एन्थ्रोपोसीन यानी मानव युग, मुनष्य और प्रकृति के बीच बढ़ते अलगाव को प्रदर्शित करता है
इसमें कोई दोराय नहीं कि अपने श्रेष्ठ दिमाग के बल पर मानव पृथ्वी पर सबसे कामयाब जीव है। पिछले 12 हजार वर्षों में जिस तरह से हमने इस ग्रह पर कब्जा किया है, वह हमारे वर्चस्व को दिखाता है। इस चतुराई के लिए हम खुद की प्रशंसा कर सकते हैं, लेकिन इस शानदार सफलता के लिए हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी है। इसके गंभीर प्रभाव हमारे ऊपर दिखाई देने लगे हैं, जिनमें जलवायु परिवर्तन और बड़े पैमाने पर जीवों का विलुप्त होना प्रमुख हैं। पिछले छह दशकों में मानव ने धरती के बुनियादी ताने-बाने के साथ बहुत छेड़छाड़ की है। अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि शायद हम अपने ही बनाए एक नए भू-वैज्ञानिक युग में प्रवेश कर चुके हैं। उन्होंने इस युग को नाम दिया है; एंथ्रोपोसीन या मानव युग!
सबसे पहले यह विचार सन 2000 में डच रसायन विज्ञानी पॉल क्रुतजन और अमेरिकी जीव विज्ञानी यूजीन पी. स्टोर्मर ने सामने रखा था। लेकिन इस विचार को दो साल बाद बल मिला, जब नेचर पत्रिका में क्रुतजन का लेख ‘मानवजाति का भूविज्ञान’ प्रकाशित हुआ। इससे पहले मीडिया और अकादमिक जगत में इस पर काफी चर्चा और बहस होती रही। पिछले साल अगस्त में भूवैज्ञानिकों की एक समिति ‘एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप’ (एडब्ल्यूजी) ने आधिकारिक तौर पर इस विचार का समर्थन किया। प्रस्ताव की वैधता पर विचार-विमर्श के लिए सन 2009 में यह समिति गठित की गई थी। समिति ने सुझाया कि इस नए युग का प्रारंभ 1950 के आसपास माना जाए, जब परमाणु बमों के परीक्षणों की होड़ के चलते पूरी पृथ्वी रेडियोधर्मी विकिरण से बुरी तरह घिर गई थी।
नए युग की दस्तक
सन 1950 से शुरू हुए काल को वैज्ञानिक ‘ग्रेट एक्सेलरेशन’ यानी महान त्वरण के तौर पर देखते हैं। हालांकि, इसके लिए शब्द बहुत बाद में 2007 में क्रुतजन ने ही गढ़ा। यह काल दिखाता है कि कैसे आर्थिक तरक्की और जनसंख्या में हुई अभूतपूर्व वृद्धि ने इस ग्रह का स्वरूप पूरी तरह बदल डाला है।
नदियों पर बांध बनाने से लेकर वनों की कटाई, जल-वायु-मिट्टी के प्रदूषण से लेकर ओजोन परत के क्षय, प्रजातियों के विलुप्त होने और ग्लोबल वार्मिंग जैसे परिवर्तन शामिल हैं। हजारों साल तक बचे रहने वाले रेडियोन्यूक्लाइड यानी परमाणु परीक्षणों के अवशेष, एंथ्रोपोसीन को परिभाषित करने वाले सबसे प्रबल प्रमाण हैं। लेकिन ‘एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप’ अन्य प्रमाणों की तलाश भी कर रहा है। इसलिए प्लास्टिक प्रदूषण, कृत्रिम उर्वरकों की वजह से मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फोरस की अत्यधिक मात्रा और दुनिया भर में कूड़े के ढेर में दफन घरेलू चिकन की हड्डियों पर भी गौर किया जा रहा है।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि मनुष्य ने जीवमंडल को पूरी तरह बदल डाला है। लेकिन, यह निश्चित नहीं है कि ये बदलाव भविष्य में सदियों तक कायम रहेंगे। इसने उन भूवैज्ञानिकों को दुविधा में डाल दिया है, जो जमीन के नीचे लाखों वर्षों तक संरक्षित किसी संकेत के नाम पर नए युग का नामकरण करते रहे हैं। इस तरह के प्रमाण को ‘गोल्डन स्पाइक’ कहते हैं। उदाहरण के तौर पर, मौजूदा युग के लिए ‘होलोसीन’ को ‘गोल्डन स्पाइक’ कहा गया। यह युग लगभग 12 हजार साल पहले आखिरी हिमयुग के बाद शुरू हुआ था। ग्रीनलैंड की बर्फ में इसके प्रमाण 1492 मीटर गहराई में संरक्षित हैं। इसी प्रकार,डायनासोर युग के नाम से मशहूर क्रेटेशियस काल का ‘गोल्डन स्पाइक’, डायनासोरों को खत्म करने वाले उल्का पिंड का अवशेष,इरिडियम धातु है। हालांकि, यह अवधारणा बहुत विवादित रही है। दरअसल, युग परिवर्तन को लेकर भूविज्ञान में आम सहमति बनना बेहद कठिन है। भले ही औपचारिक रुप से होलोसीन को 1885 में ही एक युग के तौर पर मान्यता मिल गई थी। लेकिन, भूवैज्ञानिकों को इसके गोल्डन स्पाइक पर सहमति बनाने में 76 साल लग गए।
मानव युग यानी एंथ्रोपोसीन के बारे में अंतिम निर्णय केवल एडब्ल्यूजी पर ही निर्भर नहीं है। अभी उसकी सिफारिशों का अध्ययन किया जाएगा और भूवैज्ञानिक जगत में तीन स्तरों पर इस अवधारणा की जांच और पुष्टि होनी बाकी है। ऐसे मामलों में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ जिओलॉजिकल साइंस का निर्णय ही अंतिम माना जाता है।
हालांकि, कुछ स्तरक्रमविज्ञानी (स्ट्रैटिग्राफर्स) मानते हैं कि ‘एंथ्रोपोसीन वर्किग ग्रुप’ ने मानव युग को भूविज्ञान के नजरिये से देखकर एक बड़ी भूल की है। क्योंकि यह निश्चित नहीं है कि मानव की गतिविधियों के अवशेष सदियों तक चट्टानों में अपने निशान छोड़ेंगे। लेखक जेम्स वेस्टकॉट कहते हैं, “हम चट्टानों के पीछे क्यों पड़े हैं, जबकि ऐतिहासिक प्रमाण हार्ड ड्राइव और सीडी में मौजूद हैं?” दिग्गज भूवैज्ञानिक एडब्ल्यूजी के प्रस्ताव को समर्थन दें या नहीं, लेकिन एंथ्रोपोसीन का विचार चट्टानो के चुंगल से बाहर निकलने लगा है। डरहम विश्वविद्यालय के टिमोथी क्लार्क के शब्दों में, पर्यावरणीय मुद्दों के सांस्कृतिक, नैतिक, दार्शनिक,राजनैतिक संदर्भ व आग्रह सार्वभौमिक हैं।
साल 2013 में आई अपनी किताब ‘हायपरऑब्जेक्ट्स’ में राइस विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर टिमोथी मॉर्टन ने एंथ्रोपोसीन की व्याख्या करते हुए इसे स्थलीय भूविज्ञान और मानव इतिहास का भयावह संयोग बताया है। मानव प्रजाति को उस चीज को समझने की जरूरत है, जिसे वह हायपरऑब्जेक्ट्स कहते हैं। यानी ग्लोबल वार्मिंग, प्लास्टिक अथवा रेडियोधर्मी प्लूटोनियम जैसी चीजें, जिनका समय और स्थान में प्रसार मनुष्य के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक है।
इसी तरह साल 2011 में आई किताब ‘द टेक्नो ह्यूमन कंडीशन’ में डैनियल सेरेविट्ज और ब्रेडन एलनबॉय एंथ्रोपोसीन की व्याख्या करते हुए कहते हैं, यह किसी तकनीक की जटिल जीवन-यात्रा के बारे में पूर्वानुमान लगाने की मानव की विफलता का अनायास प्रभाव है। इस बात को समझाने के लिए वे ऑटोमोबाइल का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि एक तकनीक जिसने लोगों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता दी, आज एक पर्यावरण खतरे में बदल चुकी है।
‘इकोक्रिटिसिज्म ऑन द एज’ पुस्तक के लेखक टिमोथी क्लार्क के अनुसार, एंथ्रोपोसीन कुछ ऐसी अहम चीजों को धुंधला और यहां तक की गड्डमड्ड कर देता है, जिनके द्वारा लोगों ने अपने जीवन और संसार को लेकर समझ बनाई है। यह संस्कृति और प्रकृति, तथ्य और मूल्य, मनुष्य और भूविज्ञान या मौसमविज्ञान के बीच संकट पैदा करता है।
मानव युग यानी एंथ्रोपोसीन की विभिन्न व्याख्याओं के बावजूद ऐसा प्रतीत होता है कि सभी इसके सबसे उग्र संदेश को व्यक्त कर रहे हैं। यह संदेश है कि यह युग मानव और प्रकृति को विभाजित करने वाली दरार में स्थायी भ्रंश को प्रदर्शित करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, इस नए युग में प्राकृतिक वातावरण के बारे में ज्यादा बात करने का कोई मतलब नहीं रह गया है। क्योंकि इस ग्रह पर चेतन या निर्जीव ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे मनुष्य ने छेड़छाड़ न की हो।
ड्यूक विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर और ‘ऑफ्टर नेचर: ए पॉलिटिक्स फॉर द एंथ्रोपोसीन’ पुस्तक के लेखक जेडेडिआ परडी के अनुसार, अब प्रश्न यह नहीं रहा कि मानव के हस्तक्षेप से प्रकृति को कैसे बचाया जाए; बल्कि सवाल यह है कि ऐसी दुनिया को हम क्या आकार देंगे, जिसे हम बदलने से नहीं रोक सकते हैं।
नये युग का सूत्रपात
पर्यावरण के वर्तमान और भावी खतरों को मद्देनजर रखने वाले मानव युग के किसी भी नये स्वरूप को नैतिकता और राजनीति के जटिल और विवादित सवालों से जूझना होगा। यहां कई बडे राजनीतिक सवाल खड़े होते हैं, जैसे कि इस नए संसार के निर्माण की कीमत किसे चुकानी चाहिए? क्या एंथ्रोपोसीन को गढ़ने वाले विकसित संसार को विकासशील दुनिया के उन लोगों की क्षतिपूर्ति नहीं करनी चाहिए, जो ऐसे पर्यावरण संकट की मार झेल रहे हैं, जिसमें उनका कोई दोष नहीं है? क्या भारत और चीन जैसी नई आर्थिक शक्तियों को भी प्रकृति के साथ वैसा ही विश्वासघात करना चाहिए, जिसने हम सबको मौजूदा संकट के दलदल में धकेल दिया है?
यहां कई जरूरी और व्यावहारिक सवाल भी खड़े होते हैं, जैसे कि क्या हमें सभी जीवों को संभावित विनाश से बचाना चाहिए? क्या वाकई हम ऐसा कर सकते हैं? क्या उस विज्ञान पर भरोसा किया जा सकता है, जिसने हमारे संसार की खामियों को सुधारने की जिम्मेदारी से बचने के लोभ में मानवता पर उल्टा प्रभाव डाला है? और क्या अपनी भौतिक लालसाओं को कम कर हमें आधुनिकीकरण के झूले से उतर जाना चाहिए और यथासंभव सहज जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए?
एंथ्रोपोसीन के बारे में मुक्तिप्रद विचारों की यह दुनिया मछली बाजार जैसी दिखती है। लेकिन ऐसा न हो, यह भी संभव नहीं है। क्योंकि जब हम मानव युग की बात करते हैं तो किसी एक मानव की बात नहीं होती। परडी लिखते हैं, “यह कहना कि हम ‘मानव युग’ में रह रहे हैं, एक तरीका है यह कहने का कि हम जिस तरह की दुिनया बना रहे हैं, उसकी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते हैं। यहां तक सब ठीक है। लेकिन समस्या तब शुरू होती है, जब मानव युग का यह आकर्षक और व्यापक विचार इस ग्रह की जिम्मेदारी उठाने की बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का जरिया बन जाता है।”
इस तरह आपके पास नेचर कंजर्वेंसी के मुख्य वैज्ञानिक पीटर कैरीवा जैसी यथास्थिति है, जिनका मानना है कि कूड़े-करकट के साथ काम की चीज को नहीं फेंक देना चाहिए। काम की वस्तु से उनका मतलब विज्ञान और बाजारू पूंजीवाद से है। उनका तर्क है कि पूंजीवाद को कोसने के बजाय विज्ञान आधारित प्रयासों के जरिये कंपनियों के साथ भागीदार बनना चाहिए ताकि उनके कार्यों और संस्कृति में प्रकृति के फायदों के महत्व को निहित किया जा सके। उनके कहने का अर्थ है कि हम प्रकृति को जिस तरह देखते-समझते हैं, वह निपट चुकी है और उसे बचाने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उसकी एक कीमत तय कर दी जाए और बाकी बाजार पर छोड़ दिया जाए। ताज्जुब की बात नहीं है कि नेचर कंजर्वेंसी पर्यावरण के मामले में कुख्यात नामों डाऊ, मोनसेंटो, कोका-कोला, पेप्सी, गोल्डमैन सैक्स और खनन कंपनी रियो टिंटो के साथ गलबहियां कर रही है।
केरिएवा के थोड़ा बायें तरफ जाने पर पर्यावरण आधुनिकतावादी हैं, जो ऐसे वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों का समूह है, जिनका दावा है कि प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और सेवाओं का प्रभावी उपयोग कर आधुनिक तकनीक जीवमंडल पर इंसानी प्रभावों को कम कर सकती हैं। इस तरह की तकनीकों को अपनाकर एक बेहतर मानव युग के रास्ते तलाशे जा सकते हैं।
थोड़ा और बायीं तरफ जाने पर आपको ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुट’, ‘थिंक ग्लोबल, एक्ट लोकल’ में यकीन रखने वाले प्रकृति प्रेमी मिलेंगे, जिनमें दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों तरह के लोग शामिल हैं। इनका मानना है कि टिकाऊ ‘मानव युग’ अल्प तकनीक, श्रम अाधारित उत्पादन, विवेकपूर्ण उपभोग और बराबरी के सिद्धांतों पर स्थापित होना चाहिए।
एंथ्रोपोसीन में दिलचस्पी रखने वालों में आपको ऐसे लोग भी मिलेंगे जो मानव युग की अवधारणा पर ही सवाल उठाते हैं। पर्यावरण इतिहासकार जेम्स डब्ल्यू मूर ऐसे ही व्यक्ति हैं। उनका तर्क है कि तकनीक और मानवता महज बलि के बकरे हैं। असली गुनहगार तो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाएं हैं, जिनका पर्यावरण और संस्कृति के प्रति रवैया वर्तमान संकट की ओर ले जाता है। इस वर्तमान युग को वास्तव में वह ‘केपिटलोसीन’ कहना पसंद करते हैं। उनका कहना है कि सबसे पहले हमें गैर-बराबरी वाले सत्ता संबंधों को दुरुस्त करने की जरूरत है जो एंथ्रोपोसीन को संचालित करते हैं।
आखिर में, जर्मन समाजशास्त्री और ‘टेक्नोह्यूमन कंडीशन’ पुस्तक के लेखक स्वर्गीय उलरिच बेक जैसे भाग्यवादी भी हैं, जो मानते हैं कि दुनिया मनुष्य के हाथ से निकल चुकी है। उलरिच बेक के शब्दों में, “न विज्ञान, न सत्तासीन राजनीति, न मास मीडिया, न व्यापार, न ही कानून और यहां तक कि सेना भी इस खतरे को समझने और इसे नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं है।”
फिर ऐसी वैचारिक अराजकता की स्थिति में एक आदमी क्या कर सकता है। सिवाय इसके कि व्यक्तिगत कल्पना के बिल में घुस जाए? इस मानव युग में जो कुछ भी दांव पर लगा है, उसे संरक्षित करने का शायद यही एकमात्र तरीका है। ऐसी जीवन शैली जो खास तरह के राजनीतिक, नैतिक और सौंदर्य मूल्यों को संरक्षित करती है। जैसा कि परडी लिखते हैं, “एंथ्रोपोसीन के बारे में कोई भी पुनर्विचार जीवन से जुड़े ऐसे सवालों के जवाब देगा जैसे कि जीवन का मोल क्या है, लोग एक-दूसरे के कितने कर्जदार हैं और संसार में ऐसा अद्भुत और सुंदर क्या है कि जिसे बचाया या फिर से संवारा जाना ही चाहिए। इन सवालों के जवाब या तो मौजूदा असमानता को बढ़ाएंगे या फिर सत्ता के एक अलग तर्क को गति प्रदान करेंगे। या तो यह मानव युग बहुत लोकतांत्रिक होगा या फिर बहुत भयावह।”
ऐसी अनिश्चितता की स्थिति में उम्मीद की जा सकती है कि एंथ्रोपोसीन यानी ‘मानव युग’ कम से कम लोकतांत्रिक जरूर हो, क्योंकि परडी के ही शब्दों में, “सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और राजनेता ऐसी चुनौतियां और समाधान गढ़ते हैं, जो हममें से कुछ लोगों को थोड़े बेहतर या बदतर संसार के कुछ करीब पहुंचा देते हैं।”
We are a voice to you; you have been a support to us. Together we build journalism that is independent, credible and fearless. You can further help us by making a donation. This will mean a lot for our ability to bring you news, perspectives and analysis from the ground so that we can make change together.
Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.