Water

वैध-अवैध के बीच की कहानी

हम जानते हैं कि प्रदूषण कहां है। हम इसे देख सकते हैं लेकिन साबित नहीं कर सकते। नमूनों के लेने की प्रक्रिया में समस्या हो सकती है, जांच के तरीकों में भी समस्या हो सकती है। 

 
By Sunita Narain
Published: Thursday 15 February 2018

सोरित / सीएसई

मैं एक अधूरी कहानी लिख रही हूं। लेकिन मैं चाहती हूं आप मेरा साथ दें ताकि मैं और सीख सकूं। शिव विहार दिल्ली के पूर्वी हिस्से में है जहां औद्योगिक गतिविधियां चल रही हैं। ये गतिविधियां भूमि के आधिकारिक उपयोग के खिलाफ हैं। कुछ महीने पहले एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र ने खुलासा किया था कि इस क्षेत्र में कैंसर के बड़े मामले सामने आए हैं। जांच में पाया गया कि इसके लिए बड़े पैमाने पर चल रही छोटी औद्योगिक इकाइयां जिम्मेदार हैं जो जींस की डाइंग से जुड़ी हैं। इससे पानी नीला हो गया है। इस खबर पर दिल्ली उच्च न्यायालय का ध्यान गया। मुख्य न्यायाधीश इसे स्वत: संज्ञान लिया और यह मामला अभी न्यायालय में चल रहा है।

जांच के मुद्दे इस प्रकार हैं। पहला, इस उद्योग को ऐसी कॉलोनी में चलने के लिए कौन उत्तरदायी है, जहां इस पर सख्त पाबंदी है। न्यायालय ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो को कहा कि वह प्रत्यक्षदर्शियों से उन अधिकारियों का पता लगाए जिन्होंने ऐसा होने दिया। दूसरा, पीड़ितों को स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए क्या किया जा सकता है। दिल्ली राज्य विविध सेवा प्राधिकरण को अन्य एजेंसियों के साथ काम कर इसे सुनिश्चित करने को कहा गया। तीसरा, प्रदूषित भूमिगत जल को साफ करने के लिए क्या किया जा सकता है। न्यायालय ने मुझसे इस संबंध में समाधान तलाशने में मदद करने को कहा।

इससे पहले कि हम समाधान सुझाएं, हमारे सामने मुश्किल सवाल थे। मसलन प्रदूषण की स्थिति क्या और यह किस हद तक खतरनाक है। इस सवाल का उत्तर मिलने के बाद ही सुधार की योजना बन सकती है। जल अधिनियम 1974 के मुताबिक, केवल प्रमाणित एजेंसियां ही नमूने एकत्र कर सकती हैं और केवल प्रमाणित प्रयोगशालाएं ही नमूनों में प्रदूषण की जांच कर सकती हैं। इस मामले में दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) ने उसके द्वारा प्रमाणित “थर्ड पार्टी” एजेंसी को पानी के नमूने लेने और उसका परीक्षण करने को अधिकृत किया। जांच रिपोर्ट से पता चला कि क्षेत्र में गंदगी ही नहीं है। जांचे गए 42 नमूनों नतीजों ने बताया कि प्रदूषण नगण्य है और प्रदूषणकारी तत्व नहीं पाए गए हैं। इसके बाद मैंने अधिक जानकारी के लिए परीक्षण के क्रोमेटोग्राम्स की जानकारी मांगी। जिस समय यह लेख छपने के लिए प्रेस में गया होगा, तब क्रोमेटोग्राम्स को भेज दिया गया होगा। इससे गड़बड़ियां पता चलती हैं लेकिन अब भी किसी नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है। मैंने और जानकारियां मांगी हैं। जैसा कि मैंने कहा, यह कहानी अभी प्रगति पर है। जैसे ही मुझे रिपोर्टों से कुछ पता चलेगा मैं उससे आपको अवगत कराऊंगी।

मुद्दे का सार यह है कि ऐसे कई मामलों में हम जानते हैं कि प्रदूषण कहां है। हम इसे देख सकते हैं लेकिन साबित नहीं कर सकते। नमूनों के लेने की प्रक्रिया में समस्या हो सकती है, जांच के तरीकों में भी समस्या हो सकती है, या समस्या यह भी हो सकती है कि जो परीक्षण किए जाते हैं उनमें पर्याप्त शुद्धता या सावधानी नहीं होती। समस्या यह भी हो सकती है कि ऐसा परीक्षण करने वाली प्रयोगशालाएं बेहद कम हैं। अच्छी गुणवत्ता और कठोर फारेंसिक साइंस के बिना कोई सबूत नहीं मिलेगा और न ही अपराध सिद्ध हो पाएगा। यह केवल शिव विहार के प्रदूषण की ही कहानी नहीं बल्कि देश में मौजूद तमाम शिव विहारों की है।

ऐसे में सवाल उठता है कि शिव विहार में गंदगी फैलने की शुरुआत कैसे हुई। वे कौन सी सांगठनिक और कानूनी असफलताएं हैं जिससे ऐसे हालात पैदा हुए। दरअसल शिव विहार दिल्ली के मास्टरप्लान 2021 के तहत अवैध या अनियमित कॉलोनी के अंतर्गत आता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह अनियोजित क्षेत्र है। लेकिन इसका भूमि उपयोग आवासीय है। इसलिए घरेलू उद्योग के अलावा अन्य औद्योगिक गतिविधियां यहां स्वीकार्य नहीं हैं।  

2004 में उच्चतम न्यायालय ने अस्वीकार्य औद्योगिक गतिविधियों को ऐसे अनियमित क्षेत्रों में बंद करने का आदेश दिया था। आदेश में विस्तार से बताया गया था कि पानी और बिजली के कनेक्शन काट दिए जाएं और अगर अवैध गतिविधियां चालू रहती हैं तो सील कर दिया जाएगा। कपड़ा डाइंग उद्योग अस्वीकार्य गतिविधि है। इसे बंद हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

मास्टरप्लान 2021 में इन दिशानिर्देशों पर जोर दिया गया था। सबसे पहले इन्हें 2007 में जारी किया गया और 2008 व 2009 में इन्हें संशोधित किया गया। इसमें उन सभी घरेलू उद्योगों की सूची है जो आवासीय क्षेत्रों में स्वीकार्य हैं। इस लिस्ट में कपड़ा डाइंग शामिल नहीं है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि कोई नहीं जानता कि स्वीकार्य को कौन नियंत्रित करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि अस्वीकार्य फलने-फूलने न पाए। डीपीसीसी का भी मानना है कि औद्योगिक गतिविधियां केवल अधिकृत क्षेत्रों में ही स्वीकार्य हैं, अगर यह कहीं बाहर चल रही हैं तो वह अवैध है, भले ही वह प्रदूषण फैलाए या नहीं। इसे देखने का काम भूमि के स्वामित्व वाली एजेंसी का है। इस मामले में नगरपालिका को इसे बंद करना चाहिए। हालांकि अगर नगरपालिका दुरुपयोग के कारण इसे बंद भी करती है तो न्यायालय में जुर्माना महज 5,000 रुपए ही लगेगा। यानी पैसा दो और छूट जाओ। इस तरह के उद्योग प्रदूषण न फैलाएं, यह देखने को लिए कोई नियम नहीं है।

सबसे गंभीर बात यह है कि अगर अवैध गतिविधियां चालू रहती हैं, ये फलती-फूलती और इनका विस्तार होता है तो वैध क्षेत्रों में प्रदूषण को कम करने के लिए हुए उपायों के नतीजे सिफर ही रहते हैं। शिव विहार का यह मामला बहुत से अहम और जटिल सवालों से रूबरू कराता है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि और शिव विहार नहीं होंगे? या फिर प्रदूषण का कारोबार बेरोकटोक चलता रहेगा? इस मामले के नतीजों से यह पता चलेगा और मैं आपको इससे सूचित करती रहूंगी।  

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