Health

निजी अस्पतालों के भरोसे बुजुर्ग

ढलती उम्र में बुजुर्गों की देखभाल का मामला अधिक संवेदनशील हो जाता है क्योंकि आधे से भी अधिक बुजुर्गों को अपनी सेहत की देखभाल के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है।

 
By Umashankar Mishra
Published: Wednesday 13 December 2017
Credit: Meeta Ahlawat

निजी अस्पतालों की मनमानी का मामला हाल में चर्चा में बना हुआ है। लेकिन बुजुर्गों की आधे से अधिक आबादी अपने स्वास्थ्य की देखभाल के लिए निजी अस्पतालों के भरोसे ही है। जबकि सार्वजनिक अस्पतालों की अपेक्षा निजी अस्पतालों में इलाज पर पांच गुना से भी अधिक खर्च होता है। 71वें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों को केंद्र में रखकर किए गए अध्ययन में यह खुलासा हुआ है।

ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में हालात अलग नहीं हैं। ढलती उम्र में बुजुर्गों की देखभाल का मामला अधिक संवेदनशील हो जाता है क्योंकि आधे से भी अधिक बुजुर्गों को अपनी सेहत की देखभाल के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है।

बुजुर्गों की रुग्णता से संबंधित आंकड़े प्राप्त करने के लिए गत पंद्रह दिनों में उनकी बीमारी और बीते एक साल के दौरान अस्पताल में भर्ती होने के मामलों को शामिल किया गया है। स्वास्थ्य की देखभाल में होने वाले खर्च संबंधी आंकड़ों में अस्पताल में भर्ती होने, निदान, डॉक्टरों की फीस, दवाइयों, बेड चार्ज और परिवहन समेत अन्य गैर-मेडिकल खर्चों को भी शामिल किया गया है। 

सर्वेक्षण में शामिल 27,245 बुजुर्गों में 50.3 प्रतिशत पुरुष और 49.7 प्रतिशत महिलाएं थीं। वहीं, 9.2 प्रतिशत ग्रामीण और 8.4 प्रतिशत शहरी बुजुर्गों की उम्र 80 वर्ष से अधिक थी और 57.4 प्रतिशत बुजुर्ग निरक्षर थे। अध्ययन के दौरान पाया गया कि 30 प्रतिशत से अधिक बुजुर्ग गत 15 दिनों से किसी बीमारी से पीड़ित थे, जबकि बीते एक साल के दौरान अस्पताल में भर्ती होने वाले बुजुर्गों की संख्या आठ प्रतिशत थी। 80 साल की उम्र के बुजुर्गों के बीमार होने का अनुपात भी कम उम्र के लोगों की अपेक्षा अधिक पाया गया है।

सर्वेक्षण से एक बात यह भी उभरकर आई है कि गरीबों की अपेक्षा संपन्न लोग बीमारियों का अधिक शिकार बनते हैं और अस्पतालों में भर्ती होने के मामले भी उनमें अधिक देखे गए हैं। यही नहीं, गरीब बुजुर्गों की अपेक्षा संपन्न वर्ग के बुजुर्ग अस्पताल में इलाज कराने के लिए तीन गुना से अधिक खर्च करते हैं। शहरी क्षेत्रों के संपन्न बुजुर्गों के मामले में यह आंकड़ा 6.6 गुना और ग्रामीण बुजुर्गों के मामले में 1.9 गुना अधिक है। इससे स्पष्ट है कि निम्न आय वर्ग के बुजुर्गों को ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

अध्ययनकर्ताओं में शामिल मदुरै स्थित वेलम्मल मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल एवं रिसर्च इंस्टीट्यूट की शोधकर्ता डॉ. जयश्री कैथीरेसन ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “बीमारियां तो बढ़ रही हैं, पर उसके अनुपात में बजटीय आवंटन नहीं बढ़ रहा है। निकट भविष्य में बुजुर्गों की पुरानी बीमारियों के मामले में स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी रणनीतियों को विशिष्ट रूप से उपचार पर केंद्रित करने की जरूरत है। इसके साथ ही बीमारियों की रोकथाम और स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा देना भी जरूरी है।” 

बुजुर्गों की निर्भरता का अनुपात वर्ष 1961 में 11 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2011 में 14 प्रतिशत हो गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि बुजुर्ग अपनी सेहत की देखभाल समेत अन्य जरूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित हैं। जबकि कम उम्र के लोगों की अपेक्षा वे अधिक बीमार होते हैं और उनके स्वास्थ्य में सुधार भी धीमी गति से होता है। 

राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो 64 प्रतिशत मामलों में बुजुर्ग निजी अस्पतालों और 35.9 प्रतिशत मामलों में सार्वजनिक अस्पतालों का उपयोग करते हैं। ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों को आधार माना जाए तो वहां भी इसी तरह का पैटर्न देखने को मिलता है। ग्रामीण इलाकों में 61 प्रतिशत मामलों में निजी अस्पतालों और 38.6 प्रतिशत मामलों में सार्वजनिक अस्पतालों का उपयोग होता है। इसी तरह शहरों में भी 68.6 प्रतिशत मामलों में निजी अस्पतालों और 31.4 प्रतिशत मामलों में सार्वजनिक अस्पतालों का उपयोग होता है।

अध्ययनकर्ताओं का कहना यह भी है कि पुरुष एवं महिलाओं में बीमारियों से ग्रसित होने और अस्पतालों में इलाज कराने के मामले समान रूप से दर्ज किए गए हैं। हालांकि, विभिन्न वर्गों के बुजुर्गों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पर अस्पताल में इलाज का खर्च कम होता है।

डॉ. जयश्री के अनुसार “बुजुर्गों की सेहत और उनकी बेहतर जिंदगी से जुड़ी किसी भी रणनीति में विभिन्न वर्ग के लोगों के स्वास्थ्य स्तर और स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग में असमानता को दूर करने के प्रयासों को शामिल करना जरूरी हैं। बीमारियों से ग्रस्त होने और उससे जुड़े खर्च की सही समझ हो तो उम्रदराज लोगों के बेहतर स्वास्थ्य और उनकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चत करने में मदद मिल सकती है। यह अध्ययन इस दिशा में कारगर हो सकता है।”

डॉ जयश्री के अलावा अध्ययनकर्ताओं की टीम में चंडीगढ़ स्थित पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन ऐंड रिसर्च से जुड़े सौंदप्पन कैथिरवेल, पुदुचेरी स्थित जवाहरलाल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन ऐंड रिसर्च से जुड़े पलानीवेल चिन्नाकली, सऊदी अरब के स्वास्थ्य मंत्रालय से संबद्ध रिजवान सुलेनकाची अब्दुलकादिर और पेरिस स्थित इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट ट्यूबरक्लोसिस ऐंड लंग्स डीजीज से जुड़े अजय कुमार शामिल थे। यह अध्ययन हाल में आर्काइव्स ऑफ गेरॉन्टोलॉजी ऐंड गेरिएटरिक्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

(इंडिया साइंस वायर)

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