रिपोर्ट बताती है कि बीआरडी अस्पताल में 27.21 प्रतिशत क्लिनिकल उपकरणों की कमी है जबकि 56.33 प्रतिशत नॉन क्लिनिकल उपकरणों का अभाव है।
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में कहर बरपाने वाली बीमारी पर दस सवाल
दिमागी बुखार क्यों चर्चा में है?
गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में 10-11 अगस्त को ऑक्सीजन की आपूर्ति रुकने से 23 बच्चों की मौत हो गई थी। ये बच्चे दिमागी बुखार से पीड़ित थे। बताया जा रहा है कि ऑक्सीजन की आपूर्ति करने वाली कंपनी को बकाया का भुगतान नहीं किया गया था। इस कारण कंपनी ने ऑक्सीजन की आपूर्ति रोक दी थी। हालांकि प्रदेश सरकार इससे इनकार कर रही है। इस मेडिकल कॉलेज में यूं तो हर साल बच्चे मरते हैं लेकिन सरकारी लापरवाही से एक साथ इतने बच्चों की मौत ने दिमागी बुखार और बीआरडी कॉलेज को देशभर में चर्चा में ला दिया।
ऑक्सीजन की सप्लाई रुकने के अलावा बीआरडी कॉलेज में मौतों की और क्या वजह है?
बीआरडी मेडिकल कॉलेज पूर्वी उत्तर प्रदेश में इकलौता ऐसा अस्पताल है जो दिमागी बुखार से पीड़ितों के इलाज के लिए विशेष रूप से दक्ष है। यूपी के 15 जिलों, बिहार के कुछ जिलों के अलावा नेपाल से भी इलाज के लिए लोग यहां आते हैं। लेकिन यहां कई कमियां भी हैं जिनकी वजह से साल दर साल बच्चों की मौत हो रही है। मसलन, बाल रोग विभाग में महज 210 बेड हैं जबकि इलाज के लिए इससे कहीं ज्यादा बच्चे यहां पहुंचते हैं। जानकार भ्रष्टाचार को भी मौतों की प्रमुख वजह मानते हैं।
अस्पताल पर सीएजी का आकलन क्या कहता है?
इस साल जून में जारी सीएजी की रिपोर्ट बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज में खामियां को उजागर करती है। रिपोर्ट बताती है कि अस्पताल में 27.21 प्रतिशत क्लिनिकल उपकरणों की कमी है जबकि 56.33 प्रतिशत नॉन क्लिनिकल उपकरणों का अभाव है। ऑक्सीजन नॉन क्लिनिकल की श्रेणी में आता है। ऐसे अस्पताल में जहां बच्चों की संख्या काफी ज्यादा है, वहां ऑक्सीजन का महत्व बढ़ जाता है।
इस बीमारी का प्रकोप कहां-कहां है?
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और इसके आसपास यह बीमारी मुख्य रूप से पैर पसार रही है। केंद्रीय संचारी रोग नियंत्रण कार्यक्रम के अनुसार उत्तर प्रदेश के महाराजगंज, बस्ती, देवरिया, कुशीनगर, सिद्दार्थ नगर, संत कबीरनगर, मऊ जिले में इसका प्रकोप ज्यादा है। पश्चिम बंगाल, बिहार, असम में भी यह बीमारी अपने पैर पसार चुकी है। असम में स्थिति काफी खराब होती जा रही है।
यह बीमारी कब से अस्तित्व में है और इस साल कितने लोगों की मौत हो चुकी है?
दिमागी बुखार का पहला मामला गोरखपुर में 1978 में सामने आया था। इस साल जनवरी से 21 अगस्त तक 260 बच्चों की इस बीमारी से मौत हो चुकी है। गोरखपुर के महज एक अस्पताल में पिछले 40 साल में 9,950 बच्चे दम तोड़ चुके हैं।
किस उम्र के बच्चों को और कब यह बीमारी फैलती है?
दिमागी बुखार 6 से 14 साल के बच्चों को मुख्य रूप से अपनी चपेट में लेता है। जुलाई, अगस्त और सितंबर में यह बीमारी अधिकांश बच्चों को शिकार बनाती है। अक्टूबर और नवंबर आते आते बीमारी का प्रकोप कम हो जाता है। बुजुर्गों को भी यह बीमारी अपना शिकार बनाती है।
दिमागी बुखार का क्या असर होता है?
यह बुखार होने पर बच्चे के दिमाग में सूजन आ जाती है। सिरदर्द, उल्टी, थकान के साथ तेज बुखार चढ़ता है। इस बीमारी की चपेट में आया बच्चा कई बार जीवनभर विक्लांगता से जूझता रहता है। मानसिक रूप से भी बच्चा विकसित नहीं हो पाता। बीमारी से पीड़ित बच्चा देखने, सुनने, सोचने और समझने की क्षमता खो देता है। वह कोमा तक में चला जाता है।
दिमागी बुखार के कारण क्या हैं?
अब तक इस बीमारी के स्पष्ट कारणों का ही पता नहीं चल पाया है। इस बीमारी के संबंध में जो शोध हुए हैं उनमें बीमारी के अलग कारण बताए गए हैं। कोई गंदगी, तो कोई मच्छर या अलग-अलग विषाणुओं को इसका जिम्मेदार मानता है। स्पष्टता न होने के कारण बीमारी अब तक लाइलाज है। डॉक्टर महज लक्षणों के आधार पर इलाज करते हैं। दिमागी बुखार से पीड़ितों में स्क्रब टाइफस बीमारी भी देखी जा रही है जो एक बैक्टीरिया की देन है। लीची के सेवन को भी बीमारी की वजह माना जा रहा है।
सरकार ने इसे रोकने के लिए क्या प्रयास किए हैं?
सरकार का जोर बीमारी के इलाज पर ज्यादा है, उसकी जड़ में जाने पर नहीं। हालांकि बीमारी का इलाज भी ठीक से नहीं मिल रहा है। इस बीमारी से पीड़ित मरीजों के इलाज के लिए अस्पतालों की सख्त कमी है। कई कमियों की ओर से सीएजी रिपोर्ट भी इशारा करती है। सरकार की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह असमंजस में है कि इस बीमारी से कैसे निपटा जाए। अब तक ठोक उपाय नहीं किए गए हैं। जब तक बीमारी के मूल कारणों का पता नहीं चलेगा, तब तक सटीक इलाज भी मुमकिन नहीं है।
दिमागी बुखार को फैलने से रोकने के लिए क्या करना होगा?
सबसे पहले तो लक्ष्य आधारित सोच के साथ बीमारी के कारणों का पता लगाने की दिशा में गंभीर प्रयास करने होंगे। वैज्ञानिक सोच विकसित करने की जरूरत है। अभी अंधेरे में तीर मारने जैसा काम हो रहा है। प्रभावित इलाकों में साफ सफाई और जागरुकता कार्यक्रम चलाए जाने की जरूरत है ताकि लोग इस बीमारी से बचाव के प्रति सचेत रहें।
We are a voice to you; you have been a support to us. Together we build journalism that is independent, credible and fearless. You can further help us by making a donation. This will mean a lot for our ability to bring you news, perspectives and analysis from the ground so that we can make change together.
India Environment Portal Resources :
Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.