इस बात के प्रमाण हैं कि यह रसायन जहरीला है फिर भी सरकारें इस पर प्रतिबंध लगाने से क्यों हिचक रही हैं? आखिर हम क्यों नहीं तय कर पा रहे हैं कि क्या सही है, क्या गलत?
एक रसायन पर इन दिनों दुनिया भर में बहस छिड़ी हुई है। न्यूजीलैंड के कानून निर्माता इस पर प्रतिबंध चाहते हैं, दक्षिण अफ्रीका के राजनेता पूछ रहे हैं कि अब तक इसका इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है, श्रीलंका की संसद में इस पर बहस हो रही है। पिछले साल यूरोप में तीखी बहस छिड़ी कि वह इसका इस्तेमाल जारी रखने के लिए लाइसेंस रिन्यू करे या नहीं। घबराहट के बीच लाइसेंस को रिन्यू तो कर दिया गया लेकिन उसका दायरा सीमित कर दिया गया। नवंबर 2017 में यूरोप में इसका प्रयोग 5 साल तक के लिए बढ़ा दिया गया। लेकिन अब भी यह जेर-ए-बहस मुद्दा है।
बहस की जा रही है कि यह रसायन इंसानों के लिए जहरीला है और कैंसर के लिए उत्तरदायी है। इसने नॉन हॉजकिन लिंफोमा और किडनी की बीमारियों को काफी बढ़ा दिया है। यह भी कहा जा रहा है कि दुनियाभर से तितलियों और मधुमक्खियों के विलुप्त होने के पीछे यही रसायन है।
दूसरी औद्योगिक खोजों की तरह रसायन भी अचंभे की वस्तु है। जो किसान अपने खेतों में इसका प्रयोग करते हैं, वे इसके आदी हो गए हैं। हर्बीसाइड (तृणनाशक) के तौर पर इसका इस्तेमाल किया जाता है। किसान हाथ से कीटों को हटाने के बजाय बुवाई से पहले इस रसायन से छिड़काव कर देते हैं ताकि खेत साफ हो सकें। खड़ी फसलों और कटाई से पहले भी इस तरह का छिड़काव किया जाता है।
फसलों के आनुवांशिक परिवर्तन (जेनेटिक मॉडिफिकेशन) के कारण भी इस रसायन का प्रयोग बढ़ा है। फसलें इस तरह डिजाइन की गई हैं कि वे इस रसायन के प्रति ही प्रतिरोधी होती हैं, इसलिए किसान बेहिचक इसका इस्तेमाल करते हैं।
यह हैरतअंगेज चीज अमेरिका का बड़ी कृषि रसायन कंपनी मोनसेंटो का ग्लाइफोसेट है। इसे राउंडअप के नाम से भी जाना जाता है।
इस बात के प्रमाण हैं कि यह रसायन जहरीला है फिर भी सरकारें इस पर प्रतिबंध लगाने से क्यों हिचक रही हैं? अब भी हंगामा क्यों जारी है? आखिर हम क्यों नहीं तय कर पा रहे हैं कि क्या सही है, क्या गलत? क्या यह सिर्फ कारपोरेट ताकत का मसला है या विज्ञान की नाकामी? क्या यह सिर्फ जहर के प्रमाण की कमी है या विज्ञान और वैज्ञानिकों की जटिलता भी है? “वाइटवॉश: द स्टोरी ऑफ ए वीड किलर, कैंसर एंड करप्शन ऑफ साइंस” पुस्तक में अमेरिका के पत्रकार कैरी गिलियम ने बताया है कि कैसे विज्ञान ने इस रसायन पर पर्दा डालकर इसका बचाव किया है।
यूरोपीय यूनियन का ही उदाहरण लीजिए। माना जाता है कि यह पर्यावरण प्रबंधन को वैश्विक नेतृत्व प्रदान करता है। फिर इसने लाइसेंस क्यों रिन्यू किया? यह तब हुआ तब 2015 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की कैंसर पर शोध करने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने बताया कि जानवरों से इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिले हैं कि रसायन से कैंसर होता है।
2016 में जब 15 साल का लाइसेंस खत्म हो गया तो यूरोपीय यूनियन को आगे की रणनीति तय करनी थी। कैंसर विशेषज्ञ और सिविल सोसायटी रसायन के खिलाफ थे। संसद ने कहा कि इसके इस्तेमाल की सीमा होनी चाहिए। मई 2016 में 48 सांसदों को पेशाब के नमूनों की जांच से पता चला कि उसमें ग्लाइफोसेट बहुत ज्यादा है। यह स्वीकार्य सीमा से 17 गुणा अधिक था।
जर्मनी की फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ रिस्क मैनेजमेंट और द यूरोपियन फूड सेफ्टी अथॉरिटी ने पेशाब की जांच कर पाया कि हर्बीसाइड तेजी से मर गए हैं और जैव संचयन के कोई लक्षण नहीं हैं। इसलिए डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन कैरी गिलियन बताते हैं कि यह निष्कर्ष यूएस एनवायरमेंट प्रोक्टेक्शन एजेंसी (यूएसईपीए) द्वारा उपलब्ध कराए गए सबूतों पर बहुत हद तक आश्रित था।
यूएसईपीए ने 2001 में ग्लाइफोसेट के प्रभाव और ट्यूमर का स्विस एलबीनो चूहों पर हुए अध्ययन को खारिज कर दिया था। इन एजेंसियों ने उन आंकड़ों का इस्तेमाल किया जो ग्लाइफोसेट टास्क फोर्स की और से उपलब्ध कराए गए थे। खुद एजेंसियों ने यह स्वीकार किया है। यह टास्क फोर्स रसायन कंपनियों का संघ है जिसमें मोनसेंटो भी शामिल है। इसकी इच्छा थी कि यूरोपीय यूनियन में पंजीकरण रिन्यू हो जाए।
1983 में चूहों के कुछ समूहों को ग्लाइफोसेट युक्त भोजन दिया गया था। तब यूएसईपीए ने रेनल ट्यूबुलर एडेनोमास यानी एक दुर्लभ किडनी ट्यूमर की बड़ी घटनाओं को स्वीकार किया था। इसके बाद अध्ययन को नष्ट करने के लिए जो किया जा सकता था, वह सब किया गया। एक अन्य अध्ययन के जरिए यह बताया गया कि चूहों के समूह में एक छोटा किडनी ट्यूमर ही मिला है। इसका आशय था कि ग्लाइफोसेट इसका कारण नहीं बल्कि यह प्राकृतिक था।
अध्ययनों और दूसरे माध्यमों से यह बताने की कोशिश की गई कि रसायन में कोई समस्या नहीं है। कैरी गिलियम बताते हैं कि कैसे सभी मामलों में बार-बार विज्ञान को तोड़ा मरोड़ा गया और वैज्ञानिकों को खरीद लिया गया। साथ ही संस्थानों की आवाजों को चुप करा दिया गया। तथाकथित “विज्ञान” के सभी मामलों के पीछे मोनसेंटो ही था।
21 मार्च 2018 को यूरोपीय यूनियन ने रसायन की दो बड़ी कंपनियों-जर्मनी की बेयर और अमेरिकी की मोनसेंटो के विलय की मंजूरी दे दी। इससे स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि आखिर क्यों जर्मनी ने यूरोपीय यूनियन में ग्लाइफोसेट के पक्ष में मतदान किया था। लेकिन विवाद आसानी से थमने वाला नहीं है।
और यह थमना भी नहीं चाहिए। विज्ञान को हराया जा सकता है लेकिन अस्थायी तौर पर। सच सामने आ ही जाता है। लेकिन समस्या यह है कि यह तब होगा जब बहुत से लोग इस रसायन की जद में आ चुके होंगे और अपनी जान गंवा चुके होंगे। यह सब इसलिए होगा क्योंकि विज्ञान गलत और शक्तिशाली लोगों के हाथ में है और आसानी से इसका गलत इस्तेमाल हो सकता है।
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