खनन से प्रभावित लोगों के जीवन में सुधार के लिए जिला खनिज फाउंडेशन की स्थापना की गई थी। लेकिन दुर्भाग्यवश यह अपने मकसद से भटक गया है
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) सरकार द्वारा अधिनियमित कानूनों में से एक सबसे महत्वपूर्ण, लेकिन सबसे कम चर्चित कानून है, जिला खनिज फाउंडेशन (डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन)। यह 2015 में माइंस एंड मिनरल्स (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 के तहत स्थापित किया गया था। इसका मकसद था, “खनन संबंधित परिचालन से प्रभावित क्षेत्र के लोगों के हित और लाभ के लिए काम करना।” स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला कानून है, जो लोगों के अधिकारों को मान्यता देता है और कहता है कि वे अपने प्राकृतिक संसाधनों से लाभ उठा सकते हैं। इस मामले में यह प्राकृतिक संसाधन खनिज है। तथ्य यह है कि भारत के सबसे अमीर खनन जिलों में देश की सबसे वंचित आबादी निवास करती है। इसी वजह से उनके विकास के लिए सरकार ने डीएमएफ स्थापित किया। इसके तहत, खनन कंपनियों को रॉयल्टी का 10 से 30 प्रतिशत के बराबर राशि डीएमएफ में देनी है, ताकि इस पैसे का इस्तेमाल खनन प्रभावित लोगों के जीवन में सुधार लाने के लिए किया जा सके।
अपनी स्थापना के तीन वर्षों में, डीएमएफ में 20,000 करोड़ रुपए जमा हो गए। लेकिन इस पैसे का इस्तेमाल कहां और कैसे किया जा रहा है? क्या डीएमएफ खनन प्रभावित लोगों की सेवा कर रहा है? ये कुछ ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न थे, जिसका जवाब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के मेरे कुछ सहयोगियों ने दिया है। इन्होंने डीएमएफ पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। रिपोर्ट का मुख्य अवलोकन यह है कि लोगों की संस्था के रूप में काम करने की बजाय, डीएमएफ धीरे-धीरे एक सरकारी योजना में बदल रही है। खनन प्रभावित लोगों को डीएमएफ से बहुत ही व्यवस्थित रूप से हटा दिया गया है।
सभी राज्यों में डीएमएफ प्रशासन में वहां के अधिकारियों और राजनीतिक प्रतिनिधियों का प्रभुत्व है। खनन प्रभावित समुदायों के प्रतिनिधियों को पूरी तरह से इससे बाहर कर दिया गया है। इससे भी बदतर यह कि कुछ राज्य इसमें नेताओं की भूमिका को बढ़ा रहे हैं। उदाहरण के लिए, इस साल जून में तेलंगाना ने डीएमएफ में सभी सांसदों और विधायकों को शामिल करने के लिए अपने डीएमएफ नियमों में संशोधन किया है।
कानून कहता है कि ग्राम सभा की सिफारिशों पर डीएमएफ फंड का निवेश किया जाना चाहिए। लेकिन किसी भी डीएमएफ में ग्राम सभा को शामिल कर के निर्णय नहीं लिए गए हैं। लाभार्थियों की पहचान करने और परियोजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी करने में ग्राम सभा की भूमिका अनिवार्य है। लेकिन उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं दिया गया है। नतीजतन, किसी भी डीएमएफ ने लाभार्थियों की पहचान नहीं की है।
20,000 करोड़ रुपए में से डीएमएफ ने 11,000 करोड़ रुपए की परियोजनाओं को मंजूरी दे दी है। लेकिन इन निवेशों की स्थायित्व और लक्षित लाभार्थियों को लेकर एक बड़ा प्रश्न चिह्न खड़ा होता है। सबसे पहले तो यह कि डीएमएफ निवेश में निर्माण गतिविधियों पर काफी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। मानव संसाधनों में सुधार और गरीबी दूर करने जैसे कामों पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। दूसरा, प्रभावित लोगों और क्षेत्रों में निवेश नहीं मिल रहा है। मिसाल के तौर पर, देश के सबसे अधिक खनन प्रभावित क्षेत्रों में से एक, धनबाद के झरिया क्षेत्र को 935 करोड़ रुपए के डीएमएफ फंड में से एक रुपया भी नहीं मिला है। इसके विपरीत, शहरी परियोजनाओं के लिए डीएमएफ फंड जारी किए जा रहे हैं। ओडिशा के झारसुगडा में हवाईअड्डे को बिजली आपूर्ति के लिए धनराशि दे दी गई यानी फंड को डायवर्ट कर दिया गया।
यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि डीएमएफ निचले स्तर के लिए योजना बनाने और उसके कार्यान्वयन के लिए प्रशासनिक संरचना बनाने में विफल रहा है। कुछेक के अलावा, किसी भी डीएमएफ ने एक अदद कार्यालय तक नहीं बनाया है। डीएमएफ की बैठक ऐसे ही किसी जगह पर अस्थायी तरीके से हो जाती हैं और निर्णय ले लिए जाते हैं, जहां प्रभावित लोगों तक को शामिल नहीं किया जाता। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी पारदर्शिता नहीं है। अधिकांश डीएमएफ सार्वजनिक रूप से फंड निवेश को लेकर जानकारी नहीं डाल रहे हैं, जो कानूनन अनिवार्य है। एकाध को छोड़कर, अधिकांश डीएमएफ ने वित्तीय लेखा परीक्षा नहीं करवाई है।
मूल बात यह है कि डीएमएफ एक सरकारी योजना नहीं है। यह संस्था इसलिए बनाई गई है, ताकि खनिज संसाधनों का लाभ देश के खनिज समृद्ध क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को मिल सके। जब तक इस पर राज्य सरकारों का नियंत्रण रहेगा, तब तक डीएमएफ असफल साबित होता रहेगा।
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