‘इंडियन साइंस ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया’ नामक एक नई पुस्तक में भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों को छोटी-छोटी कहानियों के रूप में पेश किया गया है।
कई बार प्रश्न उठते हैं कि भारत में विज्ञान ने आम लोगों के लिए क्या किया है और देश के विकास में इसकी कैसी भूमिका रही है। आजादी के बाद भारत ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल की हैं, जो जीवन को प्रतिदिन प्रभावित करती हैं, पर इनके बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है। ज्यादातर चर्चाएं अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा तक ही सीमित रही हैं।
सूरत को हीरा कटाई के प्रमुख औद्योगिक केंद्र के रूप में स्थापित करने वाली लेजर मशीन से लेकर पीवीसी (पॉलिविनाइल क्लोराइड) के उपयोग से रक्त के रखरखाव को आसान बनाने, लोकतंत्र की शुचिता बनाए रखने वाली अमिट स्याही के निर्माण, प्लांट टिश्यू कल्चर तकनीक, जेनेरिक दवाओं के निर्माण और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में स्थापित होने तक भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्त है।
‘इंडियन साइंस ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया’ नामक एक नई पुस्तक में भारत की इन वैज्ञानिक उपलब्धियों को छोटी-छोटी कहानियों के रूप में पेश किया गया है। देश के वैज्ञानिकों के सबसे बड़े संगठन भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (इन्सा) द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का नई दिल्ली में लोकार्पण किया गया। पुस्तक का संपादन भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान, पुणे से जुड़े प्रो. एल.एस. शशिधर ने किया है। पुस्तक में जिन विज्ञान लेखकों ने अपना योगदान दिया है, वे हैं अदिता जोशी, दिनेश सी. शर्मा, कविता तिवारी और निसी नेविल ।
पुस्तक में विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित उपलब्धियों की 11 कहानियां हैं, जो बताती हैं कि स्वतंत्रता के बाद भारत एक तरफ गरीबी, खाद्यान्न सुरक्षा और बाहरी आक्रमण की चुनौतियों से जूझते हुए शासन करना सीख रहा था तो दूसरी ओर वैज्ञानिक प्रगति के पथ पर भी लगातार बढ़ रहा था। हर वैज्ञानिक उपलब्धि के पीछे वैज्ञानिक नवाचार और उद्यम की कई छोटी-बड़ी कहानियां हैं, जो पिछले 70 वर्षों में भारतीय विज्ञान की प्रगति को व्यक्त करती हैं।
इन्सा के अध्यक्ष प्रो. अजय कुमार सूद के अनुसार “इस पुस्तक में पेश की गई कहानियां बदलाव की यात्रा से जुड़े मील के पत्थरों में शामिल रही हैं। पुस्तक में उन कहानियों को शामिल किया गया है, जो बहुत लोगों तक नहीं पहुंच सकी हैं। किस्सागोई के अंदाज में इन कहानियों को लिखा गया है, जिससे पुस्तक की रोचकता बढ़ जाती है। इन कहानियों में कोई बड़े नायक नहीं हैं। विपरीत हालातों में मूलभूत तथा प्रयुक्त विज्ञान में शोध और विज्ञान एवं गणितीय शिक्षा का अनुसरण करने की हमारी सामाजिक जिजीविषा के कारण ऐसा संभव हो सका है।”
पुस्तक में शामिल कहानियां भारत की बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियों के बारे में नहीं हैं और न ही वे किसी भी शानदार वैज्ञानिक सफलता का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनमें से ज्यादातर कहानियां उन्नतशील नवाचार, स्वदेशीकरण, प्रौद्योगिकी विकास और उनके अनुप्रयोगों से जुड़ी हैं। देश की प्रगति, समाज, अर्थव्यवस्था और जीवन की गुणवत्ता में सुधार में विज्ञान के योगदान से जुड़े कई महत्वपूर्ण विवरण इस पुस्तक में देखने को मिल सकते हैं।
वैज्ञानिक विकास के क्रम में कुछ नवाचारों ने भी बड़ी व्यावसायिक सफलताओं को जन्म दिया है। गुजरात के दो नवाचारी उद्यमियों अरविंद पटेल और धीरजलाल कोटाड़िया द्वारा बनाई गई लेजर-आधारित हीरा कटाई मशीन का देसी संस्करण इसका उदाहरण है। भारत में यह मशीन उस समय बनी, जब इसे आयात करने का खर्च करीब 60-70 लाख रुपए था और कारोबारियों के लिए इतना पैसा खर्च करना आसान नहीं था। लेजर मशीन के आने के बाद अब सूरत के परंपरागत हीरा कटाई और पॉलिशिंग कारोबार का नक्शा बदल गया है। हीरे की कटाई और पॉलिशिंग के कारोबार में आज भारत की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत से अधिक है। वर्ष 2016 में पॉलिश और कटाई किए गए हीरे के निर्यात से भारत ने 16.91 अरब अमेरिकी डॉलर अर्जित किए थे, जो देश से होने वाले रत्नों और आभूषण निर्यात का 52 प्रतिशत से अधिक था।
इसी तरह शांता बायोटेक्नीक की कहानी भी है, जिसने हैदराबाद स्थित कोशकीय एवं आण्विक जीवविज्ञान केंद्र जैसे सार्वजनिक शोध संस्थानों के सक्रिय सहयोग एवं समर्थन से भारत में पुनर्संयोजक डीएनए प्रौद्योगिकी का नेतृत्व किया। वर्ष 1997 में इस कंपनी द्वारा 50 रुपये की किफायती लागत में हेपेटाइटिस-बी वैक्सीन बेचना परिवर्तनकारी साबित हुआ, जब अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसके लिए 750-850 रुपए पर तक वसूल रही थीं।
पुस्तक के संपादक प्रो. शशिधर के मुताबिक “यह पुस्तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित इस तरह की अन्य उपलब्धियों का प्रतिनिधित्व करती है। शिक्षण से जुड़े लोगों में मूलभूत विज्ञान और उसके अनुप्रयोगों के बारे में समझ विकसित करने, विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों में शोध वातावरण बनाने और विज्ञान को शैक्षिक विषय के रूप में लेने से झिझकने वाले लोगों को इस पुस्तक से जरूर प्रेरण मिलेगी।”
दूध उत्पादन और वितरण में क्रांतिकारी बदलाव करने वाले अमूल, आईटी क्रांति, जेनेरिक दवा उद्योग और बासमती पर वैश्विक पेटेंट के संघर्ष में डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक के जरिये भारत की विजयगाथा के बारे में तो बहुत से लोगों को पता हैं। पर, इनके पीछे छिपे वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी के योगदान के बारे में कम ही लोग जानते हैं।
वर्ष 1980 में केरल के श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा रक्त के रखरखाव के लिए विकसित किए गए बैग जैसी कई अपेक्षाकृत अज्ञात उपलब्धियों की जानकारी भी इस पुस्तक में दी गई है। रक्त के बैग के आगमन से पहले, रक्त को बोतलों में रखा जाता था। इससे बोतल टूटने के कारण रक्त के असुरक्षित होने और संक्रमण की आशंका रहती थी। इस रक्त बैग का उत्पादन और विपणन करने वाली पेनपोल नामक कंपनी की वैश्विक उत्पादन में आज 38 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
इसी तरह, तटीय इलाकों में झींगा पालन करने वाले किसानों के लिए चेन्नई स्थित केंद्रीय खारा जलजीव पालन अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गई एक डायग्नोस्टिक किट वरदान साबित हुई है। इस किट की मदद से रोगजनक वायरसों की पहचान आसान हो गई, जिसने तमिलनाडु और आसपास के राज्यों में झींगा उत्पादन उद्योग को एक नया जीवन दिया है।
(इंडिया साइंस वायर)
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