आज हमारी नदियां मर रही हैं- इनके कई हिस्सों में पानी में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा शून्य है।
जो समाज अपने सर्वाधिक कीमती प्राकृतिक खजाने- अपनी नदियों को खो देता है, वह समाज निश्चित रूप से अभिशप्त है। हमारी पीढ़ी अपनी नदियों को खो चुकी है।
ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं कि किसी शहर का नाला कभी नदी होता था। आज की दिल्ली नजफगढ़ नाले को जानती है, जो शहर के कचरे को यमुना में लाकर छोड़ता है। लेकिन लोगों को यह नहीं मालूम कि इस नाले का स्रोत एक झील है, जो साहिबी नदी से जुड़ी थी। अब साहिबी भी खत्म हो गई और झील भी। लोगों के जेहन में सिर्फ एक नाला है, जिसमें पानी नहीं, केवल प्रदूषण बहता है। इससे भी बुरी बात यह है कि दिल्ली की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द फैला नया गुड़गांव अपना मल-मूत्र इस नजफगढ़ झील में डाल रहा है।
लुधियाना का बूढ़ा नाला भी एक गंदे नाले में तब्दील हो गया है, गंदगी और गंध से सड़ता हुआ। बहुत समय नहीं हुआ, जब बूढ़ा एक दरिया था, एक नदी। इसमें निर्मल जल बहता था। केवल एक पीढ़ी के काल में ही इसका हाल और नाम बदल गया है।
मिठी नदी भी मुंबई को शर्मसार कर रही है। जब वर्ष 2005 में मुंबई शहर बाढ़ से डूबा, तब पता चला कि मिठी नाम का नाला अवरुद्ध हो गया है। यह नाला आज भी प्रदूषण और अतिक्रमण की चपेट में है। लेकिन मुंबई शहर को इस बात का आभास नहीं है कि मिठी शहर के लिए नहीं, अपितु यह शहर मिठी के लिए शर्म का कारण है। मुंबई के पास से निकालने वाला यह नाला कभी वास्तव में नदी हुआ करता था, नदी की तरह बहता था और नदी के तौर पर ही जाना जाता था। लेकिन वर्तमान में आधिकारिक पर्यावरण रिपोर्ट में भी यह नदी एक बरसाती नाले के रूप में दर्ज है। दिल्ली की तरह मुंबई ने भी एक ही पीढ़ी में अपनी नदी को खो दिया है।
लेकिन हम अचंभित क्यों हैं? हम अपनी नदियों से बहुत ही बेदर्दी से साफ पानी लेते हैं और बदले में उन्हें मल तथा औद्योगिक कचरे से भर देते हैं। हमारी कई नदियों के ऊपरी हिस्सों में बहाव ही नहीं है, क्योंकि हमने पानी से बिजली पैदा करने के लिए इसे रोक दिया है। इंजीनियरों-डिजाइनरों के पास नदी के प्राकृतिक बहाव के बारे में ऐसी कोई समझ नहीं है कि बिजली बनाने के लिए पानी का इस्तेमाल तभी किया जाएगा जब पर्यावरणीय और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद भी नदी में पर्याप्त पानी बचा हो। जब गंगा, यमुना, नर्मदा या कावेरी मैदानी क्षेत्र में पहुंचती हैं, हम सिंचाई और पेयजल के लिए पानी की एक-एक बूंद सोख लेते हैं। हम नदियों को चूस कर सूखा छोड़ देते हैं। नदियों को पूजते हुए भी हम उनमें कूड़ा-करकट, प्लास्टिक और न जाने क्या-क्या डाल देते हैं। हम यह सब करते हैं और फिर भी विश्वास है कि नदियां पूजा के लायक हैं। या इसका अर्थ यह है कि हम एक मरी हुई या मरणासन्न नदी की पूजा करते हैं, उनकी दुर्दशा को नजरंदाज करते हुए।
आज हमारी नदियां मर रही हैं- इनके कई हिस्सों में पानी में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा शून्य है। इस कारण इनमें जीवन नहीं है। इनमें सिर्फ हमारा मल बहता है, ये हमारे मल-मूत्र को बहाने वाली नहरें हैं।
हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम ऐसा नहीं होने देंगे। इसके लिए हमें पानी के इस्तेमाल और कचरे के निस्तारण के बीच के संबंध को जानना होगा, हमारे नल, फ्लश और नदी के बीच संबंध को पहचानना होगा। आज हमें अपने घरों में पानी मिल रहा है, हम कचरा पैदा कर रहे हैं और नदियों को मरता हुआ देख रहे हैं। ऐसा लगता है कि हम कुछ जानना ही नहीं चाहते।
क्या भारतीय समाज की जाति व्यवस्था के कारण ऐसा हो रहा है, जिसमें सफाई करना किसी और की जिम्मेदारी है? या फिर हमारी मौजूदा प्रशासनिक व्यवस्था के चलते ऐसा है, जहां पानी और कचरा प्रबंधन सरकार का काम है और उसमें भी निचले दर्जे के कर्मचारियों का? या फिर यह भारतीय समाज की उस मानसिकता के कारण है कि अमीर होकर व्यक्ति सब कुछ ठीक कर सकता है, कि पानी की कमी और कचरा तत्कालिक समस्याएं हैं, एक बार हम अमीर हुए नहीं कि हम आधारभूत ढांचे का विकास कर लेंगे और फिर पानी अपने आप बहने लगेगा तथा सड़ने वाला मल अपने आप गायब हो जाएगा?
इस दौर में समाधान भी मौजूद हैं। पहला, हमें पानी के उपयोग को संयमित करना होगा, ताकि दूषित जल कम निकले। हमें पानी की बर्बादी को रोकना ही होगा। दूसरा, हमें बारिश के पानी को सहेजना सीखना होगा- घरों और संस्थानों में बरसात के पानी का संग्रहण करना होगा, ताकि भूजल को रीचार्ज किया जा सके। हमें यह मांग भी जोर-शोर से उठानी होगी कि झील या तालाब को कचरे से न भर दिया जाए या निर्माण के लिए समाप्त न कर दिया जाए। तीसरा, हमें शहरों में कचरा प्रबंधन की जरूरत को समझना होगा तथा इस बात की निगरानी करनी होगी कि सीवेज और कचरा कहां निस्तारित हो रहा है। जब हम यह समझ लेंगे, तब हम यह मांग कर सकेंगे कि कचरे का पुनर्चक्रण हो तथा गंदे पानी को साफ कर दोबारा इस्तेमाल किया जाए।
समय आ गया है जब हमें अपनी नदियों के खोने पर आक्रोशित होना चाहिए। वरना हमारी पीढ़ी को न सिर्फ नदियों के खोने का अफसोस रहेगा बल्कि नदियों के सामूहिक संहार का अपराधी भी माना जाएगा। हमारे बच्चे यह नहीं जान पाएंगे कि नर्मदा, यमुना, कावेरी या दामोदर नदियां थीं। वे उन्हें सिर्फ गंदे नालों के रूप में ही जान सकेंगे।
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