिशत है। महाराष्ट्र स्थित कम्पाउंड लाइवस्टॉक फीड मैनुफैक्चर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के कार्यकारी निदेशक राघवन संपत बताते हैं कि प्रतिवर्ष तीन करोड़ टन के आसपास चारे का उत्पादन होता है। इसमें से दो करोड़ टन मुर्गीपालन, 90 लाख टन डेरी और 10 लाख टन मछलीपालन में इस्तेमाल होता है। वही पर्याप्त व पौष्टिक चारे के अभाव में किसानों को मवेशियों को पालना मुश्किल हो रहा है।

एनीमल फूड की आपूर्ति करने वाली गुजरात स्थित आणद की मिकी मेज मिलिंग प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक केतुल पटेल कहते हैं, “गुजरात के दुग्ध उत्पादक किसान मवेशियों के चारे पर 500-600 रुपए प्रति किलो तक खर्च कर रहे हैं।” वह कहते हैं कि इस कमी की वजह से किसान जानवरों को केवल 2 किलो चारा खिला पाते हैं जबकि अनुशंसित मात्रा चार किलो की है। कभी-कभी, किसान चारे में सब्जी के छिलके और पानी भी मिला देते हैं। इससे दूध की गुणवत्ता प्रभावित होती है। पटेल बताते हैं, “हम डीडीजीएस का आयात करने के लिए जीईएसी से अनुरोध कर रहे हैं क्योंकि यह चारे का अच्छा विकल्प है और इसके प्रयोग से कीमत 200-250 रुपए प्रति किलो तक आ सकती है। लेकिन हमारा आवेदन दो साल से भी अधिक समय से रोककर रखा गया है। पहले किसान इसे बीयर प्रसंस्करण से उत्पाद के रूप में प्राप्त करते थे, जिसका उपयोग वे चारे के रूप में करते थे। इसे गीले रूप में पशु आहार में मिलाया जाता था, जिसकी शेल्फ लाइफ कम होती थी, लेकिन अब प्रसंस्करण उद्योगों ने कचरे को इकट्ठा करना शुरू किया और सूखने के बाद इसे बाजार में बेचा जाता है। दिल्ली स्थित फीड निर्माता नर्चर ऑर्गेनिक्स प्राइवेट लिमिटेड के पार्टनरों में से एक अनुराग वाधवा के अनुसार, “इससे कीमत में वृद्धि हुई है।”

नकारात्मक प्रभाव

भारत में पशु आहार के लिए केवल एक बायोटेक उत्पाद स्वीकृत है- सीड कॉटन केक (कपास बीज केक)। लेकिन जीएम कॉटन सीड केक के उपयोग के अनुभव ने समस्याओं का बुलावा दिया है। सुप्रीम कोर्ट की बीटी कॉटन पर बनी तकनीकी विशेषज्ञ समिति द्वारा 2012 में जारी की गई अंतिम रिपोर्ट एक प्रयोग के निष्कर्षों को इंगित करती है जहां मवेशियों को बीटी कपास के बीज खिलाए गए थे। जानवरों को दो समूहों में विभाजित किया और उनकी दूध की पैदावार दर्ज की गई। गैर-बीटी कपास खानेवाली गायों में पहले चरण के दौरान और बाद में भी कोई बदलाव नहीं हुआ। दूसरी और बीटी कॉटन खानेवाली गायों के दूध की मात्रा में गिरावट दर्ज की गई और यह गैर-बीटी चारे को खाकर भी बरकरार रही, जिससे यह संकेत प्राप्त होते हैं कि इसका असर लम्बे समय तक रहता है। किसानों ने भी ऐसे बदलाव देखे हैं।

अहमदाबाद के पास सरखेज गांव के एक पशुपालक गोपाल सुतारिया का कहना है कि गायों का प्रजनन चक्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इसकी शुरुआत तब हुई जब मेरे गांव में किसानों ने मवेशियों को बीटी कपास के बीज खिलाने शुरू किए। वह कहते हैं, “उनमें से कुछ काफी काम उम्र में ही बांझ हो गईं।” यूएस ग्रेन्स काउंसिल के वैश्विक नेटवर्क के प्रतिनिधि अमित सचदेव बताते हैं, “डीडीजीएस जीएम मक्का से बनाया जाता है, लेकिन यह 2003 में पारित कारताजीना प्रोटोकॉल ऑन बायोसेफ्टी के अनुसार यह एक निर्जीव संशोधित जीव है।

कई देशों में डीडीजीएस जीएम के अंतर्गत नहीं आता है क्योंकि यह एक बायप्रोडक्ट है। मांस, दूध और अंडे की अधिक मांग के साथ चारे की आवश्यकता बढ़ रही है।” लेकिन मुंबई स्थित कृषि व खाद्य नीति विश्लेषक रोहित पािख कहते हैं, “सब्सिडी वाले जीएम फीड को आयात करने का भारत का फैसला किसानों के लिए उचित नहीं होगा। हमें तकनीकी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को नहीं भूलना चाहिए, जिसमें पाया गया था कि बीटी कपास खानेवाले पशुओं में दूध की पैदावार में कमी का संकेत दिया था।”

हालांकि कुमार ने ऐसी आशंकाओं पर विराम लगते हुए कहा, “क्योंकि भारत डीडीजीएस का उत्पादन नहीं करता है इसलिए हम इसके आयात की अनुमति मांग रहे हैं। स्थानीय स्तर पर चारे की आपूर्ति में कमी होने पर इसका विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि एजोला (एक प्रकार का जलीय फर्न), कैक्टस व मेसकाइट के पेड़ की फली जैसी चीजों को चारे के विकल्प के रूप में तैयार किया जा रहा है।

पुणे स्थित बीएएआईएफ डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन के कार्यकारी अधिकारी विट्ठल केशव कौथले ने कांटेदार कैक्टस (ओपंटिया फिकस इंडिका) पर किए गए शोध का हवाला दिया। यह शोध 2015 में नाबार्ड की सहायता से किया गया था। फील्ड ट्रायल्स से पता लगा है कि इस चारे को खानेवाली बकरियों के वजन में वृद्धि हुई। बीएएआईएफ ने देशभर में अपने परिसरों पर कैक्टस के बागान विकसित किए। हालांकि यह देखने वाली बात होगी क्या इस तरह के उपायों से भारत में जीएम फीड का प्रवेश बंद हो जाएगा।

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