चुनावी राजनीति में महिला मतदाताओं का बढ़ता रुतबा

राजनीति को कैसे प्रभावित कर रही है मतदाता के तौर पर महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी

 
By Kundan Pandey
Published: Wednesday 15 February 2017
मतदान में महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी को देखते हुए राजनीतिक दलों में उन्हें लुभाने की होड़ मची है

गरीब महिलाओं को प्रेशर कुकर से लेकर एक करोड़ महिलाओं को प्रति माह 1000 रुपये पेंशन, कक्षा 9 से 12वीं तक की छात्राओं को साईकिल! ये लोकलुभावन वादे समाजवादी पार्टी ने 22 जनवरी को जारी अपने चुनावी घोषणा-पत्र में किए हैं। इसी तरह कांग्रेस ने पंजाब की महिला मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए अपने घोषणा-पत्र में उन्हें को नौकरी और शिक्षण संस्थाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी इस मामले में पीछे नहीं है। भाजपा ने पंजाब में लड़कियों की पीएचडी तक मुफ्त शिक्षा देने का वादा किया है। महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए सभी दलों के बीच एक होड़-सी लगी है, जो भारत की चुनावी राजनीति में महिलाओं के बढ़ते दबदबे का संकेत है। इस संकेत की पुष्टि इस बात से भी होती है कि वर्ष 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कम से कम पंद्रह क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों ने अपने घोषणा-पत्र में महिलाओं को खास तवज्जो दी है।

सामाजिक जीवन में लंबे समय से हाशिये पर रही महिलाओं को मतदाता के तौर पर अहमियत मिलना सामान्य बात नहीं है। इस रुझान को महिला सशक्तीकरण और राजनीति में महिलाओं की बदलती स्थिति से जोड़कर देखा जा सकता है। हाल के वर्षों में संपन्न हुए चुनावों के प्रचार अभियान से साफ जाहिर है कि महिला मतदाताओं की तरफ राजनीतिक दलों का इतना ध्यान पहले कभी नहीं रहा। इस दौरान महिला मतदाताओं की संख्या और मतदान में उनकी हिस्सेदारी भी लगातार बढ़ी है।

इस साल देश के पांच राज्यों गोवा, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में चुनाव होने जा रहे हैं। दिलचस्प बात है कि इन राज्यों में महिलाओं के मतदान का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। इन राज्यों में पिछले दो विधानसभा चुनावों (साल 2007 और 2012) के अध्ययन से पता चलता है कि मतदान में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है। उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश में वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में जहां महज 41.92 प्रतिशत महिलाओं ने अपने मत का इस्तेमाल किया, वहीं साल 2012 के विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा बढ़कर 60.28 प्रतिशत तक पहुंच गया। पंजाब में भी इसी तरह के रुझान देखने को मिले हैं। वहां वर्ष 2007 में 75.47 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया जबकि 2012 में 78.90 प्रतिशत महिलाएं मतदान के लिए घरों से निकलीं। मणिपुर के अलावा बाकी दो राज्यों में भी यही रुझान देखने को मिला है।

इस तरह के रुझान सिर्फ इन्हीं राज्यों में ही नहीं बल्कि केंद्र और अन्य विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल रहे हैं। लोकनीति कार्यक्रम से जुड़े संजय कुमार का कहना है कि मतदान में महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी अब स्थापित सत्य है। लोकनीति, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी (सीएसडीएस) का एक अनुसन्धान कार्यक्रम है जो लोकतान्त्रिक राजनीति पर अध्ययन करता है।

राजनैतिक दलों द्वारा महिलाओं को लुभाने के प्रयास अब लगभग हर राज्य में देखने को मिल रहे हैं। हालांकि, इसके तौर-तरीके क्षेत्रीय विषमताओं और स्थानीय जरूरतों के हिसाब से बदलते रहते हैं। मिसाल के तौर पर, बिहार में हुए पिछले विधानसभा चुनाव को ही लीजिए। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साल 2010 में सत्ता संभालने के बाद कई ऐसे फैसले किए जो सीधे तौर पर महिला समस्याओं पर केंद्रित थे। मसलन, पंचायत चुनावों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण, छात्राओं को नकदी फायदे व साईकिल देना। इन महिलाओं और स्कूल छात्राओं को नीतीश कुमार यकीनन भावी वोट बैंक के तौर पर देख रहे होंगे। चुनाव जीतकर दोबारा सत्ता में आने के बाद उन्होंने बड़े जोर-शोर से महिलाओं से किया गया अपना शराबबंदी लागू करने का वादा पूरा किया है। इसी तरह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी ऐसे कई फैसले लिए हैं, जो सीधे तौर पर महिलाओं का ध्यान खींचते या उन्हें राहत पहुंचाते हैं। इसमें शिक्षा और शादी के लिए लड़कियों को आर्थिक मदद आदि शामिल हैं।

स्रोत : चुनाव आयोग

बतौर मतदाता महिलाओं ने चुनावों में अपनी प्रभावशाली दस्तक तो दे दी है। यही वजह है कि सारे राजनीतिक दल महिला चेहरों को भी आगे कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में इसकी बानगी देखी जा सकती है। जैसे सपा के नए अध्यक्ष और तत्कालीन मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने अपनी पत्नी डिम्पल यादव को मीडिया में हो रही बहसों में बार-बार जगह दिलाई। कांग्रेस पहले मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रुप में शीला दीक्षित को आगे लेकर लाई और प्रियंका गांधी को चुनाव में स्टार प्रचारक के तौर पर देख रही है। मतदाता के तौर पर महिलाओं का महत्व भले बढ़ गया है लेकिन लोकसभा में आरक्षण और राजनैतिक दलों में प्रतिनिधित्व के मामले में उन्हें अभी लंबा सफर तय करना है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो जिस तरह की चुनौतियां और लैंगिक भेदभाव समाज के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं को झेलना पड़ता है, राजनीति भी उससे अछूती नहीं है। बल्कि राजनीति में अक्सर इसका सबसे विकृत रूप उजागर होता है। राजनैतिक तौर पर सक्रिय महिलाओं पर होने वाली अभद्र टिप्पणियां मर्दवादी सोच की इसी जड़ता का प्रमाण हैं।

चुनाव आयोग द्वारा जारी ताजा आंकड़ो के अनुसार उत्तर प्रदेश में अभी कुल 7.68 करोड़ पुरुष और 6.44 करोड़ महिला वोटर हैं। आंकड़ों से साफ है कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में महिला वोटर किसी भी दल की दशा और दिशा बदलने में सक्षम हैं। पिछले पांच सालों में देश में जितने भी चुनाव हुए हैं, उसमे महिलाओं का वोट प्रतिशत पहले की अपेक्षा काफी बढ़ा हैं।

लोकनीति से जुड़े संजय कुमार का कहना है कि पहले राजनैतिक पार्टियां महिलाओं पर ध्यान नहीं देती थीं लेकिन अब बढ़ती भागीदारी को देखते हुए महिलाएं उनके प्रमुख एजेंडे में आ गई हैं। समाजवादी पार्टी का घोषणा-पत्र इसका एक ताजा उदहारण है, जिसमें अखिलेश यादव महिलाओं को अपने पक्ष में करने के लिए काफी प्रयास करते दिख रहे हैं। कुमार आगे बताते हैं, पिछले कुछ चुनावों में देखा गया है कि महिलाओं ने उस राजनैतिक दल को अधिक समर्थन दिया, जिसकी प्रमुख महिला रही है। जैसे तमिलनाडु में जयललिता (अब दिवंगत), पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और उत्तर प्रदेश में मायावती। अब देखना यह होगा कि क्या महिलाएं अखिलेश यादव के वादे पर भरोसा कर पाती हैं।

फिर भी महिलाओं में मतदान को लेकर इस उत्साह के पीछे की वजह क्या है? जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर जोया हसन के अनुसार, इसका श्रेय पंचायत चुनाव में महिलाओं को मिले आरक्षण और महिलाओं से जुड़े तमाम विकास कार्यक्रम को जाता है। इस परिवर्तन से महिलाओं को रिझाने के लिए बहुत-सी योजनाएं शुरू होने लगी हैं। इनमें नगद हस्तांतरण के कार्यक्रम सबस अहम होंगे।

मतदान में हिस्सेदारी बढ़ने के बावजूद राजनैतिक दलों में महिलाओं को नहीं मिल पा रहा है पर्याप्त प्रतिनिधित्व

क्या महिलाओं का पक्ष मजबूत हो रहा है? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अमिता सिंह कहती हैं कि महिलाओं का मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना एक अच्छा संकेत है। इससे कम से कम उनसे जुड़े मुद्दे प्रकाश में आ रहे हैं। इसके पीछे दो कारण है, पहला-महिलाओं से जुड़े मुद्दों का आगे आना जैसे आजकल अखबारों में महिलाओं से जुड़े बहुत-से मुद्दे देखे जा सकते हैं। शिक्षा में भी सुधार हुआ है। दूसरा-राजनैतिक दल साम-दाम-दंड-भेद अपनाकर महिलाओं को अपना वोटर बनाना चाहते हैं। इसके अलावा पंचायत चुनाव में मिले आरक्षण का भी प्रभाव है। एक बार जो महिला चुनी जाती है, वह अपनी बहु-बेटियों को वोट देने के लिए प्रोत्साहित करती है।

अमिता सिंह और जोया हसन, दोनों का यह मानना है कि महिला मतदाताओं का बढ़-चढ़कर चुनाव में भाग लेना और उनकी स्थिति में सुधार होना, दोनों एकदम अलग मामले हैं।

सिंह कहती हैं, वोट देने में इनकी संख्या बढ़ने का मतलब यह नहीं कि महिलाओं की स्थिति में सुधार आ रहा हैं। ये तब होगा जब महिलाएं निर्णय लेने की स्थिति में पहुंचेंगी। उत्तर प्रदेश का उदाहरण लीजिये जिसमे प्रियंका गांधी और डिंपल यादव ने सपा और कांग्रेस के गठबंधन में अहम भूमिका अदा की। पर हर जगह अखिलेश यादव और राहुल गांधी के पोस्टर मिल रहे हैं। तमाम प्रयास के बावजूद महिलाएं पहली पंक्ति में नहीं आ पा रही हैं। मायावती कम से कम इसमें तो सफल हुई है और अपने को पहले पंक्ति में ला सकीं हैं।

यह स्पष्ट है कि महिलाएं अपने परिवार और समाज को ध्यान में रखकर मतदान करती हैं। कई बार ऐसी महिलाएं भी मिलती हैं, जिनको घोषणा-पत्र की कतई जानकारी नहीं होती है। जोया हसन का मानना है कि ऐसे में इस तरह के रुझानों का वृहद अध्ययन जरूरी हो जाता है। खासकर ये तीन प्रश्न: क्या महिलाएं महिला उम्मीदवार को वोट देना पसंद करती हैं? क्या महिला नेता राजनीति में कोई परिवर्तन लाने में सक्षम हैं? और क्या महिलाओं की कोई अलग राजनीतिक पसंद हैं?

वर्ष 2013 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ बिहेवियरल सोशल एंड मूवमेंट साइंस में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, यद्यपि महिला मतदाता की संख्या बढ़ रही है, मगर महिला उम्मीदवारों की संख्या निराशाजनक रही है। वर्ष 2012 के चुनावों में इन राज्यों में महिला उम्मीदवारों की संख्या करीब 4.65 और 8.62 प्रतिशत के बीच ही रही है। इससे जाहिर होता है कि राजनैतिक दल महिलाओं को बराबरी का मौका देने का बस दिखावा करते हैं।

पंचायतों में महिलाएं
 
पंचायतों के जरिये महिलाओं की भागीदारी बढ़ने का सिलसिला काफी आगे बढ़ चुका है

स्थानीय चुनाव में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पूरे देश में बढ़ रहा है। इसके बेहद उत्साहजनक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश जहां 44 प्रतिशत महिलाएं प्रधान हैं, जबकि वहां उन्हें महज 33 प्रतिशत ही आरक्षण प्राप्त हैं। इसी तरह झारखंड में 2010 के चुनाव में कुल 58 प्रतिशत महिलाएं चुनी गई थीं, जबकि वहां 50 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है। मतदाता के तौर पर तो उनकी संख्या बढ़ ही रही थी, अब स्थानीय निकायों में महिलाएं अधिक संख्या में चुनकर आ रही हैं।

फरवरी, 2016 में केंद्र सरकार ने स्थानीय चुनाव में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव लाने की बात कही थी। सरकार उस बजट सत्र में इसके लिए एक विधेयक भी लाने वाली थी। लेकिन किन्हीं कारणों से यह विधेयक नहीं आ पाया।

देश का संविधान पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित करता है। देश में कुल 12.70 लाख निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि हैं। मतलब कुल निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का 43.56 प्रतिशत।

पंचायत सदस्य के तौर पर महिलाओं का 33 प्रतिशत से बढ़कर 44 प्रतिशत प्रतिनिधित्व राज्य सरकारों के प्रयास से ही संभव हो पाया है। कुल 16 राज्यों बिहार, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, सिक्किम, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल ने महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण व्यवस्था कर रखी है। बिहार देश का पहला राज्य था, जिसने महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया। उत्तराखंड ने तो 55 प्रतिशत आरक्षण दे रखा है।

इस रुझान को अच्छा संकेत मानते हुए इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के विद्युत मोहंती कहते हैं कि इस उपलब्धि के पीछे तमाम जमीनी आंदोलनों की बड़ी भूमिका रही है। माइक्रो फाइनेंस, स्वयंसेवी समूह, साक्षरता मिशन, ग्राम सभा में बढ़ती भागीदारी और तमाम सरकारी कार्यक्रम जिसमे ग्राम स्तर पर समितियां बनी हैं और उनमें महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हुई है।

- जितेंद्र

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