सूखे के निपटने के लिए 150 वर्षों के अनुभव के बाद भी भारत इस दिशा में कारगर कदम क्यों नहीं उठा पाया है?
जब आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, मानसून की एक साफ तस्वीर उभर चुकी होगी। जुलाई के दूसरे सप्ताह तक आधिकारिक तौर पर यह सामान्य था। लेकिन यह डर भी बना हुआ है कि बहुत से जिलों में कम बारिश होगी क्योंकि उत्तर और पूर्वोतर के राज्यों में बारिश का असामान्य वितरण हुआ है। इन सबके बीच एक सवाल यह भी बना हुआ है कि क्या कम बारिश से किसानों को घबराना चाहिए?
दरअसल, करीब 65 प्रतिशत भारतीय खेती बारिश पर निर्भर है और एक तिहाई हिस्सा हर साल सूखे की चपेट में रहता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 (मनरेगा) के तहत हुए जल संरक्षण के काम से किसानों को लाभ हुआ है। मनरेगा की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक, अप्रैल 2017 से जून 2018 तक जल संरक्षण से संबंधित 13 लाख काम हुए हैं। इसका मतलब हुआ कि भारत के 597,464 गांवों में कम से कम ऐसे दो निर्माण कार्य हुए हैं। ये निर्माण कार्य जल और मिट्टी संरक्षण, भूमिगत जल की रीचार्ज क्षमता बढ़ाने, सिंचाई और सूखे में मददगार हैं। करीब 70 प्रतिशत ऐसे निर्माण कार्य किसानों को सिंचाई में मदद कर रहे हैं। इनमें से आधे खेत तालाब हैं जो जल संचयन लिए बनाए गए हैं। ये खेत तालाब कम बारिश होने की स्थिति में किसानों को सीधा लाभ देते हैं। देश में सूखे से निपटने के लिए यह कारगर रणनीति बनकर उभर रही है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, 5 लाख खेत तालाब का सृजन किया गया है।
मनरेगा 12 साल से अस्तित्व में है। इस दौरान बड़ी संख्या में जल संरक्षण से जुड़े निर्माण कार्य हुए हैं। ये पहले से भूमिगत जल को रीचार्ज करने और वर्षा जल संचयन में अपनी भूमिका अदा कर रहे होंगे। 2005 से देश के हर गांव में ऐसे 46 ढांचागत निर्माण हुए हैं। इन सबके बावजूद मानसून में थोड़ी सी कमी व्यापक सूखे की वजह बनती है और इसका कृषि पर गहरा असर पड़ता है। यही वजह है कि जल संरक्षण से जुड़े तमाम कामों पर प्रश्नचिह्न लगते हैं।
ये सवाल किसी को भी परेशान कर सकते हैं। कायदे से हर गांव और हर किसान के पास कम बारिश की स्थिति में जल संरक्षण के इन निर्माणों के रूप में विकल्प है लेकिन भारत में सूखे का इतिहास दूसरी ही तस्वीर पेश करता है। 2014-17 के बीच भारत गंभीर सूखे की चपेट में आया और इसने 50 करोड़ लोगों को प्रभावित किया। इन सूखों से शहरी क्षेत्र भी नहीं बच पाए। चेन्नई, हैदराबाद और बेंगलुरू जैसे महानगरों में जल आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी जबकि कुछ शहरों में पानी की राशनिंग की नौबत आ गई। कुछ सालों में थोड़ी कब बारिश से भी भयंकर सूखे जैसे हालात पैदा हो रहे हैं। ऐसा तब है जब भारत के पास सूखे से निपटने का 150 वर्षों का अनुभव है। साल भर में 750 एमएम से 1125 एमएम तक बारिश प्राप्त करने वाले इलाके भी सूखे की स्थिति से गुजर रहे हैं।
जल संचयन की मौजूदा व्यवस्था को देखते हुए देश को कम बारिश से चिंतित नहीं होना चाहिए। अगर कोई क्षेत्र साल में 100 एमएम बारिश भी पा लेता है तो उससे एक हेक्टेयर में 10 लाख लीटर पानी सिंचाई में उपयोग किया जा सकता है। इस पानी से 15 लीटर प्रतिदिन के हिसाब से 182 लोगों की पीने और खाना बनाने की व्यवस्था हो सकती है।
लेकिन इसे फलीभूत करने के लिए नीति निर्माताओं को पहले यह समझना होगा कि सूखा प्रबंधन और सूखा राहत में अंतर है। अभी हमारा ध्यान सिर्फ सूखा राहत पर है, सूखे से निपटने के लिए दीर्घकालिक उपायों पर हम गौर नहीं कर रहे हैं। ऐसा करने के लिए जरूरी है कि लाखों जल संचयन संरचनाओं को दुरुस्त किया जाए और स्थानीय समुदायों को इसकी जिम्मेदारी प्रदान की जाए। सूखे से निपटने के लिए यह रणनीति उस समय से अपनाई जा रही है, जब सरकारें भी नहीं थीं। इसकी सफलता पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।
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