Natural Disasters

बिहार में बाढ़ के लिए कितना जिम्मेदार फरक्का?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गंगा नदी पर बने फरक्का बैराज को हटाने की मांग की है। आखिर उथली होती गंगा और बिहार में बाढ़ के लिए फरक्का कितना जिम्मेदार है?

 
By Archana Yadav
Published: Saturday 15 July 2017
मुर्शीदाबाद में कटाव रोकने के उपाय जैसे गनी बैग और बांस के बने पॉर्क्युपायन विफल रहे हैं। चूंकि बैराज से मुर्शीदाबाद में छोड़े गए पानी में गाद बहुत कम है, इसकी कटाव क्षमता अधिक है (आरती कुमार-राव)

फरक्का बैराज के लिए विवाद कोई नई बात नहीं है। गंगा नदी के पश्चिम बंगाल में प्रवेश करते ही उस पर बने इस बैराज पर उंगली तभी उठ गई थी जब इसका निर्माण शुरू भी नहीं हुआ था। 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल के दूरदर्शी इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने चेतावनी दी थी कि फरक्का के कारण बंगाल के मालदा व मुर्शीदाबाद के साथ बिहार के पटना, बरौनी, मुंगेर, भागलपुर और पूर्णिया हर साल पानी में डूबेंगे। भट्टाचार्य का तर्क था कि फरक्का बैराज से पैदा हुई रुकावट के कारण गंगा की गति धीमी हो जाएगी और पानी में बहकर आई गाद गंगा के तल में जमने लगेगी, जिससे गंगा उथली होने लगेगी। जैसे-जैसे गंगा उथली होगी, वैसे-वैसे उसका बाढ़ का प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ेगा।

भट्टाचार्य ने बैराज की जल निष्कासित करने की क्षमता पर भी सवाल खड़े किए। 1971 में जब यह बैराज बनकर तैयार हुआ ही था, बिहार में पिछली अर्धशताब्दी की सबसे बड़ी बाढ़ आई। बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता रंजीव और पत्रकार हेमंत ने अपनी किताब ‘जब नदी बंधी’ में लिखा है, “उस वर्ष फरक्का बैराज अपने डिजाइन डिस्चार्ज के अनुकूल 27 लाख घनसेक जल प्रवाह भी निष्कासित नहीं कर सका। उस वर्ष मात्र 23 लाख घनसेक जल प्रवाह का निष्कासन फरक्का बांध कर सका।”

फिर 2016 में बिहार में पिछले दशक की सबसे बड़ी बाढ़ आई। पटना जिले में गांधीघाट और हाथीदा और भागलपुर मे गंगा के जलस्तर के पिछले रिकॉर्ड टूट गए (देखें: ‘क्या हुआ था 2016 की बाढ़ में?’)। लगभग 250 जानें गईं और 31 जिले प्रभावित हुए। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात कर फरक्का को हटाने की मांग कर डाली। आज बिहार सरकार मानो भट्टाचार्य की कही हुई हर बात दोहरा रही है। नीतीश कुमार का कहना है कि गंगा उथली हो गई है और पानी को निकास देने में पहले जैसी समर्थ नहीं रह गई है। इसलिए जब तक गंगा में जमी गाद नहीं निकाली जाएगी तब तक बिहार में लगभग हर साल आने वाली बाढ़ का सिलसिला नहीं थमेगा। गंगा के किनारे रहने वाले और नदी पर शोध करने वाले अधिकतर लोग मानते हैं कि फरक्का इसकी एक वजह है, पर फरक्का ही एक वजह है, ऐसा नहीं है (इस पर बाद में चर्चा करेंगे)।

क्या हुआ था 2016 की बाढ़ में?
 
बिहार के जल संसाधन विभाग के अनुसार 21 अगस्त को पटना में भारी बाढ़ आई थी, जिसमें पटना का जलप्रवाह 32 लाख घनसेक नापा गया था। यह एक रिकॉर्ड था, वो भी ऐसे समय में जब बिहार में सामान्य से कम बारिश हुई थी। इस जल प्रवाह में एक बड़ा हिस्सा सोन नदी पर बने बाणसागर बांध से अचानक छोड़ा गया 5 लाख घनसेक पानी और इसी नदी की एक सहायक नदी उत्तर कोयल से आया 11.69 लाख घनसेक पानी का था। अगर पानी अचानक न छोड़ा जाता तो शायद इतनी भीषण बाढ़ न आती। पर बिहार सरकार की शिकायत है कि 21 अगस्त को आए उच्चतम प्रवाह को पटना से फरक्का तक की 370 किलोमीटर की दूरी तय करने में आठ दिन लग गए। जबकि बक्सर से पटना तक की 143 किलोमीटर की दूरी तय करने में पानी को केवल 4 घंटे ही लगते हैं।



गाद का सैलाब
 
गंगा बिहार के ठीक मध्य से होकर गुजरती है। यह पश्चिम में बक्सर जिले से राज्य में प्रवेश करती है और भागलपुर तक 445 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई झारखंड और फिर बंगाल में प्रवेश कर जाती है (नक्शा देखें)। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर के प्रोफेसर राजीव सिन्हा ने हाल में गंगा का हवाई सर्वे किया है। वह बताते हैं, “गाद का जमाव सचमुच में बहुत ज्यादा है। यह अविश्वसनीय है!” सिन्हा गंगा में गाद की समस्या का अध्ययन करने के लिए बिहार सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ दल के सदस्य हैं।

बिहार में प्रवेश करने के तुरंत बाद गंगा 10-12 किलोमीटर चौड़े इलाके में फैल जाती है। नदी के बीच में बड़े-बड़े स्थायी टापू बन गए हैं। बिहार के जल संसाधन विभाग के सूत्रों के अनुसार, गैर बरसाती मौसम में अधिकतर स्थानों पर नब्बे के दशक से पहले गंगा की गहराई 9-10 मीटर हुआ करती थी, जो अब घटकर 4-6 मीटर रह गई है। गाद और फरक्का पर जब डाउन टू अर्थ ने केंद्रीय जल आयोग, गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग और केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय से बात करनी चाही तो लगा जैसे नाव किसी गाद से पटी धारा में डाल दी हो। बात आगे ही नहीं बढ़ती थी, न कहीं से किसी प्रश्न का उत्तर मिला। बिहार राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के उपाध्यक्ष व्यासजी कहते हैं, “केंद्रीय जल आयोग ने इसे सिरे से नकार दिया है। वह गाद की समस्या को मानने को तैयार ही नहीं है।”

मुंगेर के नारायण सैनी बताते हैं कि  एक समय गंगा में 3० से ४० हाथ पानी था,  जो अब आठ-दस हाथ ही रह गया है।   नदी के बीच में बने इस टापू पर खेती की कोशिश हो रही है (अर्चना यादव / सीएसई)

फरक्का की वजह से इसके ठीक ऊपर और नीचे पश्चिम बंगाल में गंगा का स्वरूप किस तरह बदला है, इस पर वैज्ञानिकों ने काफी कुछ लिखा है। पर बिहार में फरक्का के प्रभावों की जानकारी गंगा से जुड़े लोगों से ही मिलती है। और नदी को मछुआरों और मल्लाहों से बेहतर कौन जानता है?

मुंगेर जिले में गंगा किनारे मछुआरों की एक बड़ी सी बस्ती है, सैनी टोला। इसके निवासी 60 साल के नारायण सैनी को वह दिन याद है जब गंगा में “30 से 40 हाथ” पानी होता था। “अब तो यह बस आठ से दस हाथ गहरी रह गई है।” उनके आसपास बैठे लोग बताते हैं कि पहले इतना बहाव था कि बस्ती के बीच तक कलकल ध्वनि सुनाई पड़ती थी। सैनी को कोई संदेह नहीं कि परिवर्तन की वजह फरक्का है। वह पूछते हैं “आप नाली में ईंटा रख दें तो नाली का बहाव रुकेगा कि नहीं?”

बात को और समझाने के लिए सैनी हमें नाव से गंगा के बीच ले जाते हैं। नदी मंद गति से बह रही है। वह सतह पर हो रही एक हल्की सी हरकत की तरफ इशारा करते हैं जो लहरों से भिन्न है। उन्होंने बताया,“ये देख रहे हैं। ये जो भरका उठ रहा है, इसका मतलब है यहां मिट्टी खंगल रही है। पहले खूब भरका उठता था।” जब नदी में बहाव होता है तो वह अपना तल खंगालती हुई गाद को बहा ले जाती है।

बाढ़, एक ठहरा हुआ मेहमान

उथली होने के साथ गंगा का स्वभाव भी बदला है। बिहार के बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक दिनेश कुमार मिश्र लिखते हैं, “बरसात के मौसम में तो गंगा एक तरह से फरक्का में ठहर सी गई। इसका असर गंगा की सहायक धाराओं पर पड़ा जो नदी के दोनों किनारों पर आकर गंगा में समा जाती है। गंगा से उनके संगम स्थल पर भी मुहाने उसी तरह से बाधित हुए और बाढ़ों के समय उनमें भी पानी की समुचित निकासी नहीं हो पा रही थी।”

इनसेट मैप स्रोत: राजीव सिन्हा & संतोष घोष (2012), ‘अंडरर्स्टैंडिंग डायनामिक्स आफ लार्ज रिवर्स ऐडिड बाई सैटेलाइट रेमोट सेन्सिंग: अ केस स्टडी फ्रौम लोअर गंगा प्लेेन्स, इंडिया’, जीयोकार्टो इंटरनैशनल

पिछले साल की बाढ़ में कुछ ऐसा ही हुआ। चूंकि गंगा का स्तर ऊंचा था, इसने पटना से लेकर कटिहार तक अपने में मिलने वाली सहायक नदियों—गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी, पुनपुन, किऊल-हरोहर—का बहाव देर तक पीछे धकेल दिया। नतीजतन, बहुत बड़ा इलाका लंबे समय तक पानी में डूबा रहा।

मुंगेर में पत्रकार कुमार कृष्णन बताते हैं कि पूर्वी बिहार में गंगा किनारे के इलाकों में पहले बाढ़ का पानी ठहरता नहीं था, हफ्ते दो हफ्ते में निकल जाता था। पर अब दो-तीन महीने रहता है, जिससे बरसात के मौसम में होने वाली फसल मारी जाती है। बगल के भागलपुर शहर के बाहर, साठ वर्षीय किसान कैलाश यादव कहते हैं, “पहले बाढ़ के बाद दाना छींट देते थे तो काफी मक्का हो जाता था। फिर उड़द और गेहूं भी कर लेते थे। पर अब साल में एक ही फसल होती है।” नदी यहां से तीन किलोमीटर दूर जा चुकी है, और आसपास के खेतों में चारे के लिए ‘सुदान’ घास उगाई हुई है।

पैंतीस किलोमीटर दूर कहलगांव की मछुआरा बस्ती कागजी टोला के निवासी योगेन्द्र सैनी का कहना है कि पहले दियारा क्षेत्र (नदी में उभरे विशाल टापू) के लोगों को पता होता था कि कितना पानी आएगा और कब तक ठहरेगा। “अब बाढ़ का समय और सीमा का पता नहीं चलता। महीनों पानी नहीं निकलता,” उन्होंने बताया।



बिन मछली सब सून

बाढ़ की खबर ज्यादा ध्यान आकर्षित करती है, पर फरक्का के दुष्परिणाम बाढ़ तक सीमित नहीं हैं। बिहार में मुंगेर से लेकर झारखंड के साहिबगंज तक नारायण और योगेन्द्र सैनी समेत जितने भी मछुआरों से बात हुई, उन सभी का कहना है कि पहले गंगा में तमाम किस्म की मछलियां मिलती थीं, जैसे हिलसा, झींगा, पंगास, सौकची, कुर्सा, कठिया, गुल्ला, महसीर, कतला, रेहू, सिंघा, जो अब मुश्किल से ही दिखती हैं। हिलसा तो फरक्का के ऊपर लगभग लुप्त हो गई है। यह मछली प्रजनन के लिए समुद्र से नदी के मीठे पानी में जाती है। फरक्का ने हिलसा का रास्ता रोक दिया है। मछलियों के लुप्त होने के लिए यहां के निवासी बैराज के अलावा नदी किनारे बने ईंट के भट्टे, रेत खनन, प्रदूषण, गलत तरीके से मछली पकड़ने और विदेशी मछलियों को भी जिम्मेदार मानते हैं।

फरक्का के दुष्परिणामों को यहां सबसे पहले मछुआरों ने ही भांप लिया था। बिहार के गंगा मुक्ति आंदोलन के अनिल प्रकाश बताते हैं कि 35 साल पहले जब वह घूम-घूम कर मछुआरों को गंगा पर जमींदारों के कब्जे के विरुद्ध खड़ा कर रहे थे तो हर मछुआरा उनसे यही कहता था कि फरक्का को तुड़वाओ। उन्होंने बताया, “मैं सोचता था कि ये लोग ऐसा क्यों कह रहे हैं। अच्छा-खासा बैराज बनाया है। मछुआरों का कहना था कि फरक्का की वजह से गंगा में मछलियां खत्म हो रही हैं। बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक के एस बिलग्रामी और जे एस दत्ता मुंशी ने बताया कि मछुआरे ठीक कह रहे हैं। वे गंगा की परिस्थितिकी (इकॉलजी) पर शोध कर चुके थे।”

अनिल प्रकाश के मुताबिक, गंगा और उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियां समाप्त हो गईं। इसके साथ ही लाखों-लाख मछुआरे बेरोजगार हो गए। कहलगांव के योगेन्द्र सैनी बताते हैं कि उनकी कागजी टोला मछुआरा बस्ती से लगभग चालीस प्रतिशत लोग काम की तलाश में पलायन कर गए हैं। लोगों के अपने परंपरागत व्यवसाय से बेदखल होने का एक असर ये हुआ कि पूरे दियारा क्षेत्र में आपराधिक गतिविधियां बढ़ी हैं। मुंगेर में वकील और क्राइम संवाददाता चौंसठ साल के अवधेश कुमार कहते हैं, “जो लोग मछली पकड़ने और खेती पर आश्रित थे, वे अब शराब और चोरी-चकारी में लग गए हैं।”

गंगा मुक्ति आन्दोलन से जुड़े उदय कहते हैं, “नदी पर पहला हक मछुआरों का है। उसके बाद किसान और आस्थावानों का। मछुआåरे जिस रूप में नदी को देखते हैं वह बिलकुल भिन्न है।” पर फरक्का पर आज की चर्चा में मछुआरों और किसानों की आवाज नहीं सुनाई देती।

जमीन निगलती गंगा

भागलपुर में लोगों का यह भी मानना है कि गंगा अब ज्यादा रफ्तार से अपना रास्ता बदल रही है, जिससे कटाव बढ़ा है। जब नदी उथली होती है तो फैलने लगती है और अपने किनारों पर दबाव डालती है। नीतीश कुमार का कहना है कि पिछले पांच सालों में “बिहार जैसे गरीब राज्य” को 1,058 करोड़ रुपए जमीन के कटाव और बाढ़ के तत्काल प्रभाव को रोकने पर खर्च करने पड़े हैं।

फरक्का के नजदीक कटाव और भी गंभीर है। पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में नदी कई धाराओं में बंटकर 10-15 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में फैल गई है। बैराज की रुकावट से नदी का पानी पीछे की तरफ फैला है। यहां गंगा के दाहिने किनारे पर राजमहल की पथरीली पहाड़ियां पानी को रोकती हैं। अतः नदी के बाएं किनारे ने फैलते हुए एक बड़ा सा घुमाव लिया है। घुमाव लेने में इसने जमीन का एक बड़ा हिस्सा निगल लिया है और लगभग इतना ही बड़ा हिस्सा टापुओं के रूप में उगला भी है, जिन्हें यहां के लोग चार कहते हैं। नदी विशेषज्ञ कल्याण रुद्र ने फरक्का पर गहरा शोध किया है। उनकी 2004 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1979 और 2004 के बीच मालदा में 4,247 हेक्टेयर जमीन कट गई थी।

बंगाल के मालदा जिले में गंगा के बीच बने टापुओं पर करीब  ४०,००० बच्चों को टीकाकरण  की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है (भास्करज्योति गोस्वामी / सीएसई)

कलियाचक ब्लाक दो में कटाव से प्रभावित लोगों की समिति, गंगा भंगन प्रतिरोध एक्शन नागरिक कमिटी, के सचिव मुहम्मद बक्श पगला घाट पर बने तटबंध को दिखाते हुए बताते हैं कि यह आठवां “रिटायर्ड” तटबंध है। इससे पहले के सारे तटबंध एक-एक करके निगलती हुई गंगा 10 किलोमीटर दूर चली आई है। डर है कि यहां से कहीं गंगा अपने पुराने रास्ते से होकर न निकल जाए। अगर ऐसा हुआ तो यह बैराज को बाईपास कर जाएगी। बक्श का अनुमान है कि मालदा में पांच से दस लाख लोग कटाव से प्रभावित हुए हैं। कुछ लोग तो 16 बार तक विस्थापित हो चुके हैं। किसी को कोई मुआवजा नहीं मिला। बक्श कहते हैं कि इनमें से आधे लोग तो बगल में बांग्लादेश के दिनाजपुर इलाके में पलायन कर गए हैं और करीब दो लाख लोग इन टापुओं पर रहते हैं।

ऐसे ही एक टापू हमीदपुर चार पर जानकी टोला गांव है। इसके निवासी राजेंद्र नाथ मंडल बताते हैं कि वह 1966 में पैदा हुए थे। यह साल महत्वपूर्ण है क्योंकि तब बैराज का निर्माण कार्य शुरू हुए चार साल हो चुके थे और शायद तभी से नदी का कटाव तीव्र हुआ होगा। पैदा होने के पहले क्षण से ही मंडल ने अपने आसपास तेजी से होता कटाव देखा है। उन्होंने बताया, “जब मैं पैदा हुआ, जमीन कट रही थी। मेरे पैदा होते ही मेरी मां मुझे लेकर उठ गई और नाव में बैठ गई।” मंडल के दादा के पास पंचानंदपुर में 135 बीघा जमीन थी, जो नदी में समा चुकी है। तीस-चालीस साल पहले पंचानंदपुर एक बड़ा व्यापार केंद्र था। मंडल वहां मिठाई की दुकान चलाते थे। जब नदी दुकान के पास पहुंची तो वह उस जगह को छोड़कर ससुराल चले गए। जब नदी वहां भी पहुंच गई तो वह 2003 में इस टापू पर आ गए। “तब यहां कोई नहीं रहता था। सब तरफ जंगल था। मैंने जंगल साफ करके धान बोना शुरू किया और दूसरों को सिखाया।” मंडल अब बंटाई पर ली हुई पांच एकड़ जमीन पर खेती करते हैं और मवेशी पालते हैं।

नागरिक कमिटी के अध्यक्ष तजमुल हक का कहना है कि समिति की कोशिशों से कम से कम हामीदपुर टापू पर स्कूल में अध्यापक और क्लिनिक में डॉक्टर तो आते हैं, बाकी के अधिकतर टापुओं पर स्कूल और क्लिनिक केवल नाम के हैं। उन्होंने कहा, “वहां लगभग चालीस हजार बच्चों को टीकाकरण की सहूलियत भी उपलब्ध नहीं है।”

बैराज के दुष्परिणामों का सिलसिला फरक्का पर आकर खत्म नहीं हो जाता। इससे नीचे मुर्शीदाबाद में भी भीषण कटाव हुआ है। क्योंकि फरक्का बैराज से गाद को छानकर पानी भागीरथी-हुगली में भेजा जाता है, इस पानी की कटाव क्षमता अधिक है। जो गाद फरक्का पर रुक जाती है वह गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा के हिस्से की है। गाद के अभाव में डेल्टा समुद्र की भेंट चढ़ने लगते हैं। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा भी धीरे-धीरे समुद्र में समा रहा है। इसका एक कारण है ग्लोबल वार्मिंग की वजह से चढ़ता समुद्र का जल स्तर और दूसरा कारण है गाद की घटती मात्रा, जिसमें थोड़ा योगदान फरक्का का भी है।

पटना में बन रहे ‘गंगा पाथ’ के निर्माण में अनुमति न होते हुए भी गंगा में मिट्टी डाल कर रास्ता भर दिया गया है। गंगा के किनारे इस तरह की छेड़खानी से भी नदी की सेहत बिगड़ी है (अर्चना यादव / सीएसई)

बीमारी के अनेक कारण

गंगा के बदलते स्वरूप और इसके भयंकर परिणामों से इनकार नहीं किया जा सकता। पर सारा दोष फरक्का पर मढ़ना भी सही नहीं।

आईआईटी कानपुर के राजीव सिन्हा कहते हैं कि बिहार एक तो वैसे ही निचला इलाका है, जहां स्वभाविक रूप से गंगा में वेग घटने लगता है, ऊपर से पटना और फरक्का के बीच दुनिया में सबसे ज्यादा गाद लाने वाली नदियों में से तीन, कोसी, गंडक और घाघरा, यहां गंगा में मिलती हैं। इसलिए प्राकृतिक रूप से यहां गंगा में बहुत गाद आती है जो इन नदियों के मुहाने पर जमा हो जाती है।  

गंगा के उथले होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि इसमें पहले जैसा प्रवाह नहीं रहा जो गाद को बहाकर ले जाए। पिछले कुछ दशकों में गंगा और इसकी सहायक नदियों पर ढेरों बांध और बैराज बने हैं। गंगा जब बिहार में प्रवेश करती है तो इसका अपना पानी लगभग समाप्त हो चुका होता है। फिर मानसून में बारिश भी पहले की तरह नहीं होती। दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान केंद्र के विभागाध्यक्ष और क्लाइमेट मॉडलिंग के विशेषज्ञ प्रधान पार्थ सारथी बताते हैं कि गंगा के जलग्रहण क्षेत्र में दीर्घकालिक बारिश के दौर घटे हैं, जिसकी वजह से नदी में निरंतर प्रवाह नहीं रहता जो गाद को बहाने में सहायक है।

डॉल्फिन विशेषज्ञ और राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के विशेषज्ञ सदस्य रह चुके रविन्द्र कुमार सिन्हा ध्यान दिलाते हैं, “मानसून के बाद नदी में पानी हिमनद (ग्लेशियर) या भूगर्भ से आता है और भूगर्भ में पानी वेटलैंड से आता है। पर वेटलैंड को तो हमने खत्म कर दिया। इसलिए जलस्तर नीचे जा रहा है। जब जलस्तर गिर रहा है तो नदी को आप कैसे रीचार्ज करेंगे?”

सिन्हा का यह भी मानना है कि मध्य और पूर्वी हिमालय में जंगलों के कटने से वहां से निकलने वाली बिहार की नदियों में गाद बढ़ी है। सिन्हा ने कई बार छोटी नाव से गंगा की यात्रा की है। वह बताते हैं कि अस्सी के दशक तक गंगा के बाढ़ क्षेत्र में प्राकृतिक वनस्पति दिखाई देती थी जो अब खत्म हो गई है। वहां अब खेती हो रही है। नब्बे के दशक में बिल्डिंग बूम आया और जगह-जगह ईंट के भट्टे नदी किनारे बना दिए गए। रेत का खनन होने लगा। “इन सब का मिला जुला असर है कि गाद ज्यादा पैदा हो रही है। इसलिए बीमारी का कोई एक कारण नहीं, अनेक हैं।”

साहिबगंज में गंगा की एक मरणासन्न धारा। नदी विशेषज्ञों का कहना है कि गंगा में जमती गाद का एक कारण नदी में घटता प्रवाह है जो गाद को बहा ले जाने में अक्षम है (अर्चना यादव / सीएसई )

गाद का साध

गाद को बहने ही नहीं, फैलने भी दिया जाए

नदी केवल बहता पानी नहीं है। गाद इसका अविभाज्य अंग है। गंगा और डॉल्फिन पर काफी शोध कर चुके जीव विज्ञानी रविन्द्र कुमार सिन्हा कहते हैं, “गाद के बिना तो नदियां मर जाएंगी। गाद नहीं होगी तो जैव-विविधता भी नहीं होगी।” गाद और रेत से बने टापुओं पर कई तरह के पक्षी और जलीय जीव रहते हैं। मछलियां जब धारा के विपरीत चलती हैं तो जरूरत पड़ने पर इन टापुओं के पीछे आकर रुकती हैं और यहां जमा सड़े जैविक पदार्थों को खाती हैं। गाद अपने साथ पोषक तत्वों को भी एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है। रेत पानी को सोख कर सुरक्षित रखता है। कंकड़ पानी के प्रवाह में हलचल पैदा कर उसमें ऑक्सीजन घोलते हैं। अतः मछलियों के अंडे देने के लिए उपयुक्त जगह बनाते हैं। गाद जब बाढ़ के पानी के साथ आसपास के इलाके में फैलती है, तो उसमें निहित उर्वरक तत्त्व जमीन को उपजाऊ बनाते हैं।

गाद समस्या तब बन जाती है जब यह बह या फैल नहीं पाती और नदी के पेट में जमा होने लगती है, पर बड़े स्तर पर गाद को नदी से निकालना न तो आसान है और न ही वांछनीय। अव्वल तो इतनी सारी गाद निकालने के लिए बड़ी मात्रा में संसाधन जुटाने होंगे और अगर निकाल भी ली जाए तो किसी के पास कोई पुख्ता उपाय नहीं है कि इसे डालेंगे कहां। नदी विशेषज्ञ कलायन रुद्र के अनुसार, केवल फरक्का के पीछे जमी गाद निकालने के लिए जितने ट्रकों की जरूरत होगी उन्हें अगर कतार में खड़ा कर दिया जाए तो यह कतार पृथ्वी के 126 चक्कर पूरे कर लेगी। इस गाद को समुद्र तक ले जाने का खर्च भारत सरकार की सालाना आय का दोगुना होगा। यह अनुमान बारह साल पुराना है, तब से गाद और बढ़ चुकी है।  

हाल में गंगा से गाद निकालने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने के लिए बनी एम ए चितले समिति ने गाद निकालने को लेकर अत्यंत सावधानी बरतने की हिदायत दी है वर्ना इसके विपरीत परिणाम हो सकते हैं, जैसे किनारों का कटाव और पानी के स्तर में गिरावट। इस साल जमा की गई अपनी रिपोर्ट में चितले समिति ने कहा है कि गाद निकालने का काम सिर्फ कुछ ही जगहों पर और वो भी वैज्ञानिक जांच के बाद ही होना चाहिए।

आखिर कितनी गाद?
 
गंगा के प्रवाह और गाद से जुड़े ताजा आंकड़े हासिल करना आसान नहीं है, क्योंकि यह क्लासीफाइड जानकारी के तहत आते हैं। नजर अब्बास और वी सुब्रमनियन के 1984 के अध्ययन के अनुसार, फरक्का पर गंगा में हर साल 80 करोड़ टन गाद आती है। आर जे वासन के 2003 के अध्ययन के अनुसार 73.6 करोड़ टन गाद आती है। बिहार के सिंचाई विभाग का 1999 में अनुमान था 30.1 टन। गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग द्वारा गंगा की उड़ाही पर बनी चितले समिति को पिछले साल सौंपे गए आंकड़ों के अनुसार यह महज 21.8 करोड़ टन है। अधिकतर लोग सरकारी आंकड़ों से सहमत नहीं हैं। नदी विशेषज्ञ कल्याण रुद्र का 2004 में अनुमान था कि हर साल फरक्का में 72.9 करोड़ टन गाद आती है, जिसमें से 32.8 करोड़ टन बैराज के पीछे रुक जाती है।



इसलिए जब केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती कहती हैं कि जलमार्ग मंत्रालय नदियों की उड़ाही (ड्रेजिंग) कर के गाद की समस्या हल कर देगा तो शक होता है कि आखिर वह नदियों के स्वास्थ्य को लेकर कितनी गंभीर हैं। बिहार में फिलहाल गंगा जलमार्ग के लिए हो रही उड़ाही को रोक दिया गया है।

तो आखिर नदियों के उथलेपन का उपाय क्या है? इसके लिए तीन काम करने होंगे। पहला तो यह कि जैसा चितले समिति ने कहा है, गाद को रास्ता दिया जाए। दूसरा यह कि पानी का प्रवाह बढ़ाया जाए ताकि वह गाद को बहाकर ले जाए। और तीसरा, नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में मिट्टी के कटाव को रोका जाए, ताकि नदियों में गाद कम आए।

पर भारत में चालू शायद ही किसी बांध या बैराज में गाद के बहने का कोई उपाय है। जल संसाधन मंत्रालय, जैसा कि नाम से ही झलकता है, नदियों को महज जल संसाधन के रूप में देखता है। गाद की तरफ कभी इसका ध्यान ही नहीं गया। जबकि गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली में गाद की मात्रा दुनिया में सबसे अधिक है। गंगा का मैदान और बंगाल का डेल्टा इसी गाद से बने हैं।

फरक्का बैराज के फाटक 15 मीटर से ऊंचे हैं और यह 87 मिलियन घन मीटर पानी रोक कर रखते हैं, इस लिहाज से यह एक विशाल बांध है (भास्करज्योति गोस्वामी / सीएसई)

आइआइटी कानपुर के राजीव सिन्हा का कहना है कि “फरक्का के  डिजाइन और रखरखाव को बेहतर करने से स्थिति में काफी हद तक सुधार आ सकता है (देखें: ‘तोड़ दिया जाए, या...’)। पर मेरा विचार है कि यह काफी नहीं होगा। गंगा में गाद इस हद तक जम चुकी है कि अब आप अगर पचास साल पहले वाला प्रवाह भी पैदा कर दें तो भी इसे बहा कर साफ नहीं कर सकते। इसलिए आपको कुछ जगहों पर नियंत्रित तरीके से गाद निकालनी ही पड़ेगी।” अतः पहला कदम होना चाहिए फरक्का बैराज के रखरखाव, संचालन और डिजाइन का पुनरावलोकन और दूसरा उन जगहों को चिह्नित करना जहां गाद निकालना जरूरी है।

गाद को रास्ता देने का एक दूसरा आयाम भी है। वह है नदियों को बाढ़ के समय दोनों तरफ फैलने देना। यह भूजल पुनर्भरण के लिए भी जरूरी है। रुद्र कहते हैं, “बाढ़ से पूरी तरह मुक्ति वांछनीय नहीं है।” जरूरत है बाढ़ के पानी को नदी किनारे निचले इलाकों और झीलों में रोक कर रखने की। और जरूरत पड़ने पर इन झीलों और तालाबों से गाद निकाली जा सकती है। पर बिहार में गंगा कि सहायक नदियों के किनारे बने तटबंधों का जाल सा बिछा हुआ है, जो गाद को विस्तृत क्षेत्र में फैलने से रोकता है। परिणामस्वरूप गाद नदियों के तल में जम रही है और नदियों का तल ऊपर उठ रहा है। नतीजा यह है की पिछले छह दशकों में बिहार का बाढ़ क्षेत्र तिगुना हो गया है। बिहार चाहे तो इस पर पहल कर सकता है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय गाद नीति की मांग की है जो जरूरी है। क्यों न इसकी शुरुआत बिहार से हो? क्यों न बिहार अध्ययन करे कि राज्य में कितनी गाद कहां से आ रही है और तय करे कि नदियों का बाढ़ क्षेत्र कितना है जहां कोई दखल न हो?

गंगा में 80 प्रतिशत गाद खड़ी ढाल वाले हिमालय के उन ऊंचे पहाड़ों से आती है जहां जंगल कम हैं और व्यापक चराई होती है। इस जल ग्रहण क्षेत्र में वनों के कटाव और उससे होने वाले भूमि क्षरण को अगर रोका जाए तो गाद की मात्रा कुछ कम हो सकती है। इसके लिए नेपाल के सहयोग की जरूरत है। केंद्र सरकार इस पर पहल कर सकती है।

बिहार सरकार ने गंगा की अविरलता पर पटना में एक सेमिनार आयोजित करके एक “पटना डेक्लेरेशन” स्वीकार किया है। इसमें “सिविलाइजेशनल रीफोर्म” की बात की गई है। यह दो तरह से हो सकते हैं। एक, जिसमें हम नदी के साथ अपना बर्ताव बदलने के बजाए उसके दुष्परिणामों से बचने के लिए सारी तकनीक झोंक दें। और दूसरा, हम नदी के समग्र और जीवंत रूप का आदर करते हुए अपनी नीति बदलें।

तोड़ दिया जाए, या...
 
दोष फरक्का बैराज के डिजाइन का ही नहीं, इसके रखरखाव का भी है

फरक्का बैराज गंगा डेल्टा के शुरुआती छोर पर बना है। यहां से गंगा दो भागों में बंट जाती है। एक जो आगे जाकर भागीरथी और फिर हुगली कहलाती है, दूसरी जो बांग्लादेश में जा कर पद्मा कहलाती है। इस बैराज का निर्माण भागीरथी-हुगली नदी में प्रवाह बढ़ाकर कोलकाता पोर्ट को जिलाने के लिए किया गया था। योजना यह थी कि बैराज से 40,000 घनसेक पानी हुगली में छोड़ा जाएगा जो नदी की गाद को समुद्र तक धकेल कर इसे जहाजों की आवाजाही के लायक बनाए रखेगा। हालांकि इसमें कोई खास सफलता नहीं मिली।

यह बैराज 2.6 किलोमीटर लंबा है और इसके दाहिने छोर से 38 किलोमीटर लंबी नहर भागीरथी-हुगली में पानी ले जाती है। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल की परिणीता दांडेकर तो इसे बैराज भी नहीं मानतीं। उनका कहना है चूंकि इसके फाटक 15 मीटर से ऊंचे हैं और यह 87 मिलियन घन मीटर पानी रोक कर रखते हैं, इस लिहाज से यह एक विशाल बांध है। गाद को रास्ता देने के लिए बैराज में 24 अंदरूनी जलद्वार (अंडरस्लूस) हैं। पर नदी वैज्ञानिक राजीव सिन्हा का कहना है कि ये अंदरूनी जलद्वार गाद में धंस चुके हैं और इसके साथ ही बैराज की गाद को रास्ता देने की क्षमता खत्म हो चुकी है। फरक्का बैराज प्रोजेक्ट के जनरल मैनेजर ने यह कहते हुए बैराज पर टिप्पणी करने से मना कर दिया कि वह इसके लिए अधिकृत नहीं हैं।

क्या फरक्का के सारे गेट खोल देने या सब में अंदरूनी जलद्वार लगाने से कोई हल निकलेगा? राजीव सिन्हा कहते हैं कि गंगा में गाद इतनी ज्यादा आती है कि सारी अंदरूनी जलद्वार के जरिये नहीं धकेली जा सकती। दूसरी अड़चन यह है कि फरक्का पर गंगा का बहाव सीधा न होकर तिरछा है। नतीजतन दाईं तरफ नदी का बहाव ज्यादा है, जबकि इस हिस्से की जल (और गाद) प्रवाह क्षमता सीमित है।

तो क्या फरक्का बैराज को बंद किया या तोड़ा जा सकता है? रुद्र मानते हैं कि यह सही नहीं होगा। वह कहते हैं, “हालांकि मैंने फरक्का की काफी आलोचना की है, मैं मानता हूं कि यह बैराज एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। फरक्का बैराज ने बंगाल के मुर्शीदाबाद और नदिया जिले से होकर बहते भागीरथी-हुगली नदी 220 किलोमीटर के हिस्से को पुनः जीवित कर दिया है। यह हिस्सा गंगा डॉल्फिन का घर है। यह हिलसा के प्रजनन की जगह भी है। यहां नदी ने अपने आपको बदले हालात के अनुरूप ढाल लिया है।” फरक्का भागीरथी-हुगली के किनारे बसी 44 नगर पालिकाओं में पानी की जरूरत को भी पूरा करता है। यह घनी आबादी वाला क्षेत्र है जिसमें कोलकाता भी शामिल है। बैराज की वजह से हुगली के निचले हिस्से में खारापन कम हुआ है। “अगर आप फरक्का को बंद कर देंगे तो यह नदी सूख जाएगी,” रुद्र कहते हैं। बैराज तोड़ने से बांग्लादेश में बाढ़ का खतरा भी पैदा हो जाएगा। नदियों के जानकार दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, “नीतीश कुमार जानते हैं जिस दिन फरक्का को हाथ लगाया जाएगा बांग्लादेश यूएनओ में जाएगा।”

कुछ लोगों का सुझाव है कि फरक्का की जगह एक अलग डिजाइन का बैराज बनाया जाए जिससे बांग्लादेश और भारत के बीच पानी का बंटवारा भी जस का तस बना रहे और गाद की रुकावट भी दूर हो जाए।

वैकल्पिक डिजाइन

भरत झुनझुनवाला सहित और कई पर्यावरणविदों ने फरक्का के तीन विकल्प सुझाए हैं, वहीं हाइड्रोलिक इंजीनियर नयन शर्मा ने एक आधुनिक तकनीक के वीयर की बात की है। यह देखना होगा कि ये सुझाव फरक्का के लिए कितने उपयुक्त हैं। पर कोई भी डिजाइन कितनी भी बेहतर क्यों न हो, बिना सही रखरखाव के उसका भी फरक्का जैसा ही हाल होगा।
    • यमुना पर बना अंग्रेजी के एल अक्षर के आकर का ताजेवाला बैराज नदी के दूसरे किनारे तक नहीं जाता। यह घुमावदार बहाव का फायदा उठाकर पानी को एक तरफ मोड़ देता था।
    • गंगा पर बना भीमगोडा बैराज नदी के दो किनारों से आती दो ठोकरों (स्पर्स) की तरह था जिसके बीच में खाली जगह थी।
    • अलवर में रुपारेल नदी पर बिना गेट का ऐसा ढांचा बनाया गया है जो नदी के बहाव को 55:45 के अनुपात में बांट देता है।
    • ‘पियानो की वीयर’ एक नयी तकनीक का वीयर है, जिसमें कोई गेट नहीं होते। यह नदी कि अपनी शक्ति का उपयोग करता है और 85 प्रतिशत गाद निकाल सकता है।

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