कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं। भारत में कृषि छोड़ने वाले लोगों के लिए विकल्प की सख्त दरकार है।
जिस वक्त आप डाउन टू अर्थ का यह अंक पढ़ रहे होंगे, केंद्र सरकार “किसान हितैषी” बजट पेश कर चुकी होगी। चुनाव के मुहाने पर खड़ी सरकार देश की आर्थिक स्थिति को देखते हुए कम से कम इतना तो कर ही सकती है। लेकिन इसी के साथ ग्रामीण क्षेत्र के पिछड़ेपन से निपटने की चुनौती गंभीर हो जाती है। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था उत्पादन और क्षेत्रफल के हिसाब से शहरी अर्थव्यवस्था के लगभग बराबर है। इस वक्त यह ढांचागत बदलाव के दौर से गुजर रही है। बजटीय प्रावधानों के जरिए इसका रंग-रोगन समस्या को और गंभीर बनाएगा।
यह सर्वविदित है कि भारत गंभीर कृषि संकट से गुजर रहा है और इस संकट में ही वास्तविक संदेश छिपे हैं। किसान उत्पादन लागत बढ़ने के बावजूद लगातार कम आय अर्जित कर रहे हैं। कृषि की आकर्षक विकास दर के बावजूद किसान ग्रामीण क्षेत्रों में नौकरी नहीं हासिल कर पा रहे हैं। कृषि सबसे अधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र है लेकिन काम देने की इसकी क्षमता कम होती जा रही है। अपने जीवनयापन के लिए अन्य विकल्पों की तलाश में अधिक से अधिक लोग खेती छोड़ रहे हैं। लेकिन ये विकल्प भी नौकरी चाहने वाले बहुतायत लोगों की उम्मीद पूरी करने में असमर्थ हैं।
हाल ही में नीति आयोग के अर्थशास्त्री रमेश चंद, एसके श्रीवास्तव और जसपाल सिंह ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव और उसके रोजगार सृजन के प्रभाव पर चर्चा पत्र जारी किया है। इसमें तमाम सकारात्मक आर्थिक संकेतकों के बावजूद ग्रामीण रोजगार की स्थिति का सटीक मूल्यांकन है। चर्चा पत्र के अनुसार, 2004-05 की कीमतों के मुताबिक 1970-71 और 2011-12 के दौरान भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विस्तार 3,199 बिलियन रुपए से 21,107 बिलियन रुपए हो गया है। विकास की यह दर सात गुणा है। अब इस विकास की तुलना रोजगार के सृजन से करें। रोजगार का विकास 191 मिलियन से 336 मिलियन ही हुआ है।
यानी इस अवधि में दोगुने से भी कम। अन्य जानकारियां भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कम विकास की ओर इशारा करती हैं। पिछले चार दशकों में कृषि क्षेत्र से श्रमिक कम हुए हैं। ऐसा पहली बार हुआ है। नीति आयोग के पत्र के अनुसार, 1991 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण से पहले 2.16 प्रतिशत की दर से ग्रामीण रोजगार दर्ज किया गया था। आर्थिक सुधारों के बाद अथवा 1990 के दशक के शुरुआत में यह दर घटकर 1.45 प्रतिशत हो गई। एक समय में तो यह नकारात्मक हो गई। यह वह दौर था जब देश आर्थिक बूम का गवाह बन रहा था। पत्र कहता है कि उत्पादन के मुकाबले रोजगार कम गति से बढ़ा और 2004-05 के बाद उच्च उत्पादन के वक्त यह बेहद कम हो गया।
मांग के अनुसार नौकरियां सृजित करने की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की क्षमता इस वक्त ऋणात्मक है। इसका मतलब है कि गैर कृषि विकल्प खेती छोड़ने वाले लोगों को नौकरी मुहैया कराने में अक्षम है। ऐसी स्थिति में लोग रोजगार के लिए कहां जाएं?
2011-12 में 840 लाख कृषि श्रमिकों को गैर कृषि क्षेत्रों में भेजने की जरूरत थी। इसके लिए जरूरी था कि गैर कृषि क्षेत्रों में 70 प्रतिशत की वृद्धि हो। आमतौर पर कृषि क्षेत्र छोड़ने वाले उत्पादन, निर्माण और शहरी क्षेत्रों के अन्य सेवा क्षेत्रों का रुख करते हैं। लेकिन अब ये क्षेत्र भी मंदी का शिकार हैं, और जैसा पहले भी कहा गया है कि ये क्षेत्र कृषि छोड़ने वाले सभी लोगों को खपाने में असमर्थ हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि बड़ी संख्या में कृषि छोड़ने वाले लोगों को रोजगार कैसे मुहैया कराया जाए। इस चुनौती से निपटने के लिए केवल एक किसान हितैषी बजट पर्याप्त नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि गहन आत्म विश्लेषण कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जांच पड़ताल की जाए और सबसे पहले इस तथ्य को स्वीकार किया जाए कि यह संकट में है। सरकार वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम में चमकदार भारत को बेचने में जुट गई है। लेकिन यह भी याद रखने की जरूरत है कि भ्रम की स्थिति में अक्सर चुनावों में मुंह की खानी पड़ती है।
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