सरकार अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप देने के लिए जितना काम करती है, परिस्थितियां लोगों को गैरकानूनी और अनौपचारिक व्यापार अपनाने को उतना मजबूर करती हैं
मैंने कुछ पखवाड़े पहले पूछा था कि क्या भारत जैसे देश आर्थिक विकास और स्थिरता के लिए पारंपरिक रास्ता अपना सकते हैं या हमें नए सिरे से काम करना होगा? मैंने यह भी कहा था कि इस अलग किस्म के विकास की भूख बहुत कम है लेकिन इसकी आवश्यकता अवश्य है।
उदाहरण के लिए कृषि संकट को लें, जो आज हमारे सिर पर आ चुका है। एक बार के लिए ही सही, किसान का चेहरा समाचार में है। यह स्पष्ट है कि सरकारों (वर्तमान एवं पूर्व) ने जो भी किया है, वह बेअसर ही रहा है। भारतीय किसान एक चंगुल में फंस गए हैं, उत्पादन की लागत बढ़ने की वजह से उनके द्वारा उगाए जा रहे भोजन की कीमत बढ़ रही है। इसके अलावा, पानी अथवा मिट्टी जैसे संसाधनों में आ रही कमी और लगातार बदलते मौसम का जोखिम भी उनकी मुसीबतें बढ़ा रहा है। इसके अलावा, सरकारें मुद्रास्फीति को कम रखने के लिए सस्ता भोजन चाहती हैं और उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए बड़ी मात्रा में खरीद करने की भी आवश्यकता होती है। उन्हें लागत पर नियंत्रण चाहिए। उत्पादकों को विपणन सहायता या लाभ प्रदान करने के लिए बुनियादी ढांचे में निवेश भी बहुत कम है। इस सब के बीच जलवायु परिवर्तन और परिवर्तनशील मौसम के कारण खेती के व्यवसाय पर मंडराता जोखिम बढ़ गया है।
इसके अलावा एक और मजबूत धारणा (जिसके पीछे सर्वमान्य आर्थिक दलीलें हैं ) भी है कि खेती अब कम फायदेमंद अथवा अनुत्पादक हो गई है और इसे कम महत्व दिए जाने की आवश्यकता है। ऐसा कहा जाता है कि इस अनुत्पादक व्यवसाय में बहुत सारे भारतीय शामिल हैं। यह व्यवस्था बेकार हो चुकी है। यह एक ऐसा सवाल है जिसका कोई जवाब नहीं। अगर खेती, खाना उगाने का व्यवसाय लोगों को रोजगार प्रदान नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा? जिस औपचारिक अर्थव्यवस्था को हम इतनी बेसब्री से अपनाना चाहते हैं, वह रोजगार के अलावा हर चीज के लिए उपयुक्त है और हम यह भली भांति जानते हैं।
हमें जिस एक और चीज पर ध्यान देने की आवश्यकता है, वह है वर्तमान कृषि संकट का शहरी चेहरा। आज यदि भूमि, जल या जंगलों का कोई भविष्य नहीं हो तो लोगों के पास पलायन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यह प्रवास उन्हें उन शहरों में ले जाएगा, जहां सेवाओं और प्रदूषण का संकट बढ़ेगा। तथ्य यह है कि आज का शहरी विकास “कानूनी” क्षेत्रों में नहीं है। जहां आवास और वाणिज्यिक प्रतिष्ठान शासन के अधिकारक्षेत्र में हों। यह स्पष्ट है कि शहरों का यह गैरकानूनी हिस्सा, जहां व्यवसाय और आवास सभी आधिकारिक मंजूरी के बिना या केवल कागज पर हैं, अब विस्फोट के कगार पर है।
विडंबना यह है कि सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप देने के लिए जितना काम करती है, परिस्थितियां लोगों को गैरकानूनी और अनौपचारिक व्यापार अपनाने को उतना ही मजबूर करती हैं। ऐसा ही पर्यावरण की सुरक्षा के साथ होता है। हम अपनी पर्यावरण लागत को दूसरे देश में निर्यात नहीं कर सकते। लेकिन हम इसे औपचारिक व्यवसाय एवं औपचारिक औद्योगिक क्षेत्रों से हटाकर अनौपचारिक एवं अनधिकृत रिहायशी इलाकों में डाल देते हैं। अब व्यवसायों से प्रदूषण अवश्य होता है किन्तु यह नियामकों के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। यहां हालात बिगड़ जाते हैं।
विनियमन की लागत ही शासन को महंगा बनाती है। भारत जैसे देश के लिए तो यह सर्वथा संभव है। इसके फलस्वरूप प्रदूषण बढ़ता है और बढ़ती हैं बीमारियां। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि गरीबों के पिछवाड़े का आंगन अमीरों के अहाते से ज्यादा अलग भी नहीं है। यदि व्यवसाय अवैध रूप से चलता है, तो इसके उत्सर्जन का विनियमन एक बड़ी चुनौती बन जाता है। इसका असर वायुमंडल पर पड़ेगा और प्रदूषण का बढ़ना अवश्यम्भावी है। इससे अमीर और गरीब दोनों प्रभावित होंगे। यह सीवेज और औद्योगिक प्रवाह के मामले में भी सच है। गरीबों का अवैध अपशिष्ट जब अमीरों के साफ किए अपशिष्ट के साथ मिलाया जाता है, तब भी नदियों को नुकसान पहुंचता ही है। हमारे जलस्रोतों का प्रदूषण स्वास्थ्य की समस्या व मलीनता की चुनौती को और बढ़ाता है। यह कूड़े के साथ भी लगभग ऐसा ही है। अवैध बस्तियां, जहां कचरा निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं होती, वे अपने कचरे को सीधा जला देती हैं, जिससे वायु में विषाक्तता का स्तर बढ़ता है। यही कारण है कि वैश्वीकरण का मॉडल, जिसने उत्सर्जन को स्थानांतरित तो कर दिया लेकिन खपत को कम नहीं किया, हमारे लिए काम नहीं करेगा।
हम प्रदूषण को अपने पिछवाड़े के आंगन में ले जा सकते हैं, जहां गरीब रहते हैं, हम पर्यावरण और श्रम की लागत में छूट भी दे सकते हैं, लेकिन हमें ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। संकट हमारा ही है। इस सच्चाई से भागा नहीं जा सकता। आज चीन पश्चिमी दुनिया के प्लास्टिक और अन्य कचरे के निपटान में अपनी असमर्थता जता चुका है, ऐसे में ये देश कचरा निष्पादन का दर्द समझ रहे हैं। अमेिरका के गरीब इलाकों में विरोध प्रदर्शनों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है क्योंकि वहां इंसीनरेटर (विशाल चूल्हे जिनमें कचरे को जलाया जाता है) स्थापित किए जा रहे हैं। लोग अपने आंगन के पिछवाड़े में उत्सर्जन नहीं चाहते हैं। यह स्वाभाविक भी है।
अतः असली चुनौती यही है। यही वजह है कि मैं कहती हूं कि भारत में मध्यवर्गीय पर्यावरणवाद नहीं चलेगा। हमारे लिए संपोषणीयता का मतलब समावेशी और सस्ता विकास है। हालांकि शायद अब समय आ गया है जब मध्य-वर्गीय पर्यावरणवाद, जिसने तकनीकी समाधान की वकालत की और समस्या को दूसरे क्षेत्र या समय पर भेजने की कोशिश की है, का अंत हो जाना चाहिए। हमारे पास कोई दूसरा ग्रह नहीं है जो हमारे कचरे का बोझ उठा सके। यह समझ लेने का समय आ चुका है।
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