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जीएसटी : कमजोर पर पड़ा बाजार को एक करने का बोझ

जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर और प्रधानमंत्री की भाषा में कहें तो गुड एंड सिंपल टैक्स। हालांकि मानसून सत्र के पहले दिन उन्होंने इसे एक और नाम दिया, ‘गोइंग स्ट्रांगर टुगेदर’।

 
By Anil Ashwani Sharma
Published: Thursday 27 July 2017

जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर और प्रधानमंत्री की भाषा में कहें तो गुड एंड सिंपल टैक्स। हालांकि मानसून सत्र के पहले दिन उन्होंने इसे एक और नाम दिया, ‘गोइंग स्ट्रांगर टुगेदर’। यह एक कर प्रणाली की जगह, दूसरी के लाए जाने का ही मामला है। हिंदुस्तान की आजादी के तर्ज पर इसे भारत की आर्थिक आजादी मान कर 30 जून को असाधारण तरीके से मध्यरात्रि में जीएसटी लागू कर पूरे देश को एक कर के दायरे में लाया गया। 

एक तरह से कहें तो सीधी सी बात यह है कि बिक्री कर (वैट) की जगह अब जीएसटी लगाया जाएगा। हालांकि भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बहुलतावादी देश को एक बाजार के दायरे में लाने पर सवाल उठे हैं क्योंकि भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं के कारण गुजरात की जरूरतें झारखंड और ओड़ीशा से बहुत अलग है और बंगाल व बिहार की अर्थव्यवथा तमिलनाडु से अलग। वैट की दरें तय करने के लिए राज्य सरकारें आजाद थीं लेकिन जीएसटी के केंद्रीय ढांचे के कारण इसकी दरों को जीएसटी परिषद की बैठक ही बदल सकती है। इसमें केंद्र के साथ हरेक राज्य सरकार का एक ही वोट होगा। हालांकि सरकार के संघात्मक ढांचे के समर्थक इस तरह के केंद्रीकरण के खिलाफ ही रहे हैं। अमेरिका जैसे समाज में अभी तक जीएसटी लगाने की चर्चा नहीं हुई है। यह राज्यों की शक्तियों को सिकोड़ता है। 

जीएसटी की जद में पर्यावरण

चूंकि इसका मकसद पूरे देश के बाजार को एक मंच पर लाना है तो इसका असर आम जिंदगी से लेकर पर्यावरणीय पहलुओं तक पड़ेगा। अर्थनीति का असर समाज के ऊपरी तबके के लोगों से लेकर निचले तबके तक पर पड़ता है और खासकर तब जब आप एक देश और एक बाजार का नारा देते हैं। देश में हर तरह के लोग होते हैं अमीर, गरीब, शारीरिक रूप से अक्षम, कारपोरेट के नुमाइंदे तो जंगल पर गुजारा करने वाले भी। लेकिन एक कर के दायरे में आते ही सबको एक ही डंडे से हांकने जैसा भी हो जाता है।

संवेदनहीन सरकार

सबसे पहले बात करते हैं समाज के उन लोगों की जो खास शारीरिक चुनौतियों के कारण आम लोगों से अलग हो जाते हैं और जिनकी जिंदगी की खास जरूरतें होती हैं। नेशलन प्लेटफार्म ऑफ द राइट ऑफ द डिसेबल संस्था के सचिव मुरलीधर कहते हैं कि जीएसटी के दायरे में ऐसे लोग भी आए हैं जिन्हें राजग सरकार ने दिव्यांग का दर्जा दिया है। शारीरिक चुनौतियां झेल रहे लोगों के जीवन को आसान बनाने वाले कई उपकरण महंगे हो गए। यहां सरकार की संवेदनहीनता स्पष्ट झलगती है। मेट्रो अस्पताल समूह के डॉक्टर दिनेश समुझ कहते हैं कि इन खास लोगों के इस्तेमाल में लाए जाने वाले सामानों पर जीएसटी की मार बहुत गलत है। वे किसी विलासिता और शौक के लिए तो इसका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। कायदे से सरकार को इन उत्पादों पर और छूट देनी चाहिए थी। दिनेश कहते हैं कि अगर बाजार में आप एक वाकर लेने जाएंगे तो पहले इसकी कीमत छह से सात सौ रुपए थी, लेकिन जीएसटी लगने के बाद इसकी कीमत एक हजार तक हो जाती है। कमजोर तबके के लोगों के लिए यह बड़ा अंतर भारी पड़ेगा। 

स्वास्थ्य पर असर 

स्वास्थ्य क्षेत्र पर निजीकरण का हमला अभी तक आम लोगों के सेहत पर बुरा असर डाल ही रहा था, जीएसटी ने स्वास्थ्य क्षेत्र को और भी महंगा कर दिया। प्रयोगशालाओं से जुड़े तमाम तरह के रसायनों व उत्पादों पर जीएसटी इस क्षेत्र को और बदहाल करेगा। हालांकि अभी सेवा दरें तय करने में असमंजस है और तीन हफ्ते बीत जाने के बाद भी किस दर से जीएसटी लगाया जा रहा है यह अस्पताल के बिलिंग काउंटर के कर्मचारी बता पाने में असमर्थ दिख रहे हैं। जांच प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल होने वाले बहुत से रसायनों पर जीएसटी है जिससे कि इनकी कीमत बढ़नी तय है। एक निजी जांच लैब चला रहे डॉक्टर अभिषेक का कहना है कि जांच लैब में इस्तेमाल होने वाली एक्सरे फिल्म, खून के जांच के लिए जरूरी केमिकल, सिरिंज और तमाम जरूरी किट्स पर कर में राहत नहीं है बल्कि इन पर 12 फीसद कर की बजाए 18 फीसद जीएसटी लग रहा है। कुछ मामलों में तो अभी पता लग रहा है, लेकिन ज्यादातर में नई खरीद होने से पहले अभी तक मालूम भी नहीं है कि किस वस्तु या किस रसायन पर कितना जीएसटी लगेगा। निजी नर्सिंग होम चला रहीं डॉक्टर मोना ने कहा कि दवाओं और जांच किट की कीमतें बढ़ गई हैं। बढ़े बिल से मरीज भी मायूस हैं। हमारे बिल काउंटर पर कर्मचारी का मरीजों से विवाद हो रहा है।

दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के निर्वाचित अध्यक्ष डॉक्टर अश्विनी गोयल का कहना है कि कुछ मामलों में मरीजों पर असर पड़ रहा है। अस्पतालों में बिलिंग व्यवस्था पुरानी है, इसलिए भी दिक्कत आ रही है। दिल्ली चिकित्सा परिषद के पूर्व पदाधिकारी डॉक्टर अनिल बंसल ने कहा है कि स्वास्थ्य सेवा को बाहर रखने से प्रत्यक्ष रूप से तो कोई असर नहीं पड़ेगा, राहत वाली बात लगती है लेकिन इससे जुड़े तमाम तरह के उपयोगी वस्तुओं पर जीएसटी लगने से परोक्ष असर पड़ना तय है। मलेरिया वगैरह के किट व उसके रसायन पर पहले 12 फीसद की बजाय अब और अधिक कर लगेगा। निजी अस्पताल चलाने वाले एक चिकित्सक कहते हैं कि अस्पतालों की जेब से कुछ नहीं जाना है, सीधे मरीजों पर असर पड़ेगा, इसलिए निजी डॉक्टर इसका विरोध नहीं कर रहे। 

सरकारी महिलाओं के प्रति गैर जिम्मेदार

केंद्र सरकार के जीएसटी का ब्योरा सामने आते ही सोशल मीडिया पर ‘लहू का लगान’ ट्रेंड करने लगा। और इसकी वजह थी, सेनेटरी नैपकिन पर 12 फीसद जीएसटी। लोगों ने आवाज   उठाई कि आज भी सरकार महिलाओं की सबसे बड़ी जरूरत सिंदूर को ही मानती है इसलिए उसे जीएसटी में कर के दायरे से बाहर रखा है। लेकिन सेनेटरी नैपकिन जैसी महिलाओं की बुनियादी चीज पर 12 फीसद कर लगाकर उसे और भी महंगा कर दिया है। सरकार के इस फैसले के खिलाफ महाराष्ट के वर्धा स्थित युवा-द रिफॉरमिस्ट बूथ नामक संगठन के नेतृत्व में युवाओं ने सीधे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को उपहार स्वरूप सेनेटरी नैपकिन भेजा ताकि उनका ध्यान महिलाओं की इस सबसे बड़ी जरूरत पर पड़े। इस समूह से जुड़ी युवती वनश्री ने कहा कि सेनेटरी नैपकिन को विलासिता की श्रेणी में रखना सरकार की सोच पर सवाल उठाता है। यह तो अपराध है। शहरी निम्नमध्यवर्गीय परिवार की लड़कियां और महिलाएं सेनेटरी नैपकिन का खर्च उठाने में सक्षम नहीं हो पा रही हैं तो फिर ग्रामीण इलाकों तक आप इसे कैसे पहुंचाएंगे। ग्रामीण इलाकों में तो यह अभी तक विलासिता की चीज समझी जा रही है। मध्यप्रदेश से भारतीय जनता पार्टी की विधायक पारुल साहू ने वित्त मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखकर सेनेटरी नैपकिन से जीएसटी हटाने की मांग की है। साहू अपने पत्र में कहती हैं, ‘हमारे देश की ग्रामीण इलाके की महिलाएं सेनेटरी पैड का पहले से ही इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं। इस इस पर 12 फीसद का टैक्स स्थिति को खराब करेगा’। वहीं कांग्रेस की सांसद सुष्मिता देव ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाई है। यहां तक कि राजग सरकार में महिला एवं बाल विकास कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने भी वित्त मंत्री से आग्रह किया था कि वे सेनेटरी नैपकिन पर जीएसटी न लगाएं। सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता मेनन कहती हैं कि सरकार एक तरफ तो स्वच्छता के नारे लगाती है, वहीं दूसरी तरफ मासिक स्राव जैसे अनिवार्य कुदरती चीज को स्वच्छता नहीं विलासिता के दायरे में रखती है। राजग सरकार ने हाल ही में अपनी झंडाबरदार योजना के जरिए कमजोर तबके की महिलाओं तक रसोई गैस पहुंचाई और इसका फायदा सरकार और समाज दोनों को मिल रहा है। जहां सरकार को हर कमजोर तबके की महिलाओं तक निशुल्क सेनेटरी नैपकिन पहुंचाना था, वहीं सरकार ने उस पर जीएसटी लगा और भी महंगा कर दिया। 

प्रदूषण रोकने का सरकारी नजरिया गलत

पिछली दिवाली के बाद दिल्ली का प्रदूषण विश्व स्तर पर चर्चा का सबब था। दिल्ली की आबोहवा इतनी दूषित थी कि कुछ मैच भी रोकने पड़े थे। इन सबके बावजूद पर्यावरण के लिए आर्थिक औजार का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इस संबंध में पर्यावरण एवं विज्ञान केंद्र की एसोसिएट डायरेक्टर अनुमिता राय चौधरी कहती हैं कि लोग किस तरह का उपकरण खरीदें, बाजार इसका संकेत देता है। लेकिन भारत में अभी भी पर्यावरण को बाजार से जोड़ने की कोशिश नहीं की जा रही है। कोयला जैसे क्षेत्रों में यह है। कोयला पर सेस लगाया जाता है ताकि इससे जो प्रदूषण हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति की जा सके। दिल्ली में बाहर से आनेवाले ट्रकों पर पर्यावरण कर लगाया जाता है। इनसे हुए राजस्व का इस्तेमाल प्रदूषण से निपटने में किया जाता है। और इससे लोगों के व्यवहार में भी बदलाव आता है। लोगों को भी समझ में आता है कि यह चीज प्रदूषणकारी है और इसका कम इस्तेमाल करना चाहिए। वे कहती हैं कि जीएसटी में इस अहम पहलू की अनदेखी की गई है। सरकार यह बताती है कि यह विलासिता की चीज है, आप अमीर हैं इसलिए आपसे यह कर वसूल रहे हैं। लेकिन सरकार को यह प्रचार करना चाहिए कि यह प्रदूषकारी है, धरती को बर्बाद करने वाला है इसलिए ज्यादा कर वसूल रहे हैं। अभी बड़ी गाड़ियों पर उतना ही कर लग रहा है जिससे सस्ती हो गई हैं।

सौर ऊर्जा से पर्यावरण का संरक्षण

इसी तरह से हर घर को बिजली देने का वादा तो सभी सरकारें करते हैं। लेकिन बिजली पैदा करने के सबसे सुरक्षित तरीके सौर ऊर्जा को उपेक्षित करती है। इस संबंध में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट में अक्षय ऊर्जा पर शोध कर रही अरुणा कुमारनकंडथ कहती हैं  कि पर्यावरण के लिहाज से सबसे किफायती स्तर पर और सबसे कम प्रदूषणकारी तरीके से बिजली पैदा करने वाले सौर उत्पादों पर जीएसटी लगाया गया है। अक्षय ऊर्जा विशेषज्ञ और आइआइटी बंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर डॉक्टर राहुल पांडेय कहते हैं, ‘सौर ऊर्जा क्षेत्र को जीएसटी दायरे से बाहर रखना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा स्रोत है जिसके इस्तेमाल से पर्यावरण संरक्षण होता है और जिस तरह से सौर ऊर्जा के लिए उपयोग में लाई जाने वाली बैटरी पर जीएसटी लगाया है, वह इसे बहुत महंगा बना देगा। यह एक अदूरदर्शी कदम है। इससे पहले सौर ऊर्जा क्षेत्र करमुक्त दायरे में था। सोलर पैनल पर भी पांच फीसद जीएसटी लगाया गया है। पवन ऊर्जा क्षेत्र भी इस कर के दायरे में आ गय है। सेवा क्षेत्र पर 18 फीसद का कर तय है और सभी तरह के आभियंत्रिकी से जुड़े सामान इसके दायरे में होंगे। ’ 

छोटे व्यापारियों की समस्या बढी

एक बाजार और एक कर के नारे का असर देश के हाशिए पर पड़े लोगों पर क्या हो सकता है इसका एक उदाहरण तेंदुपत्ता पर जीएसटी के कर ढांचे से समझा जा सकता है। तेंदुपत्ता पर 18 फीसद जीएसटी लगाया गया है। तेंदुपत्ता पर नौ फीसद केंद्रीय जीएसटी और नौ फीसद राज्य जीसएसटी लगाया गया है। इसके पहले तेंदुपत्ता पर केंद्रीय कर शून्य फीसद था। इसके पहले जीएसटी पर सिर्फ बिक्री कर (वैट) लगता था, जिसमें राज्य सरकारे अपने हिसाब से घटत-बढ़त करती थीं। ओडीशा सरकार तेंदुपत्ता पर पांच फीसद वैट और दो फीसदी जंगल कर लगाती थी। तो ओड़ीशा में यह कुल जमा सात फीसद होता था। राजस्थान में भी यह कुल 5.5 फीसद होता था। यानी की राजस्थान जैसी जगह में तेंदुपत्ता पर कर में 200   फीसद तक का इजाफा हो गया है। वन्य उत्पादों को संग्रहित करने वाले राजस्थान के समर्थक समति के कामेंद्र सिंह राठौड़ कहते हैं कि कर बढ़ने के कारण तेंदुपत्ता कारोबारी इसे इकट्ठा करने वाले आदिवासी समुदाय के लोगों को कम भुगतान करेंगे। इसके साथ ही इससे ग्राम सभा से मिलने वाला फंड भी प्रभावित होगा क्योंकि वे सहकारी सहयोग से बिक्री के आधार पर ही फंड जारी करती हैं। इसके साथ ही नई कर नीति पर असमंजस तो बरकरार है ही। 

प्रधानमंत्री ने भले ही इसे अच्छा और साधारण कहा हो लेकिन, वास्तव में उतना सरल है नहीं। विशेषकर सबसे नीचे पायदान पर रहने वाले शख्स की जेब पर तो और भारी पड़ेगा। अब छोटे व्यापारियों की परेशानी बढ़ जाएगी और आम लोगों को हर सामान व सेवा पर कर देना पड़ेगा जो कमजोर तबके के लोगों को और कमजोर करेगा। उत्तराखंड, बिहार, ओड़ीशा, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों का बड़ा तबका कस्बों और गांवों में रहता है और आर्थिक पायदान पर पिछड़ा हुआ है। लेकिन मजबूत से लेकर कमजोर तक सबको एक समान कर देना होगा। हालांकि यहां के लोगों का वास्ता उन व्यापारियों से पड़ता है, जिन्हें  20 लाख से कम सालाना कारोबार करने के कारण जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है। लेकिन मजेदार बात यह है कि तब भी लोग जीएसटी से नहीं बच सकते, क्योंसकि जीएसटी कानून में प्रावधान है कि अगर 20 लाख से कम कारोबार करने वाला छोटा कारोबारी यदि किसी जीएसटी पंजीकृत वितरक से माल लेता है तो छोटे कारोबारी को जीएसटी का भुगतान करना होगा। मान लिया कि आप छोटे कारोबारी हैं और जीएसटी में पंजीकृत नहीं हैं, लेकिन आप किसी पंजीकृत वितरक से 100 रुपए का माल लेते हैं और उस उत्पाद पर 5 फीसद जीएसटी लगता है तो आपको 105 रुपए देने होंगे। ऐसे में, जब आप अपने ग्राहक को माल देंगे तो आपको 105 रुपए में अपना लाभ जोड़ कर बेचना होगा। जबकि आप कोई बिल नहीं दे पाएंगे, जिस पर टैक्स  का ब्योरा लिखा होगा। ऐेसे में, आप ग्राहकों का भरोसा खो सकते हैं। 

जीएसटी केवल मॉल क्लचर के लिए लाभ दायक

अगर छोटे कारोबारी जीएसटी में पंजीकरण करा भी लेते हैं, तो भी उन्हें परेशानी झेलनी पड़ेगी। उत्तराखंड जैसे राज्यों में जहां इंटरनेट सुविधा अच्छी  नहीं है, वहां यह उम्मीद करना कि कारोबारी जीएसटी का ब्योरा आॅनलाइन देंगे या कंप्यूटरजनित बिल जारी करेंगे अव्यावहारिक है। इतना ही नहीं, इन कारोबारियों को एक स्थायी अकाउंटेंट रखना होगा, जो उनके खर्च को बढ़ाएगा। जीएसटी से मॉल में चलने वाला कारोबार तो फलेगा-फूलेगा, लेकिन छोटे शहरों और कस्बों के कारोबारियों पर बोझ बढ़ेगा।

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