यूपीए सरकार में हुई गलतियों को एनडीए सरकार ने न केवल दोहराया, बल्कि उन्हें और बड़ा कर दिया, जिस कारण ये समस्याएं विकराल रूप धर चुकी हैं।
नई सरकार चुनने के लिए हम आम चुनाव के दौर में हैं। जनादेश चाहे जिस राजनीतिक दल के पक्ष में हो लेकिन नई सरकार बनाने के बाद उसे प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन को प्राथमिकता देनी होगी। यह आदर्श विकल्प नहीं है लेकिन लोगों की चुनावी प्राथमिकताओं के बावजूद समय की मांग है। आखिर इसकी जरूरत क्यों है?
यह समझने के लिए हमें 2014 के आम चुनावों को याद करना होगा। इस चुनाव में आजादी के बाद जन्म लेने वाले पहले प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को चुना गया। मैं पहले भी कह चुका हूं कि उस वक्त तात्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार की हार प्राकृतिक संसाधनों के कुप्रबंधन के कारण हुई थी। उस दौर में हुआ व्यापक भ्रष्टाचार और टूजी घोटाला, कोल ब्लॉक आवंटन और गैस की कीमतों जैसे बहुचर्चित घोटालों ने सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया था। ये सभी घोटाले प्राकृतिक संसाधनों के गलत और अपारदर्शी प्रबंधन का नतीजा थे। इन घोटालों की असल वजह दुर्लभ संसाधनों को साम दाम दंड भेद से हासिल करने की होड़ थी। यूपीए सरकार की हार के अन्य कारणों में बेतहाशा महंगाई और कृषि से घटती आय को भी जोड़ा जा सकता है। इस वजह से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई। ये चुनावी मुद्दे यूपीए के पहले कार्यकाल में दब गए थे क्योंकि तब रोजगार गारंटी अधिनियम और वनाधिकार कानून अस्तित्व में आ गए थे। 2009 में जिन लोगों ने उसे दोबारा मत दिया, उनके जेहन में प्राकृतिक संसाधन थे।
आगामी सरकार को इन मुद्दों पर क्यों गंभीर होना चाहिए? सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को ये समस्याएं विरासत में मिली हैं। यह स्पष्ट हो गया है कि सत्ताधारी गठबंधन ने इन समस्याओं को दूर करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई है। भले ही मोदी जोर देकर कहें कि उनके कार्यक्रम ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन ला रहे हैं लेकिन यह पासा भी सरकार के खिलाफ ही जा रहा है।
दरअसल, मोदी सरकार के कार्यकाल में ग्रामीण संकट ऐतिहासिक रूप से बढ़ गया है। ग्रामीण भारत में मजदूरी तेजी से कम हुई है और ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसे कार्यक्रम सरकारी उपेक्षा के शिकार हुए हैं। साथ ही कृषि भी मंदी से घिर गई है। सूखे और मौसम की अतिशय घटनाओं ने समस्याओं को और बढ़ा दिया है। मोदी के पांच साल के कार्यकाल में ग्रामीण अर्थव्यवस्था उबरने में नाकाम रही है। जिन किसानों ने जितनी ज्यादा उपज पैदा की, उन्हें उतना अधिक नुकसान पहुंचा है। इन समस्याओं को हल करने के लिए सरकार ने कोई ठोस पहल नहीं की। जब भी कहीं किसानों का विरोध प्रदर्शन हुआ, सरकार ने एक नई योजना घोषित कर दी। कुप्रबंधन और गलत क्रियान्वयन से वैसी ही स्थिति पैदा हो गई है जैसी यूपीए सरकार के दौरान थी। सरकार ने इन समस्याओं को नजरअंदाज कर जले पर नमक ही छिड़क दिया। सरकार ने किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा एकत्रित करना ही बंद कर दिया और बेरोजगारी का आंकड़ा भी जारी होने से रोक दिया। खाद्य पदार्थों की कीमत में कमी को उपलब्धि बताकर प्रचारित किया गया। वह भी उस वक्त जब किसान अपनी उपज के उचित मूल्य की मांग को लेकर सड़कों पर थे। बहस को मूल मुद्दों से भटका दिया गया। सरकार कृषि संकट की जड़ में जाने की बजाय किसानों के लिए कृषि बीमा योजना ले आई और इसे मुख्य नीतिगत फैसले के रूप में प्रचारित किया।
इस साल मई में जिसकी सरकार बनेगी, उसे ये समस्याएं और मुद्दे विरासत में मिलेंगे। ये समस्याएं पिछली बार से अधिक विकराल ही होंगी। इसलिए कहा जा सकता है कि नई सरकार की प्राथमिकताओं में पर्यावरण के मुद्दे शामिल होंगे क्योंकि ये मुद्दे ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के दौर में मौसम की असामान्य घटनाएं अब सामान्य हो चुकी हैं। नई सरकार को नए रास्ते खोजने होंगे। किसानों को 1960 के दशक सरीखी हरित क्रांति जैसे कारगर उपायों की दरकार है लेकिन उसके केंद्र में भी पर्यावरण का अजेंडा होना चाहिए। मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार, पानी, उत्पादन और उपज के वितरण से ही किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार की उम्मीद है।
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