हिंसा के भय को भूल भी जाएं तो दंडकारण्य में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति बेहद चिंताजनक है
बस्तर एक बार फिर चर्चा में है। एक विधायक व उनके सुरक्षाकर्मियों की हत्या के बाद देश भर में बस्तर और दंतेवाड़ा की खूब चर्चा हो रही है, लेकिन बस्तर का एक और चेहरा है। जिस बारे में डाउन टू अर्थ ने 20 जनवरी 2017 को प्रकाशित किया था। हालात कुछ बदले जरूर हैं, लेकिन ज्यादा नहीं। पढ़ें, पूरा लेख ...
21वीं सदी में हम लोगों के लिए बस्तर जंगलों और आदिवासियों का इलाका होने के साथ-साथ सुरक्षा बलों और हथियारबंद विद्रोहियों की मौजूदगी वाला एक रक्तरंजित रणक्षेत्र भी है। देखा जाए तो यह अनुमानों पर आधारित भूदृश्य है। जब तक कोई व्यक्ति खुद छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र में जाकर न देखे, तब तक हकीकत को समझना बहुत मुश्किल है।
जगदलपुर से दंतेवाड़ा तक की सड़क साल के घने जंगलों के बीच से गुजरती है, जहां जंगली फलों वाले पेड़ और औषधीय पौधे खूब दिखाई देते हैं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की चौकियां नजर आती हैं। शाम होने के बाद लोग अकसर इन इलाकों में जाने से मना कर देते हैं। हमें भी चेताया गया था।
‘आपको डर नहीं लगा यहां आने में?’ जब मैं जिलाधीश से मिलने के लिए पहुंची, तो दंतेवाडा जिला कलेक्टरेट में एक क्लर्क ने मुझसे पूछा। मुझे और मेरी सहयोगी, दो महिलाओं को दक्षिण बस्तर में देखकर उसके मन में यही सवाल सबसे पहले आया। पिछले दशक से बस्तर के जंगलों में फैली विद्रोह की आग ने एक भय का वातावरण बना दिया है। संघर्षों, बंदूकों और गिरफ्तारियों के बारे में परेशान करने वाले किस्से आम हैं। शायद यही वजह है कि दंडकारण्य के जंगलों की हरियाली और जल धाराएं बेचैनी से राहत नहीं दे पाती हैं।
‘दंडकारण्य’ का सामान्य अर्थ ‘दंड देने वाला जंगल’ होना चाहिए। लोक चर्चाओं में कहा जाता है कि ये जंगल कई भयानक जंतुओं और देश निकाला दिए गए लोगों का घर थे। यह साख आज भी कायम है। आज भी ऐसा लगता है कि यहां के लोगों को देश निकाला दिया गया है। खूबसूरती, संसाधनों और आदिवासी संस्कृति से सराबोर होने के बावजूद ये जंगल ‘माओवाद प्रभावित’ क्षेत्र के नाम से जाने जाते हैं।
सशस्त्र संघर्ष के कई दुष्परिणामों में से एक यह है कि इससे क्षेत्र में रह रहे देश के निर्धनतम आदिवासियों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अशांति की वजह से लोगों के रोजमर्रा के जीवन, उनकी जरूरतों और इच्छाओं का दमन हो रहा है। कुपोषण, स्वास्थ्य देखभाल, साफ पानी और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे आम तौर पर किनारे कर दिए गए हैं। हमारी दंतेवाड़ा की यात्रा का मकसद इन किनारों को छूना ही है।
जीवन के पहले अंकुर
एक नजर बस्तर के अतीत पर डालते हैं। बस्तर का इतिहास यहां का भूगोल है। करीब 3 अरब वर्ष पहले यहां जीवन ने आकार लिया। जो पौधे और पेड़ हम अब देखते हैं, वे जीवन के पहले अंकुरों के पूर्वज हैं। यह क्षेत्र उस स्थान से पुराना है, जिसे हम भारत कहते हैं। यह तब एक अलग भूगर्भीय संरचना था। उस समय भारत ऐसा नहीं दिखता था, जैसा आज है। उस समय आदिवासी नहीं थे और पौधे-पेड़ उनके होने के लिए वातावरण तैयार कर रहे थे।
बस्तर में अबुझमाड़ पर्वत, यानि विचित्र पहाड़ियां है जो 3,900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले जंगलों से घिरा है। वर्ष 2009 में सरकार ने इन पहाड़ों तक पहुंचने के लिए रास्ता खोला। 1980 के दशक से ही ये पहुंच से दूर थे। यही वह जगह है, जहां कृषि से पहले के जीवन को आज भी महसूस किया जा सकता है। इन जंगलों में गोंड जैसे आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनके पास ‘भविष्य’ जैसा शब्द हैं। हालांकि, ऐसे कई शब्दों ने अब इन्हें जकड़ लिया है। कई जनजातियां तो ऐसी हैं, जिनके अब सिर्फ पांच-सात लोग बचे हैं। यह उस जीवन का हाल है जिसका अस्तित्व करीब 10 हजार साल पुराना है।
लाल विडंबना
सुबह जल्द ही हम बचेली जाने के लिए निकले, जो दंतेवाड़ा में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी) के दो सबसे महत्वपूर्ण लौह खनिज उत्पादन केंद्रों मंी से एक है। जैव विविधिता वाले बैलाडिला पर्वत श्रृंखला की तलहटी पर बसा बचेली उच्च-गुणवत्ता वाले लौह अयस्क भंडारों के लिए प्रसिद्ध है। 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों से ही एनएमडीसी बैलाडिला में लौह अयस्क का खनन कर रहा है। वर्तमान में, इसके पास 2,553 हेक्टेयर वन क्षेत्र में फैले पांच कार्यशील खनन पट्टे हैं। वर्ष 2015-16 में इसने रॉयल्टी के रूप में 577 करोड़ रुपए की कमाई की। जिलाधीश सौरभ कुमार कहते हैं, पिछले वर्ष कमाई 953 करोड़ रुपए थी। जिले में कई वर्षों से इतनी कमाई हो रही है।
लेकिन लाल रंग के खनिज की अमीरी से यहां की जनसंख्या के बड़े हिस्से को कुछ नहीं मिला है। बचेली से गुजरने वाली मुख्य सड़क पर ‘इंडियन कॉफ़ी हाउस’ लिखा एक साइनबोर्ड एनएमडीसी की टाउनशिप की ओर इंगित करता है, जहां अमीर लोग रहते हैं। ठीक दूसरी तरफ, कुछ किलोमीटर अन्दर, एक घड़ा पानी के लिए लोग अच्छी-खासी दूरी पैदल तय करते हैं।
बचेली में छितरी जनसंख्या वाले गांव पारापुर में पानी भरने के लिए अपने सिर पर घड़ा रखकर जाती औरतें एक आम दृश्य हैं। नंदी उनमें से एक हैं। हिंदी बोल सकने में असमर्थ होने पर वह हमारे साथ चल रहे स्थानीय व्यक्ति की मदद से इशारों में अपनी बात कहती हैं। वह और उनकी तरह कई और औरतें प्रतिदिन रोजमर्रा की जरूरतों के लिए कई किलोमीटर पैदल दूरी तय कर पानी लाती हैं।
दंतेवाड़ा में नल का साफ पानी केवल दो प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को ही उपलब्ध है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, क्षेत्र की 84 प्रतिशत परिवार हैंडपंप पर निर्भर है। लेकिन गांवों में हमने जितने भी हैंडपंप देखे, जिनमें से अधिकतर खराब थे। जहां हैंडपंप चल रहे हैं, वहां लोग पानी की गुणवत्ता को लेकर आशंकित हैं। उनको डर है कि पानी लौह खनिज से प्रदूषित हो सकता है। इसलिए नंदी और दूसरी महिलाएं पाइपलाइन से आने वाले जलस्रोतों के पानी पर निर्भर रहती हैं।
इलाज कोसों दूर
हम गैर-लाभकारी संस्था ग्रामोदय के कार्यालय में बैठे हैं, जो पिछले 13 वर्षों से दंतेवाड़ा में स्वास्थ्य के मुद्दों पर काम कर रही है। गौरी शंकर 10 अन्य लोगों के साथ यहां काम करते हैं। वह कहते हैं, “सुदूर बसे गांव स्वास्थ्य केन्द्रों से कटे हुए हैं।” बचेली में कामालुर और झेरका जैसे गांवों के लोग प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) पहुंचने के लिए 10 किलोमीटर से अधिक पैदल चलते हैं। कस्बे के पास बसे गांवों की स्थिति अपेक्षाकृत थोड़ी ठीक है, एनएमडीसी हॉस्पिटल पास ही है और स्वास्थ्य केंद्र 4-5 किलोमीटर के पैदल रास्ते पर है।
जिला अस्पताल में स्वास्थ्यकर्मी आशीष बोस आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी कमी की बात स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं, “जिला अस्पताल में एनस्थेसिया के लिए प्रशिक्षित डॉक्टर से लेकर क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की कमी जैसी कई चुनौतियां हैं।” पिछले साल स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा किए गए सर्वेक्षण में यह बात रेखांकित की गई है। दंतेवाड़ा की जनसंख्या 533,638 है, जिसमें से 82 प्रतिशत आबादी ग्रामीण हैं। इनके लिए यहां केवल 11 पीएचसी हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक 48,500 लोगों पर सिर्फ एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है। इन केंद्रों पर डॉक्टर मिल जाए और ठीक से इलाज हो सके, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
गांवों में बच्चों और महिलाओं के लिए स्वास्थ्य और पोषण व्यवस्था भी इतनी ही चुनौतीपूर्ण है। धुरली गांव में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ स्वास्थ्य मुद्दों पर काम करने वाली सीमा कुंजुम कहती हैं, “यहां आंगनवाड़ी केंद्र तो हैं, लेकिन कार्यकर्ताओं में पोषण की शिक्षा और पोषण की निगरानी को लेकर जागरुकता की कमी है।”
अपने इस अनुभव की आंकड़ों के साथ तुलना करने के लिए मैंने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा बच्चों पर किए गए रैपिड सर्वेक्षण पर नजर डाली। छत्तीसगढ़ में पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग 38 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कम वजन वाले हैं, जबकि 44 प्रतिशत का ठीक से विकास नहीं हो रहा है।
जहां घर हैं, वहां स्कूल नहीं
हम सुबह करीब 10 बजे शहर से ठीक बाहर रोंजे गांव में एक छोटे से स्कूल में रुके। सफ़ेद और नीली वर्दी में लड़के और लडकियां कक्षाओं के लिए इकठ्ठा हुए थे। कक्षा आठ में पढने वाली तारावती रोंजे में अपने दूर के रिश्तेदार के पास रहती है, ताकि वह स्कूल जा सके। उसके गांव में स्कूल नहीं है। वह कहती हैं, “पढने के लिए अधिकतर बच्चे हॉस्टल में रहते हैं।”
इन दिनों बस्तर में बच्चों का शहरों और बड़े गांवों के आसपास सरकार द्वारा स्थापित होस्टलों में रहकर पढ़ना जीवन का स्वीकार्य हिस्सा बन चुका है।
दूरदराज के गांवों में स्कूल बहुत कम हैं। लगभग 150 परिवारों वाले नेतापुर गांव की प्राथमिक शाला में अध्यापक त्रिवेन्द्र कुमार निर्मलकर कहते हैं, “जहां भवन हैं भी, वहां अध्यापकों न होना एक बड़ी चुनौती है।” इस गांव में साक्षरता की दर बहुत कम है, मात्र 12 प्रतिशत! स्कूल में दो अध्यापक और केवल 22 छात्र हैं।
इस इलाके में माध्यमिक स्कूल बहुत कम हैं। निर्मलकर कहते हैं, “आम तौर पर बच्चों को माध्यमिक स्कूल के लिए लगभग पांच किलोमीटर पैदल चलना पड़ता हैं।” दंतेवाड़ा में शिक्षा पर काम करने वाली संस्था बचपन बनाओ के सदस्य प्रणीत कहते हैं, “एक दूसरी समस्या यह है कि माध्यमिक स्कूल तक पहुंचने से पहले ही बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं।” इन स्कूलों में अधिकतर अध्यापक दूसरी जगहों के गैर-आदिवासी हैं। वे हिंदी में पढ़ाते हैं और बच्चों द्वारा बोली जाने वाली गोंडी और हलवी भाषाएं नहीं जानते हैं। यह पढ़ाई-लिखाई में बाधक है और बच्चों को समझने में बहुत परेशानी आती है। निर्मलकर सोचते हैं कि आदिवासी गांवों में लोगों के लिए शिक्षा दूर की कौड़ी है। उनके लिए आजीविका ज्यादा सख्त जरूरत है। वह कहते हैं, “जब बच्चे 10 या 11 साल के होते हैं, तब तक अपने परिवार की आजीविका में मदद के लिए जुट चुके होते हैं।”
सरकारी अधिकारियों और गैर-लाभकारी शिक्षा संस्थाओं से बातचीत में एक अक्सर सुनाई देती है, “पोटा केबिन” (पोर्टेबल केबिन)। ये वो स्थान हैं, जहां खाना मिलता है और शिक्षा दी जाती है। गोंडी भाषा में ‘पोटा’ का अर्थ है ‘पेट’। दंतेवाड़ा में वर्ष 2011 से ‘सुरक्षित आवास’ के रूप में इन केबिन की शुरुआत हुई। आम तौर पर बांस और लकड़ी से बने ये आवासीय विद्यालय पहली से आठवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों को शिक्षा उपलब्ध कराते हैं। प्रणीत कहते हैं, “अभी 17 ऐसे आवासीय विद्यालय हैं, जिनमें प्रत्येक में लगभग 500 सीट हैं।” बच्चों के लिए ये सुरक्षित जगहें दूरस्थ स्थानों पर बनाई गई हैं, जिससे बच्चों को घर छोड़ना पड़ता है।
एक बड़ी उम्मीद
निराश करने वाले आंकड़ों के बावजूद यहां के लोगों ने उम्मीद नहीं छोड़ी है। इन आदिवासी लोगों के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अपने जीवन और मृत्यु को भी बेहद खूबसूरती से सजाते हैं। शहरों में शमशान घाटों और सड़क किनारे कब्रिस्तानों में आदिवासी नेताओं और गणमान्य लोगों की समाधियों पर खूबसूरत भित्तिचित्र अंकित किये गए हैं। यह उनके जीवन की समृद्धि का प्रतीक है।
इस इलाके के लोग वर्षों तक यही समझते रहे कि उनकी जमीन के नीचे लाल रंग का खजाना किसी और का है: कभी राज्य का, कभी खनिज निगम का! वे अपने आप को अलग-थलग महसूस करते रहे, विकास की मार झेलते रहे और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। शायद यही बस्तर की नियति है।
हालांकि, सरकार ने संसाधनों पर लोगों के अधिकार को मान्यता दी है। इसके लिए संसद ने मार्च 2015 में केंद्रीय खनन कानून, खान और खनिज (विकास और विनियम) अधिनियम 1957 में संशोधन किया। इन संशोधनों में एक प्रावधान देश के सभी खनन कार्य वाले जिलों में एक गैर-लाभकारी ट्रस्ट, जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ), की स्थापना करना है।
डीएमएफ का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि खनन से होने वाले लाभों को क्षेत्र के लोगों के साथ साझा किया जा सके। इससे पोषण, स्वास्थ्य, साफ पानी, स्वच्छता और शिक्षा से जुड़ी समस्याएं दूर करने में मदद मिल सकती है। खनन कंपनियों को रॉयल्टी का एक हिस्सा डीएमएफ के लिए राज्य सरकार को देना होगा।
बस्तर के सुदूर क्षेत्रों में लोगों तक पहुंच बनाने का सरकार के पास यह महत्वपूर्ण अवसर है। लोगों के साथ विश्वास बहाल करने का भी यह एक बड़ा मौका है। मैं इस उम्मीद के साथ बस्तर छोड़ रही हूं कि अगली बार जबदंतेवाड़ा वापस आऊंगी, तो मुझसे पहला सवाल उस डर के बारे में नहीं पूछा जाएगा, जो यहां आने के नाम से पैदा होता है।
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