भारत में “भीड़ के द्वारा हिंसा” कोई नया घटनाक्रम नहीं है, लेकिन भीड़ हिंसा को कट्टरपंथी राजनीति और साम्प्रदायिकता में श्रृद्धा रखने वाली सरकारों का संरक्षण होना इसमें नया जोड़ है।
राष्ट्रीय स्थिति
भारत में भीड़ के द्वारा की जाने वाली हिंसा के मुख्य शिकार दलित और मुसलमान हैं। धर्म-जाति-जन्मस्थान या किसी अन्य आधार पर भेदभाव को निभाने के लिए की गई हिंसा में भीड़ मुख्य जरिया होती है। जब इन घटनाओं का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि गौ रक्षा के नाम पर हिंसा की गई, कई मामलों ने जाति और जमीन के विवाद थे। वस्तुतः अफवाह के आधार पर ही भीड़ ने हिंसाओं को अंजाम दिया। इन मामलों में राजनीतिक हित हत्यारों को संरक्षण देते हैं। इन मामलों से यह भी एक बात उभरती है कि क्या लोगों का क़ानून, व्यवस्था और न्यायिक व्यवस्था में विश्वास कम हो रहा है?
25 जुलाई 2017 को लोकसभा में गृह राज्य मंत्री हंसराज गंगाराम अहीर ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) धर्म, जाति, जन्म स्थान आदि (आईपीसी की धरा 153क और 153ख) के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने वाले अपराधों के आंकड़े रखता है। बहरहाल गौ-रक्षा, गाय के व्यापार और दुर्व्यापार से संबंधित हिंसा के आंकड़े सरकार के पास नहीं है।
भीड़ हिंसा को अब किसी एक राज्य और वहां की खास सरकारों के सन्दर्भ तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि भीड़ का कोई एक धर्म तो होता है। यह तेज़ी से फैलाई जा रही एक प्रवृति है, जिसे हिंदू या मुस्लिम अस्मिता की स्थापना के नाम पर उभारा जा रहा है, पर एक वक्त के बाद कोई भी सरकार, चाहे वह दक्षिण पंथ की हो या उत्तर पंथ की, इसे नियंत्रित नहीं कर पाएगी। सवाल यह है कि धर्म के नाम पर, बिना किसी कारण, अफवाहों के आधार पर भीड़ इकठ्ठा होती है और हत्या कर देती है।
वस्तुतः लोगों के भीड़ में बदलने और भीड़ के द्वारा हिंसा किये जाने का मनौविज्ञान कहता है कि भीड़ हिंसा अपने आप पैदा नहीं होती, इसे पैदा किया जाता है। पहले लोगों के अहसास और संवेदनाओं को मार दिया जाता है। फिर उन लोगों को एक भीड़ में जुटा दिया जाता है। ऐसी भीड़ एक खतरनाक स्थिति में होती है क्योंकि भीड़ को यह अहसास ही नहीं होता है कि वे निरर्थक ही किसी की हत्या कर रहे हैं!
समाज के बर्बर होते जाने का प्रमाण है भीड़ हिंसा
धर्म और जाति वर्तमान में हिंसा का महत्वपूर्ण बहाना हैं। वस्तुतः धर्म तो अहिंसा का अहसास को जमाने और मनुष्यता को परिपक्व बनाने का जरिया होता है; किन्तु बदलते मूल्यों ने इसे हिंसक राजनीति और बर्बरता को न्यायोचित ठहराने का जरिया बना दिया है। अहसास के मर जाने के संकेत क्या हैं? जब एक समुदाय दूसरे के पहनावे को ही सहन-स्वीकार करना बंद कर दे, जब एक समुदाय को दूसरे के खाने पर ऐतराज़ हो, जब एक समुदाय को दूसरे की प्रार्थना पद्धति पीड़ा देने लगे, जब एक समुदाय दूसरे समुदाय या क्षेत्र की भाषा को अपने खिलाफ़ मानने लगे, जब केश या दाड़ी से व्यक्ति की नियति तय होने लगे; तब मान लीजिए कि ऐसे व्यक्ति भीड़ में बदलने के लिए तैयार हैं। अमूमन ये अपने कृत्यों को सही साबित करने के लिए धर्म या प्राचीन रूढ़ियों को ढाल बनाते हैं, ताकि किसी की हत्या करने के बाद अपने खून से सने हाथों को पानी से धोकर खाना खा सकें और अपने बच्चों को प्यार कर सकें। संभव है कि कोई वक्त आएगा, जब वे अपने ही परिवार और बच्चों के खिलाफ़ हिंसा करने के लिए तत्पर रहेंगे, क्योंकि वे अहसास खो चुके होते हैं।
जिस तरह से प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, उसने हिंसा को एक नई जरूरत के रूप में स्थापित किया है। हमारी आर्थिक नीतियां इस कदर अनैतिक रही हैं कि उनमें व्यवस्था जनता के प्रति और जनता का एक वर्ग दूसरे वर्ग के प्रति बर्बर होने की हद तक व्यवहार करता है। दोनों को अपना विशेष वजूद साबित करना होता है।
लोग भूखे, कुपोषित, बेरोजगार, आश्रयविहीन, असुरक्षित रखे जाते हैं, उन्हें अहिंसा और मानवता की शिक्षा से दूर रखा जाता है, उन्हें दर्द में इलाज़ से महरूम रखा जाता है, उनके मन में यह भर दिया जाता है कि यदि वे बलात्कार नहीं करेंगे कि उनके साथ बलात्कार होगा, उनकी हत्या हो सकती है, इसलिए उन्हें पहले ही दूसरे की हत्या कर देना चाहिए। उन्हें यह समझने ही नई दिया जाता है कि समाज के संसाधन, जमीन, जंगल और पूंजी लूट ली जा रही है। लोग तैयार किए जाते हैं, भीड़ का हिस्सा बनाने के लिए।
लोगों का भीड़ में बदल जाना और भीड़ का कातिल हो जाना, यह किस विकास का मुकाम है? क्या हमारे विकास का यही मुकाम तय था? वास्तव सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यहीन आर्थिक विकास यह तय कर देता है कि किसी भी कीमत पर संसाधनों और सत्ता पर प्रभावशाली (ऊंची जाति, बहुसंख्यक प्रतिनिधि, पूंजी-तकनीक संपन्न और बाहुबल) का नियंत्रण हो। आर्थिक विकास के नीति निर्माताओं को भली भांति यह अहसास होता है कि इससे समाज में गैर-बराबरी जबरदस्त तरीके से बढ़ेगी। लोगों से उनके आजीविका के साधन छिनेंगे और बेरोज़गारी बढ़ेगी। लोग भूखे रहेंगे और बीमारिया बढ़ेंगी, किन्तु आर्थिक विकास लोगों को अपनी बीमारी का इलाज़ करवा पाने में भी अक्षम बना देगा। निजी क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण मकसद होता है कि सरकार कभी भी समाज और समाज के वंचित तबकों को रियायत, संरक्षण और सुरक्षा न दे, ये तीनों केवल देश-दुनिया के 100 सबसे ताकतवर व्यापारियों-कम्पनियों-घरानों को मिलना चाहिए। जरा सोचिये की इस तरह के विकास से एक करोड़ रोज़गार की जरूरत की स्थिति में 5 लाख रोज़गार पैदा होते हों। जब किसान से एक रुपए का टमाटर लेकर बिचौलिये और एग्रो-बिजनेस कम्पनियां 100 रुपए में उपभोक्ता को बेंचती हों, जब 6 पैसे की दवाई 60 रुपए में बेची जाती हो, तब समाज का नया वर्गीकरण किस रूप में होगा? तब भारतीय समाज में क्या होगा– बेरोज़गारी, भुखमरी-कुपोषण, अपराध, आर्थिक-लैंगिक-जाति आधारित भेदभाव की चरम अवस्था।
जब देश में 7 करोड़ लोग बेरोजगार हों, साधे 6 करोड़ बच्चे कुपोषित हों, 19.5 करोड़ लोग भीखे सोते हों और 1 प्रतिशत लोगों के नियंत्रण में देश 60 प्रतिशत संपत्ति हो, जहां 6 करोड़ लोग नैराश्य के शिकार हों, जहां 22 सालों में खेती से जुड़े 3.30 लाख लोगों ने बदहाली-क़र्ज़ के कारण आत्महत्या कर ली हो, जहां एक साल में महिलाओं से बलात्कार के 34651 और बच्चों से बलात्कार के 13766 मामले दर्ज होते हों और सरकार की घोषित नीति 15 सालों में 100 घरानों-कंपनियों को 30 लाख करोड़ रुपए की कर-शुल्क रियायत दे देने की हो, वहां समाज अपनी व्यवस्था में विश्वास नहीं कर सकता है।
सोचिये कि बेरोजगार, खाने के घर में खाली भण्डार, हर तरह हत्या और बलात्कार का खौफ, बीमारी और दर्द की स्थिति में इलाज़ न मिलने की पूरी संभावना की स्थिति में मानस का चरित्र क्या होगा? जरा सोचिये कि जिन्दा भारतीय तो भूखा और बेरोजगार है, पर मर जाने के बाद उसके शव के साथ भी व्यवस्था पूरा दुराचार करने के तत्पर है।
इस तरह के विकास में, जब व्यापक समाज को यह समझ आ जाता है कि विकास के नाम पर उसके खेत छीन लिए जायेंगे, उसका घर गिरा दिया जाएगा, उसे बिना किसी सुरक्षा के धंधे से बेदखल कर दिया जाएगा, और जब वह अन्याय का प्रतिरोध करेगा, तो उसे जघन्य अपराधी घोषित कर दिया जाएगा। उस पर देशद्रोह और राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के अपराधी की पहचान चस्पा कर दी जाएगी, तब वह खुद के लिए ताकत की तलाश करता है।
चूंकि कम से कम पिछले 35 सालों यानी एक पीढ़ी को ऐसी शिक्षा दी गई है, जिसमें “नागरिकता” के बजाये “साम्प्रदायिक और स्वार्थ साधक चरित्र” का ज्यादा विकास हुआ। सरकारों की नीति यही है कि समाज भूख, खेती, बेरोज़गारी, जंगल-पर्यावरण और गैर-बराबरी पर सत्ता से बहस करेगा, उसे चुनौती देगा, इसलिए जरूरी है कि समाज को ज्यादा से ज्यादा असुरक्षित बनाया जाए और उसकी भावुकता का आर्थिक-राजनीतिक लाभ उठाया जाए। माहौल ऐसा बनाया जाए, जिससे वह मूल मसलों पर एकजुट न हो पाए, अपने तर्क न गढ़ पाए।
देश की स्वतंत्रता के बाद हमारी व्यवस्था ने शिक्षा-नागरिकता के विकास की ऐसी पहल ही नहीं की कि भारतीय मानस पर जम चुकी हिंसक साम्प्रदायिकता की सोच को साफ़ किया जाए। सदियों से चली आ रही जातिवादी और लैंगिक हिंसा के चरित्र में बदलाव को “विकास का आधार” बनाया जाए, युवाओं-महिलाओं को भी जब ‘समानुभूति भावना आधारित” समाज के लिए एकजुट होने की सीख हासिल नहीं करने दी गई। हाल का समाज किसी मूल्य पर आधारित एकजुटता और संगठन की संभावना में विश्वास नहीं कर पाता। लोग सामाजिक संगठन को अब ताकत नहीं मानते, वे “भीड़” में ताकत खोजने लगे हैं।
जब “अविश्वास” चरम पर पंहुच जाता है और राज्य व्यवस्था खुद अन्याय की प्रतीक बन जाती है तब व्यक्ति अपने भीतर की हिंसा को खुला छोड़ देता है। और जब उसे लोकतांत्रिक और अहिंसक तरीके से प्रतिरोध करने का अधिकार नहीं मिलता है, जब न्याय व्यवस्था भी दुराग्रही राज्य व्यवस्था के पक्ष में हो जाती है, तब बेरोज़गारी-भूख-बलात्कार-भेदभाव का शिकार युवा और कहीं-कहीं व्यापक समाज “हिंसा” के विकल्प को अपना लेता है। वह अकेले हिंसा करने में डरता है, वह बड़ी भीड़ में शामिल होकर हिंसा और कत्लेआम का हिस्सा बन जाता है। बेरोजगार-गरीब-कमज़ोर-शोषित इसके बाद अपराधबोध के जाल में भी फंस जाता है।
भारत में “भीड़ के द्वारा हिंसा” कोई नया घटनाक्रम नहीं है, लेकिन भीड़ हिंसा को कट्टरपंथी राजनीति और साम्प्रदायिकता में श्रृद्धा रखने वाली सरकारों का संरक्षण होना इसमें नया जोड़ है। भारत के शरीर पर पिछले 70 सालों में साम्प्रदायिक दंगों के सैकड़ों घाव हैं। देश की स्वतंत्रता ने भी इन दंगों की छाया में ही गृह प्रवेश किया था। तब से लेकर आज तक समाज-सम्प्रदाय अपनी सुरक्षा और प्रभुत्व के लिए स्थानीय स्तर से लेकर राज्य और राष्ट्र स्तर तक हिंसा का रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। एक बेहतर समाज में नफरत और हिंसा को मिटाने के लिए उसके लोगों को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक आज़ादी और व्यवस्था में समान जिम्मेदार भूमिका देना अनिवार्य होता है। हमने भारत में ऐसा नहीं किया।
समाज का एक तबका यह तय करना चाहता है कि दूसरा तबका क्या खाएगा और क्या नहीं, वे क्या पहनेंगे और क्या नहीं, वे यह भी तय कर रहे हैं कि बच्चों को तार्किकता, संस्कृति और वास्तविक इतिहास के बजाये भेदभाव और अंधविश्वास बढ़ाने वाली शिक्षा दी जाना चाहिए। इसका मकसद यह है कि व्यापक समाज कुछ ख़ास लोगों, धार्मिक नेताओं और ख़ास राजनैतिक विचारधारा के उपनिवेश और गुलाम बने रहें। भीड़ को राजनीति और सत्ता मिलकर पैदा करते हैं। उन्हें हिंसा के लिए निर्देशित करते हैं। शुरू में उसे नियंत्रण में भी रखते हैं, फिर भीड़ उनके नियंत्रण से भी बाहर निकल जाती है। वह किसी के निर्देश नहीं सुनती। जरा सोचिये कि आदरणीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी बार-बार गंभीरता और ईमानदारी से कह रहे हैं कि गौ-रक्षा के नाम पर हिंसा बर्दाश्त नहीं होगी, पर भीड़ उनकी भी बात नहीं सुन रही है!
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