आदिवासियों की जमीन से जुड़े कानूनों को कमजोर करने के दौर में द्रौपदी मुर्मू इस वंचित समुदाय की संरक्षक के तौर पर उभरी हैं
झारखंड में आदिवासियों समुदायों और सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो रही है। पत्थरगड़ी की घटनाएं इस टकराव के केंद्र में हैं। जानकारों का कहना है कि सरकार की नजर आदिवासियों की पुश्तैनी जमीनों पर है। यही वजह है कि सरकार ने सीएनटी और एसपीटी कानून में संशोधन की कोशिशें कीं ताकि जमीन लेने की प्रक्रिया को आसान बनाया जा सके लेकिन सरकार की इन कोशिशों को तब झटका लगा जब राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने इन विवादित बिलों को लौटा दिया। आदिवासी समूहों से व्यापक बातचीत के बाद मुर्मू ने यह फैसला लिया था। बहरहाल बिलों में संशोधन तो ठंडे बस्ते में चला गया है लेकिन आदिवासियों के मन में तमाम तरह की शंकाएं घर कर रही है। डाउन टू अर्थ ने पिछले साल अगस्त में सरकार की आदिवासी विरोधी कोशिशों को उजागर किया था और राज्यपाल मूर्मू से इस संबंध में बात की थी।
द्रौपदी मुर्मू झारखंड में निर्वाचित सरकार से ज्यादा खबरों में हैं। इसकी वजह सिर्फ उनका पहली आदिवासी महिला राज्यपाल होना नहीं बल्कि राज्य में तेजी से बदल रही परिस्थितियां हैं, जिनसे मुख्यमंत्री रघुवर दास का राज्य के आदिवासी समुदायों से सीधा टकराव हो रहा है।
मुर्मू की तरफ सबका ध्यान उस वक्त गया जब सरकार ने पिछले साल नवंबर में दो बिल भेजे। शताब्दी पुराने छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट (सीएनटी) और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (एसपीटी) में संसोधन कर राज्यपाल से स्वीकृति मांगी गई थी। बिलों में प्रस्तावित संशोधनों में बिना मालिकाना हक बदले आदिवासियों को जमीन के व्यावयासिक इस्तेमाल का अधिकार देने की बात की गई है। संशोधनों में उन क्षेत्रों का भी जिक्र था जिसके लिए सरकार आदिवासियों से लीज पर जमीन ले सकती है। संशोधनों के प्रस्ताव के साथ ही इसका विरोध होने लगा। करीब 8 महीने तक बिल का विरोध जारी रहा। इसी बीच मुर्मू ने बिल का विरोध करने वालों से बात शुरू की। उन्होंने हाल में डाउन टू अर्थ को दिए साक्षात्कार में स्वीकार किया कि वह झारखंड और राज्य के बाहर के विभिन्न समूहों और लोगों से 192 बैठकें कर चुकी हैं। जून के अंत में उन्होंने दोनों विवादास्पद बिल लौटे दिए। सत्ता के गलियारों में उनके इस कदम से हलचल मच गई। सरकार पर भी दबाव बना कि वह संशोधनों पर फिर से विचार करे। आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने के उनके इस कदम का लोग स्वागत कर रहे हैं।
जब यह सब हो रहा था, ठीक उसी वक्त राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के रूप में उनका नाम उछलने पर राष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चा होने लगी। हालांकि बाद में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में बिहार के पूर्व गवर्नर रामनाथ कोविंद का चयन किया गया, फिर भी मुर्मू ने ध्यान खींचा। अखबारों और टीवी चैनलों पर उनके बारे में काफी बातें हुईं।
झारखंड की राजनीति और पर्यावरणविदों के बीच उनके बारे में सबसे ज्यादा बातें हो रही हैं। बिल से उनकी असहमति बीजेपी विधायकों के लिए भी राहत लेकर आया क्योंकि जिस पैमाने पर विरोध हो रहा था, उसे देखते हुए उन्हें डर था कि अगले चुनाव में यह उनके लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है। मुर्मू का मानना था कि संशोधनों पर फिर से विचार होना चाहिए। राज्य सरकार को उम्मीद नहीं थी कि वह बिल से असहमति जताएंगी। लेकिन मुर्मू का यह कदम दो कारणों से उम्मीद के मुताबिक है।
पहला है उनका मूल। वह आदिवासी होने के नाते विरोध के कारणों को आसानी से समझ सकती हैं जिसने राज्य को हिलाकर रख दिया। दूसरा कारण है उन संगठनों की संख्या जिन्होंने इस मुद्दे पर मुर्मू से मुलाकात कर संसोधनों पर रोक लगाने की मांग की।
रांची के लेखक बिनोद कुमार के अनुसार, राज्य में आदिवासी आबादी कम हो रही है। 1901 में राज्य की कुल आबादी में 55 से 60 प्रतिशत हिस्सेदारी आदिवासियों की थी। अब यह सिर्फ 26 प्रतिशत रह गई है। आदिवासियों का घटता प्रतिशत बताता है कि झारखंड में आदिवासी पहचान खतरे में है। ऐसे माहौल में रघुवर दास ने झारखंड इन्वेस्टर्स समिट में निवेशकों को लुभाने के लिए कानून में संशोधन किए। मुख्यमंत्री के इस कदम ने शांति से जीवनयापन कर रहे लोगों के मन में संदेह पैदा कर दिया। कुमार का कहना है कि संशोधन सिर्फ प्राइवेट कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किए गए हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का कहना है कि अगर बीजेपी ने बिल में परिवर्तन खासकर सीएनटी एक्ट की धारा 49 में बदलाव की कोशिश की तो फिर से विरोध शुरू होगा।
“जमीन चली गई तो आदिवासी जिंदा नहीं बचेंगे”
आदिवासियों के मुद्दों पर डाउन टू अर्थ ने द्रौपदी मुर्मू से रांची स्थित उनके आधिकारिक आवास पर बात की आदिवासियों की हितों की रक्षा के लिए झारखंड को अलग राज्य बनाया गया था। क्या आपको लगता है कि ऐसा हुआ है? |
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