Economy

हाथ से निकलती रेत

रेत की कमी और अवैध उत्खनन के दोहरे खतरे से लड़ने के लिए आयातित रेत की क्षमता को महसूस किया जा रहा है। 

 
By Ishan Kukreti
Published: Monday 09 July 2018
फोटो: अग्निमिढ़ बासु / सीएसई

भारत अपने निर्माण क्षेत्र की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए नदी की रेत का आयात कर रहा है। साथ ही इससे आसमान छूती रेत की कीमतों पर लगाम कसने की तैयारी भी है। लेकिन वैकल्पिक निर्माण सामग्री के नियमों को प्रभावी रूप से लागू करने और बढ़ावा दिए बगैर अकेला आयात पर्याप्त नहीं होगा। ईशान कुकरेती का विश्लेषण

14 अक्तूूबर, 2017 का दिन तमिलनाडु के लिए एक महत्वपूर्ण था और कुछ मायने में पूरे देश के लिए। उस दिन अन्ना दोरोथिया जहाज वी ओ चिदंबरनार बंदरगाह, जिसे पहले तुतीकोरिन बंदरगाह के नाम से जाना जाता था, पर पहुंचा था। यह जहाज देश में आयातित नदी की रेत की पहली खेप लाया था। मलेशिया की सुंगाई पहंग नदी के किनारे से इसमें 55 हजार टन रेत भरा गया था। एमआरएम रमैया एंटरप्राइसेज के रेत आयातक विजयराज कहते हैं, “जहाज से माल को उतारने के कुछ ही घंटों में हमारे पास ऑर्डर की बाढ़ सी आ गई थी।” सभी ऑर्डर राज्य के साथ-साथ पड़ोसी राज्यों की निर्माण कंपनियों से थे, जहां प्रचूर मात्रा में प्रतीत होने वाले प्राकृतिक संसाधनों की कमी की मार व्यवसायों पर पड़ रही थी।

सीमेंट के उत्पादन के साथ-साथ कंक्रीट बनाने के लिए रेत महत्वपूर्ण है। लेकिन सभी प्रकार की रेत निर्माण कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं होती। रेगिस्तान में, जहां तेज हवाएं चलती हैं, रेत के दाने इतने गोल होते हैं कि एक साथ जुड़े नहीं रह पाते। समुद्री रेत बेहतर है, लेकिन इसकी नमक सामग्री मजबूत कंक्रीट में स्टील के साथ अच्छी तरह से काम नहीं करती। इस मामले में नदी की रेत एक मूल्यवान और लुप्तप्राय खनिज है। विजयराज कहते हैं कि अन्ना दोरोथिया के आगमन के कुछ ही दिनों में उनकी कंपनी को 7 लाख टन आयातित नदी रेत के और ऑर्डर मिले लेकिन उनका उत्साह लंबे समय तक नहीं चला। 25 अक्टूबर को जब एमआरएम रमैया अपने खरीदारों को रेत की बिक्री कर रही थी तो कन्याकुमारी में राज्य पुलिस ने उसके छह ट्रक रोक लिए।

चालकों के खिलाफ तमिलनाडु माइनर मिनरल कनसेशंस रूल्स, 1959 (टीएनएमएमसीआर) के तहत खनन संचालन लाइसेंस के बिना खनिज परिवहन करने के लिए मामला दर्ज किया गया था। एमआरएम रमैया को बंदरगाह अध्यक्ष से एक पत्र भी मिला, जिसमें कहा गया है कि कंपनी सभी आवश्यक अनुमति प्राप्त होने तक रेत परिवहन नहीं कर सकती। 1 नवंबर को एमआरएम रमैया ने मद्रास उच्च न्यायालय का रुख किया और उच्च न्यायालय ने इसका पक्ष लिया। अदालत का 50 पृष्ठ का निर्णय अवयस्कों (लघु खनिजों) की आपूर्ति में उच्च मांग और समान रूप से गंभीर कमी को स्वीकार करता है।

लेकिन टीएनएमएमसीआर में कानूनी कमी न्यायपालिका को एमआरएम रमैया के पक्ष में लाने की वजह बना। तमिलनाडु ने केंद्रीय कानून, खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 (एमएमडीआर) के तहत नियम तैयार किए थे, जो राज्यों को अवयस्कों से संबंधित नियम बनाने की अनुमति देता है जैसे कि पत्थर, बजरी, साधारण मिट्टी, साधारण रेत और निर्माण रेत। हालांकि, टीएमएमसीआर केवल देश के भीतर खनन किए गए अवयस्कों से ही संबद्ध रखता है, आयातित स्टॉक से नहीं। इसके अलावा, 2014 में वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने उपलब्धता बढ़ाने के लिए रेत के आयात की अनुमति दे दी।

इसकी अधिसूचना के तहत, एक कंपनी को एक आयातक के रूप में खुद का पंजीकरण कराना था और प्लांट क्वारंटाइन (भारत में आयात का विनियमन) आदेश, 2003 के तहत प्रमाण पत्र प्राप्त करना था। न्यायालय का कहना था कि एमआरएम रमैया ने दोनों मानदंडों का पालन किया। चूंकि रमैया ने व्यापार शुरू कर दिया, ऐसे में तमिलनाडु ने खनिज को अपने नियंत्रण में रखने के लिए एक हताशा भरे प्रयास के तहत 8 दिसंबर को सरकारी आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया है कि निर्माण उद्देश्यों के लिए आयातित रेत केवल लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) को बेची जा सकती है, जो कि राज्य में रेत उत्खनन और व्यापार का प्रभारी है। रेत को सरकारी दर पर बेचना होगा और वैध परमिट प्राप्त करने के बाद ही पीडब्ल्यूडी डिपो में पहुंचाया जा सकेगा।

सरकारी आदेश का पालन करते हुए, 25 जनवरी को तुतीकोरिन के जिला प्रशासन ने एमआरएम रमैया को नोटिस जारी कर कहा कि कंपनी ने राज्य कानूनों का उल्लंघन किया है। उस माह के अंत मेंं, राज्य सरकार एमआरएम रमैया के पक्ष में दिए गए मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई। उच्चतम न्यायालय ने 16 मई को अपने अंतरिम आदेश में कहा कि एक सरकारी आदेश को बीते हुए समय पर लागू नहीं किया जा सकता।

हालांकि, उसने पीडब्ल्यूडी को आयातित रेत की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए रासायनिक विश्लेषण करने के लिए कहा। अगर यह निर्माण के लिए उपयुक्त पाया गया तो पीडब्ल्यूडी को बंदरगाह पर पड़े एमआरएम रमैया के पूरे स्टॉक को खरीदना होगा। अगली सुनवाई 9 जुलाई को होनी है।

जब डाउन टू अर्थ ने तमिलनाडु पीडब्ल्यूडी के एक उच्चाधिकारी से एमआरएम रमैया के रेत आयात को चुनौती देने का कारण पूछा तो अधिकारी ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए बताया, “कोई भी रेत का आयात कर उसकी बिक्री शुरू नहीं कर सकता। बुनियादी ढांचे के ढहने के मामले में सरकार को जवाब देना होगा।” पीडब्ल्यूडी की चिंता वाजिब है। खराब गुणवत्ता वाली रेत कंक्रीट की गुणवत्ता को प्रभावित करती है लेकिन निर्माण क्षेत्र से जुड़े लोग सरकार के इरादे पर संदेह करते हैं।

माफिया का दबाव?

2003 में, जब टीएनएमएमसीआर के अंतर्गत पीडब्ल्यूडी को रेत उत्खनन और व्यापार का प्रभारी बनाया गया था तो इसका लक्ष्य अवैध खनन को रोकना और रेत की कीमत की बढ़ती दर की जांच करना था। लेकिन विभाग इन उद्देश्यों में बुरी तरह विफल रहा। बिल्डर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के सदस्य और चेन्नई के डेवलपर एल. वेंकटेशन कहते हैं, “सरकार ने रेत की कीमत 1,050 रुपए प्रति टन तय की है। लेकिन खरीदते समय उसे 4,000 रुपए प्रति टन से ऊपर खोलना पड़ता है।” मद्रास हाईकोर्ट में एमआरएम रमैया के वकील अशोक कुमार बताते हैं, “पेपर पर पीडब्ल्यूडी प्रत्येक एक से तीन साल में रेत खनन नीलामी का आयोजन करता है और बोली जीतने वालों को खनन अधिकार देता है।

लेकिन हकीकत में, हर बार केवल मुट्टीभर नियमित लोग अनुबंध जीत जाते हैं। चाहे यह अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम सरकार के अधीन हो या द्रविड़ मुनेत्र कषगम सरकार के।” और ये वे लोग हैं जो फरमान जारी करते हैं। विजयराज ने आरोप लगाया, “पीडब्ल्यूडी हमें इन खिलािड़यों के प्रतिस्पर्धी के रूप में देखता है और हमें बाहर करने की कोशिश कर रहा है।” राज्य में रेत को ऑनलाइन खरीदने का प्रावधान भी है। चेन्नई के एक निर्माता श्रीधर कहते हैं, “यदि आप ऑनलाइन सिस्टम का उपयोग करते हैं तो ऑर्डर देने और सामग्री प्राप्त करने के बीच का इंतजार लंबा होता है।”

राज्य में रेत माफिया के प्रभाव का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मई की शुरुआत में रेत माफिया ने तिरुनेलवेली जिले के नंगुनेरी के पास एक विशेष शाखा में कांस्टेबल जगदीश दुरई की हत्या कर दी थी। दुरई ने नंबियार नदी के किनारे से अवैध रूप से रेत उठाने के दौरान उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की थी। अवैध रेत खनन पर एक जनहित याचिका में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त समिति ने तमिलनाडु में कावेरी और कोलेरून नदियों में अवैध रेत खनन पर एक रिपोर्ट दी।

इसमें नदियों के साथ आवंटित सभी 24 रेत खदानों में अवैध खनन पाया गया। “रिपोर्ट में पाया गया है कि कानूनी रूप से आवंटित खदानों में लीज धारकों ने तय सीमा से अधिक रेत निकाली थी।” इस मामले में याचिकाकर्ता के वकील तेमुलाई राजा कहते हैं, “कई क्षेत्रों में खनन बिना किसी अनुमति के किया जा रहा था।”

आयात की पकड़

माफिया दबाव के चलते या अपने एकाधिकार को बनाए रखने के लिए, तमिलनाडु स्वर्णिम कणिकाओं पर अपनी पकड़ नहीं खोना चाहता।

लेकिन इसने रेत की कमी और अवैध उत्खनन के दोहरे खतरे से लड़ने के लिए आयातित रेत की क्षमता को महसूस किया है। मार्च में, राज्य के पीडब्ल्यूडी ने अगले दो वर्षों में 548.73 करोड़ रुपए में विभिन्न देशों से 30 लाख टन नदी की रेत का आयात करने के लिए एक निविदा सूचना जारी की। हालांकि, अन्य राज्य हर अवसर पर यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहे हैं कि उनके पास अतिरिक्त रेत है। नवंबर 2017 में, जब तमिलनाडु सरकार ने एमआरएम रमैया द्वारा आयातित रेत को जब्त किया तो कंपनी ने 45,000 टन रेत के दूसरे जहाज को कोचीन बंदरगाह की ओर मोड़ दिया।

विजयराज कहते हैं, “ तीन दिन के भीतर, हमें स्टॉक बेचने की अनुमति मिली।” केरल में रेत अब 2,000 रुपए प्रति टन की कीमत पर बेची जा रही है जबकि राज्य में मार्केट रेट 2500 रुपए प्रति टन है। आयातित रेत को लेकर निर्माण क्षेत्र की उत्साही प्रतिक्रिया ने अब अन्य राज्यों की कंपनियों को रेत आयात करने के लिए प्रोत्साहित किया है। “ तीन से चार कंपनियां मलेशिया से कोचीन बंदरगाह तक रेत आयात कर रही हैं। कोचीन बंदरगाह के संयंत्र संरक्षण अधिकारी के. डब्ल्यू देशकर कहते हैं, अब बंदरगाह पर लगभग 100,000 टन रेत का भंडार है।” (देखें : “ रेत के निशान”)

*कर्नाटक ने आंध्र प्रदेश के कृष्णपटनम बंदरगाह के माध्यम से आयात किया | स्रोत: रेत खनन फ्रेमवर्क, 2018

कर्नाटक में, मैसूर सेल्स इंटरनेशनल ने दिसंबर 2017 में मलेशिया से 54 हजार टन रेत आयात की और इसे 3900 रुपए प्रति टन की कीमत पर बेच रही है, राज्य में बाजार मूल्य 5000 से 6,000 रुपए के बीच बदलता रहता है। महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश भी फिलिपींस से रेत आयात करने की योजना बना रहे हैं। अब वे इसके लिए बाजार की मांग का सर्वेक्षण कर रहे हैं क्योंकि ज्वालामुखीय राख की उपस्थिति के कारण फिलिपिनो रेत का रंग गहरा होता है। विशेषकर तमिलनाडु की घटना के बाद, रेत आयातकों को प्रोत्साहित करने के लिए कर्नाटक और केरल ने रेत आयात की प्रक्रिया को कम करने वाले अपने खनिज रियायत नियमों में संशोधन किया है।

उनकी निराशा का कारण स्पष्ट है। ये सभी राज्य निर्माण में उछाल देख रहे हैं। जनगणना 2011 के अनुसार, आंध्र प्रदेश को छोड़कर सभी राज्यों के शहरी क्षेत्रों में 35 प्रतिशत से ज्यादा आबादी है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार देश भर में निर्माण क्षेत्र 2010 से 2016 के बीच 6 फीसदी कंपाउंड एनुअल ग्रोथ रेट से बढ़ा जो कि 2011-15 के दौरान 2.95 प्रतिशत था। लेकिन बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त रेत नहीं है। 2017-18 में, खान मंत्रालय (एमओएम) ने 14 प्रमुख रेत उत्पादक राज्यों का सर्वेक्षण किया। इसके अनुमान बताते हैं कि हरियाणा, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में रेत की मांग और आपूर्ति में अंतर है।

तमिलनाडु जो 65 प्रतिशत के अधिकतम घाटे का सामना कर रहा है, में रेत की सबसे ज्यादा मांग है। लेकिन यह सालाना केवल 1 करोड़ 80 लाख टन रेत पैदा करता है। पूर्वी तट पर इसके पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश में कुल मांग का 50 प्रतिशत घटा है। कर्नाटक में 20 फीसदी की कमी है। कर्नाटक के वाणिज्य और उद्योग विभाग के सचिव राजेंद्र कुमार कटारिया का कहना है कि राज्य में अब 2 करोड़ 60 लाख टन नदी रेत भंडार ही बचा है।

खान मंत्रालय के निदेशक पृथुल कुमार ने कहा कि बढ़ती मांग को पूरा करने के तरीकों को सुनिश्चित किए बिना रेत खनन पर न्यायिक प्रतिबंधों के कारण आंशिक रूप से घाटा हो रहा है। “अदालतों या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के प्रतिबंधों के चलतेे कई राज्यों में रेत की आपूर्ति की कमी हो गई है। 2017 में महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में एनजीटी ने रेत खनन पर प्रतिबंध लगा दिया था।

उस वर्ष उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने भी चार माह के लिए राज्य भर में रेत खनन पर प्रतिबंध लगाए थे। ऐसी घटनाएं मांग और आपूर्ति के अनुपात में गड़बड़ पैदा करती हैं।” मांग-आपूर्ति के इस अंतर ने अब पूरे देश में समानांतर रेत बाजार बना दिया है। समेकित सरकारी आंकड़ों की अनुपस्थिति में, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की 2017 की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015-16 में गैरकानूनी रेत खनन से उत्तर प्रदेश के राजकोष को 477 करोड़ रुपए का भारी नुकसान हुआ। 2014 की कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 में केरल को 1.63 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।

हम विफल क्यों हो रहे हैं?

राज्यों को मांग-आपूर्ति घाटे और अवैध निष्कासन से निपटने में मदद करने के लिए, मार्च में सरकार ने खान मंत्रालय के सर्वेक्षण के आधार पर रेत खनन फ्रेमवर्क शुरू किया। इस फ्रेमवर्क ने उन कारणों की पहचान की, जिनके चलते राज्य अवैध रेत खनन से निपटने में असफल रहे। कुमार कहते हैं, एमएमडीआर अधिनियम राज्यों को रेत खनन को नियंत्रित करने के लिए स्वयं का कानून बनाने की जिम्मेदारी देता है। “लेकिन नियमों का निर्णय लेने में बहुत आगे और पीछे जाना पड़ रहा है।” विश्लेषण में हमने पाया कि 14 राज्यों में से 11 ने पिछले तीन से चार वर्षों में छूट नियमों को बदल दिया है।

इसके अलावा, प्रत्येक राज्य में रेत खानों की पहचान करने, पर्यावरण मंजूरी जारी करने और खानों के संचालन और निगरानी की एक अलग प्रक्रिया है। आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और तेलंगाना को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में, खनन कंपनियां खनन लीज मिलने के बाद ही पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन कर सकती हैं। इससे उल्लंघन का खतरा बढ़ जाता है। खनन फ्रेमवर्क के अनुसार, खनन विभाग द्वारा मंजूरी लेने से यह सुनिश्चित होता है कि सरकार के साथ-साथ पर्यावरण मंत्रालय, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा निर्धारित नियमों का पालन ठीक से किया जा रहा है। मूल्य निर्धारण तंत्र भी राज्यों में अलग-अलग होते हैं।



आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना ने अपनी रेत की कीमतों को अधिसूचित किया हुआ है, लेकिन शेष राज्यों में यह अस्थिर बनी हुई है जहां मांग-आपूर्ति का अंतर बाजार मूल्य निर्धारित करता है। उदाहरण के तौर पर, बेंगलुरू में रेत से भरे एक ट्रक की लागत एक लाख रुपए हो सकती है जबकि मुंबई में यह 70,000 रुपए हो सकती है। राज्य के नियम भी अलग-अलग हैं जो खान का संचालन करते हैं। दस्तावेजों के अनुसार, “जिन राज्यों में परिचालन का नियंत्रण पट्टेदार के साथ होता है, वहां व्यापार का मुख्य उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा पैसा बनाना होता है।” इसलिए यदि सरकार नियम बनाती भी है तो मजबूत निगरानी तंत्र की अनुपस्थिति में पट्टाधारक नियमों से बच सकता है। और यही प्राथमिक कारण है कि अदालतों और एनजीटी ने विभिन्न स्थानों पर रेत खनन पर प्रतिबंध लगा दिया है।

खनन तंत्र का कहना है कि 2016 में एमओईएफसीसी द्वारा जारी टिकाऊ रेत खनन दिशानिर्देशों को तत्काल लागू करने की आवश्यकता है। दिशा-निर्देश अन्य चीजों के अलावा, खनन जिलों में रेत उपलब्धता का अनुमान लगाने के लिए जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट (डीएसआर) का गठन करने की बात भी करते हैं। कुमार कहते हैं कि खान मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार ज्यादातर राज्यों ने डीएसआर तैयार किया है लेकिन जब टिकाऊ खनन की बात आती है तो किसी भी राज्य ने भर्ती अध्ययन नहीं किया जो सूचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। दिशा-निर्देश रेत खनन की निगरानी के लिए सूचना-प्रौद्योगिकी तकनीकों को नियोजित करने के बारे में भी बात करते हैं। ऐसा करने का मकसद केवल रेत ले जाने वाले वाहनों में जीपीएस इंस्टॉल कर ई-परमिट प्रणाली के माध्यम से परिवहन की अनुमति देना है।

लेकिन राज्यों में कार्यान्वयन खराब रहा है। 14 में से केवल पांच राज्यों गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना में ही ऑनलाइन परिवहन परमिट का प्रावधान है। रिपोर्ट के अनुसार, “शेष राज्य अब भी अपने राज्यों में रेत के परिवहन के लिए मैनुअल पास का पालन करते हैं। हालांकि, उन राज्यों में जहां रेत को ऑनलाइन परमिट का उपयोग करके पहुंचाया जाता है, अकेले ऑनलाइन ट्रांजिट पास इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता क्योंकि ट्रांसपोर्टर पास और परिवहन की फोटोकॉपी करके एक ही पास पर कई बार रेत ढो रहे हैं।” नि:संदेह सिफारिशें ठोस हैं लेकिन क्या राजनेता और अधिकारी रेत माफिया के दबाव बिना इन्हें लागू कर सकते हैं?

त्वरित रेत का भविष्य

अकेले आयात पर्याप्त नहीं होंगे। भारत को रेत खनन की पारिस्थितिक लागत को कम करने के लिए निर्माण और विध्वंस अपशिष्ट और रेत के निर्माण जैसे विकल्प भी लोकप्रिय बनाने चाहिए।

रेत एक नया तेल है, और दुनिया इसके लिए पागलों की तरह भटक रही है। यूनाइटेड नेशनल एनवायरनमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) के अनुसार, कंकड़ के साथ रेत पहले से ही सबसे अधिक निकाले गए खनिजों में शुमार है। हर साल 69 से 85 प्रतिशत खनिज निकाले जा रहे हैं। यूनाइटेड नेशंस कॉमट्रेड डेटाबेस के अनुसार, पिछले दो दशकों में इसके अंतरराष्ट्रीय व्यापार में छह गुना बढ़ोतरी देखी गई है। रेत के लिए इस जबरदस्त मांग ने पारिस्थितिकीय संकट को जन्म दिया है। 2014 की एक यूएनईपी रिपोर्ट ने रेत को दुर्लभ बताया है। “निकाली जाने वाली (रेत की) मात्रा नदियों, डेल्टा और तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर व्यापक प्रभाव डाल रही है, जिसके परिणामस्वरूप नदी या तटीय क्षरण के माध्यम से भूमि का नुकसान होता है। इससे पानी के स्तर और तलछट आपूर्ति की मात्रा में कमी हो जाती है।” रिपोर्ट में कहा गया है कि 2012 में वैश्विक रेत निष्कर्षण (22.2 बिलियन टन) दुनिया की सभी नदियों में भरे तलछट की वार्षिक मात्रा से अधिक था।

इस समृद्ध व्यापार की पारिस्थितिक लागत ने विशेषकर निर्यात करने वाले देशों में व्यापक विरोध प्रदर्शन को बढ़ावा दिया। एमआरएम रमैया के तुतीकोरिन में चिदंबरनार बंदरगाह में रेत आयात करने के तुरंत बाद मलेशियाई मीडिया ने देश के पर्यावरण मंत्री से कहा कि कंपनी के पास आवश्यक अनुमतियां नहीं हैं। बाद में मंत्री ने अपना रुख बदल दिया। 2016 में रेत निर्यात पर 19 वर्षीय प्रतिबंध को हटाए जाने के बाद रमैया मलेशिया के साथ व्यापार करने वाली पहली विदेशी कंपनी है। हालांकि प्रतिबंध हटाने के फैसले से मलेशिया में पर्यावरण कार्यकर्ताओं के बीच असंतोष फैल गया। एक प्रमुख रेत आयातक देश सिंगापुर ने 1965 से अपने भूमि क्षेत्र को 20 प्रतिशत से अधिक बढ़ाने के लिए खनिज का उपयोग किया है। द्वीप देश ने पिछले कुछ वर्षों में कंबोडिया से 72 मिलियन टन से अधिक रेत आयात की है। इसने कंबोडिया को पिछले साल सिंगापुर में निर्यात पर स्थायी प्रतिबंध लगाने के लिए प्रेरित किया।

इसी प्रकार, इंडोनेशिया ने सिंगापुर में अत्यधिक निर्यात के कारण देश के लगभग 24 द्वीप खोने के बाद 2007 में रेत निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। 2017 में निर्माण मंत्रालय में वियतनाम निर्माण सामग्री विभाग के निदेशक फाम वान बाक ने चेतावनी दी कि मांग की वर्तमान दर पर 2020 तक देश में रेत खत्म हो जाएगी। पारिस्थितिकीय लागत के बावजूद, निर्माण उद्योग के चलते रेत की वैश्विक मांग बढ़ने की उम्मीद है। अमेरिकी शोध फर्म परसिस्टेंस मार्केट रिसर्च के अनुसार, वैश्विक निर्माण समेकित(जिसमें रेत भी शामिल है) बाजार के 2017 और 2025 के बीच 6.1 प्रतिशत की संयुक्त वार्षिक वृद्धि दर पर बढ़ने का अनुमान है। इसमें आगे कहा गया कि समूचे बाजार के भीतर, प्राकृतिक स्रोतों की कमी के कारण रेत सबसे अधिक लाभदायक होगी। वर्तमान प्रवृत्ति के चलते, अधिकतर देश निकट भविष्य में रेत निर्यात पर प्रतिबंध लगाएंगे।

यही कारण है कि भारत को बेहतर नियम विकसित करते हुए रेत के विकल्प ढूंढ़ने चाहिए। देश ने 2016 में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 में संशोधन किया और फिर नदी की पारिस्थितिकी को बहाल करने और बनाए रखने के लिए सतत रेत खनन प्रबंधन दिशा-निर्देश जारी किए।

रिपोर्ट में कहा गया है कि जिलों को दिशा-निर्देशों के कार्यान्वयन और निगरानी के साथ-साथ रेत खनन क्षमता के मानचित्रण के लिए उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। ज्यादातर राज्यों में जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया जाना बाकी है और देश में अभी भी रेत खनन पर विश्वसनीय आंकड़े नहीं हैं।

कर्नाटक, जहां नदी रेत भंडार हमेशा के लिए कम हो गया है, अब बजरी से रेत (एम-सैंड) बनाता है।  देश की 178 मीटर रेत इकाइयों में से 164 इकाइयां राज्य में हैं। (सौजन्य: एमसैंडटुमकुर.कॉम)

विकल्प

भारत रेत के कई विकल्पों को भी देख रहा है, लेकिन क्षमता के बावजूद उनका उपयोग सीमित है। विकल्पों में से एक है निर्माण और विध्वंस अपशिष्ट (सीएंडडी अपशिष्ट) का नवीनीकरण। भारत हर साल 25-30 मिलियन टन उत्पन्न करता है लेकिन मार्च 2017 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी किए गए निर्माण और विध्वंस अपशिष्टों के पर्यावरण प्रबंधन पर दिशा-निर्देशों के अनुसार, वर्तमान में इसका पांच प्रतिशत ही प्रक्रिया में शामिल है। दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि सी एंड डी अपशिष्ट कुल ठोस अपशिष्ट का 25-30 प्रतिशत हिस्सा होते हैं और इनका उपयोग “फर्श ब्लॉक, सड़क फुटपाथों, कॉलोनी और ग्रामीण सड़कों की निचली परतों के लिए किया जा सकता है।”

28 जून, 2012 को शहरी विकास मंत्रालय ने एक परिपत्र जारी कर राज्यों से 1 मिलियन से अधिक आबादी वाले सभी शहरों में सीएंडडी अपशिष्ट रीसाइक्लिंग सुविधाओं की स्थापना करने के लिए कहा था, लेकिन देश में आज केवल तीन प्लांट हैं- दो दिल्ली और एक अहमदाबाद में-प्रति दिन 2,700 टन की संयुक्त क्षमता के साथ। दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट में सस्टनेबल सिटी प्रोग्राम के प्रोग्राम मैनेजर अविकल सोमवंशी कहते हैं, “पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत 2016 में सीएंडडी अपशिष्ट नियमों में अनिवार्य किए गए संग्रह और रीसाइक्लिंग सिस्टम स्थापित करने में शहर सक्षम नहीं हैं।” उन्होंने कहा कि शहरों में सीएंडडी जनरेशन के आंकड़ों की अनुपस्थिति और भूमि की कमी समस्या को बढ़ा रही है।

जबकि भारत अब भी संघर्ष कर रहा है। सिंगापुर ने अपने सीएंडडी अपशिष्ट का 98 प्रतिशत रीसाइक्लिंग शुरू कर दिया है। यूके के खनिज उत्पादन संघ द्वारा 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार, यूके अपने सीएंडडी अपशिष्ट का एक तिहाई हिस्सा रीसाइकिल कर रहा है। एक अन्य विकल्प, जिसका पहले से ही कर्नाटक में बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है, वह है रेत का निर्माण (एम-सैंड)। यह चट्टानों और खदान पत्थरों को 150 माइक्रोन के आवश्यक आकार में तोड़ने से उत्पन्न होती है। मार्च 2018 में खान मंत्रालय द्वारा जारी किए गए रेत खनन फ्रेमवर्क के अनुसार भारत में 178 रेत निर्माण इकाइयां हैं, जिनमें से 164 अकेले कर्नाटक में हैं- जो सालाना 32 मिलियन टन उत्पादन करती है। इसमें कहा गया है कि रेत का निर्माण (एम-सैंड) आर्थिक रूप से व्यवहार्य है।

भारत के बंगलूरू जैसे कई शहरी केंद्रों में नदी की रेत की तुलना में सस्ता और बेहतर है। हालांकि एम-सैंड के फायदे हैं, विशेषज्ञों ने इसकी दीर्घकालिक व्यावहारिकता पर सवाल उठाया है। चेन्नई स्थित बिल्डर एल. वेंकटेशन कहते हैं, “यह पत्थरों को तोड़ने से बना है। इसलिए इसकी मांग बढ़ने के साथ ही इसका पर्यावरण पर प्रभाव भी बढ़ जाएगा। केंद्र अधिभार वाली कोयला खानों से रेत निकालने पर भी विचार कर रहा है, जो कोयला की तह के ऊपर का क्षेत्र है और इसे खनन करने के लिए हटाया जाना चाहिए। सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ माइनिंग एंड फ्यूल रिसर्च, धनबाद द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है कि अधिभार प्रक्रिया में 60-65 प्रतिशत रेत है। “कोयला इंडिया की सहायक कंपनी वेस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड ने कम कीमत आवास परियोजना के लिए नागपुर के पास प्रति दिन 200 घन मीटर प्रतिदिन क्षमता का रेत पृथक्करण संयंत्र स्थापित करने का प्रस्ताव दिया है और कम कीमत के लिए बाजार मूल्य के एक चौथाई रेट में रेत की आपूर्ति करने के लिए प्रतिबद्धता जताई है।”

कंस्ट्रक्शन एंड डिमोलिशन वेस्ट्स के पर्यावरण प्रबंधन पर जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार, “यह विकल्प उन सभी राज्यों में लागू होता है जहां कोयला पाया जाता है।” केंद्र प्रमुख बांधों पर गाद के पूंजीकरण पर भी काम कर रहा है। जब तक यह व्यवहार्य नहीं हो जाता तब तक भारत रेत के आयात पर भरोसा कर सकता है, लेकिन इसे रेत विकल्पों के उत्पादन को बढ़ाने की जरूरत है। ग्लोबल मैनेजमेंट फर्म मैककिंसे की 2010 की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि 2030 तक देश को जिन इमारतों की आवश्यकता होगी, उनमें से 70 फीसदी इमारतों का निर्माण होना बाकी है। यह निश्चित रूप से पहले से ही दुर्लभ संसाधन पर जबरदस्त दबाव डालेगा। कुल मिलाकर रेत आयात कर उसकी कीमताें पर नियंत्रण की सरकारी कोशिशें कितनी कामयाब होंगी, यह आने वाला समय ही बताएगा।

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