केंद्र सरकार की मातृत्व कल्याण योजना का लाभ अधिकांश महिलाओं को नहीं मिल रहा है
नाजरीन की बेटी ढाई महीने की हो चुकी है। बच्ची का जन्म सातवें महीने में ही हो गया, इस वजह से वह बेहद कमजोर नजर आ रही है। नाजरीन अपनी बच्ची के साथ उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद स्थित एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टर का इंतजार कर रही हैं।
मार्च में नाजरीन ने प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना (पीएमएमवीवाई) के लिए पंजीकरण करवाया था। यह केंद्र सरकार की मातृ कल्याण योजना है जो गर्भवती महिलाओं और बच्चों का पोषण सुनिश्चित करने के लिए लाई गई है। नाजरीन के बैंक खाते में मई में योजना की पहली किस्त के रूप में 1,000 रुपए आ जाने चाहिए थे। योजना के अनुसार, 1,000 रुपए की पहली किस्त पांच महीने की गर्भावस्था पूरी होने से पहले खाते में पहुंच जानी चाहिए। दूसरी किस्त के रूप में 2,000 रुपए जन्म पूर्व की पहली जांच के बाद मिल जाने चाहिए और 2,000 रुपए की तीसरी किस्त जन्म पंजीकृत होने और पहले टीकाकरण के वक्त मिल जानी चाहिए। नाजरीन बताती हैं कि सितंबर के अंत तक उन्हें एक भी पैसा नहीं मिला।
नाजरीन अकेला उदाहरण नहीं है। उत्तर प्रदेश में जननी स्वास्थ्य पर काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन सहयोग से जुड़ी वाईके संध्या बताती हैं कि राज्य के किसी भी जिले में महिलाओं को आर्थिक मदद नहीं मिली है। मध्य प्रदेश में गैर लाभकारी संगठन विकास संवाद से संबद्ध सचिन जैन बताते हैं, राज्य में जन्म लेने वाले अधिकांश शिशुओं को योजना का लाभ नहीं मिल रहा है। केंद्र सरकार द्वारा संचालित ऑनलाइन पोर्टल हेल्थ मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम के अनुसार, मंत्रीमंडल ने मई 2017 को योजना को मंजूरी दी थी और योजना जनवरी 2017 से लागू हो गई थी। तब से देश में 2.5 करोड़ से ज्यादा बच्चों का जन्म हुआ है। दिल्ली में कार्यरत पत्रकार सोमरित डूड को सूचना के अधिकार से पता चला है कि 26 अगस्त 2018 तक महज 32 लाख महिलाओं को ही योजना के तहत धनराशि प्राप्त हुई।
प्रधानमंत्री ने 31 दिसंबर 2016 को इस योजना की घोषणा की थी। तब उन्होंने कहा था कि देश में सभी गर्भवती महिलाओं को 6,000 रुपए की मदद मिलेगी। यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए) 2013 के अनुसार लाई गई थी। यह कानून सरकार को बाध्य करता है कि वह हर गर्भवती महिला को 6,000 रुपए की मदद दे ताकि मां और शिशु की पोषण की जरूरतें पूरी हो सकें। लेकिन जब योजना को मंत्रीमंडल ने मंजूर किया, तब इसमें बदलाव कर दिया गया। पहला, यह योजना केवल पहले जीवित बच्चे तक सीमित कर दी गई। दूसरा, 19 साल से अधिक उम्र की महिला ही इस योजना का लाभ ले सकती है। तीसरा, यह संस्थागत प्रसव पर ही लागू होगी। और चौथा, 6,000 के बजाय नगदी के रूप में आर्थिक मदद 5,000 रुपए ही मिलेगी। मंत्रीमंडल की घोषणा में कहा गया कि 1,000 रुपए जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) के तहत संस्थागत प्रसव पर पहले से दिए जाते हैं और इस प्रकार कुल राशि 6,000 हो जाती है। इन तमाम प्रावधानों का नतीजा यह निकला कि बड़ी संख्या में गर्भवती महिलाएं योजना के दायरे से बाहर हो गईं।
पहला बच्चा ही क्यों?
महाराजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त कार्यालय द्वारा संचालित सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) के अनुसार, भारत में पैदा होने वाले कुल बच्चों में 43 प्रतिशत पहली संतान होती है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि शेष 57 प्रतिशत बच्चे योजना के दायरे से बाहर हो जाएंगे। महिला किसानों के मुद्दों पर काम करने वाले तेलंगाना के अनौपचारिक फोरम महिला किसान अधिकार मंच से जुड़ीं सेजल दांड बताती हैं, “यह विचित्र है कि सरकार दूसरे या तीसरे बच्चे की पोषण की जरूरतों का सुनिश्चित करना जरूरी नहीं समझती।” इसके अलावा योजना को पहले जीवित बच्चे को सीमित करना एनएफएसए के भी खिलाफ है जो सभी गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को 6,000 रुपए की मदद की गारंटी देता है। वह बताती हैं, “सरकार की कोई भी योजना संसद द्वारा बनाए गए कानून के खिलाफ नहीं हो सकती। केवल संसद को ही कानून में संशोधन का अधिकार है।”
पहले बच्चे के प्रावधान का मतलब यह भी है कि उच्च शिशु मृत्युदर वाले राज्य इस योजना के लाभ से वंचित होंगे। उदाहरण के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश में उच्च शिशु मृत्युदर है। यही राज्य हैं जहां कुपोषण अधिक है और इन्हीं राज्यों में अधिकांश महिलाएं और बच्चे सरकारी योजना का लाभ नहीं ले पाएंगे। बिहार में शिशु मृत्युदर 3.4 और उत्तर प्रदेश में 2.7 प्रतिशत है। डूड को आरटीआई से मिली सूचना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में 26 अगस्त 2018 तक किसी भी महिला को योजना का लाभ नहीं मिला। उत्तराखंड और असम में लाभार्थियों की संख्या क्रमश: 7,670 और 1,503 है। सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना शामिल हैं (देखें कुपोषित और उपेक्षित, पेज 15)। एसआरएस 2015 के मुताबिक, ग्रामीण भारत में शिशु मृत्युदर 2.5 प्रतिशत जबकि शहरी भारत में 1.8 प्रतिशत है। अधिकतर ग्रामीण महिलाओं को इस आर्थिक लाभ से वंचित होना पड़ेगा। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2015-16 भी कहता है कि गरीब महिलाएं अमीर महिलाओं की तुलना में 1.6 प्रतिशत अधिक बच्चों का जन्म देती हैं। इससे साफ हो जाता है कि गरीब योजना से अधिक वंचित होंगे।
कम आयु की माताओं को दंड
जनगणना 2011 के अनुसार, देश में 30 प्रतिशत महिलाओं का विवाह 18 साल की उम्र से पहले हो जाता है। अगर वे 19 साल की उम्र से पहले गर्भवती होती हैं तो योजना के लाभ से वंचित रह जाएंगी। दांड के अनुसार, “देश में अधिकतर महिलाएं शादी और बच्चे पैदा करने का निर्णय नहीं ले पातीं। इन महिलाओं को उस दोष के लिए दंडित किया जा रहा है जिसके लिए वे जिम्मेदार ही नहीं हैं।”
एनएफएचएस 2015-16 के अनुसार, देश में 80 प्रतिशत प्रसव अस्पतालों में होता है। चूंकि यह योजना केवल संस्थागत प्रसव की गणना करती है। ऐसे में इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं योजना से छूट जाएंगी। जैन दलील देते हैं, “जो महिलाएं अस्पताल नहीं आ पातीं, उन्हें ही आर्थिक मदद की अधिक जरूरत है। आखिर उन्हें योजना से बाहर क्यों रखा गया है? ज्यादातर राज्य 100 प्रतिशत संस्थागत प्रसव के लिए अब भी संघर्ष कर रहे हैं।”
पीएमएमवीवाई और जेएसवाई को जोड़कर 6,000 रुपए की मदद देना भी गलत है। भोजन का अधिकार अभियान से जुड़ीं दीपा सिन्हा बताती हैं, दोनों को जोड़ना गलत है क्योंकि दोनों का मकसद अलग है। पीएमएमवीवाई का लक्ष्य पोषण सुनिश्चित करना है जबकि जेएसवाई संस्थागत प्रसव को प्रोत्साहन देती है। इसके अलावा हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे बहुत से राज्य हैं जो जेएसवाई के तहत केवल 700 रुपए की मदद देते हैं। ऐसे राज्यों में दोनों योजनाओं को मिलाकर दी जाने वाली नगद आर्थिक मदद 6,000 रुपए भी नहीं है जबकि एनएफएसए के तहत यह न्यूनतम निर्धारित धनराशि है। खाद्य सुरक्षा के मामलों पर काम करने वाली दिल्ली स्थित कार्यकर्ता सुदेश्ना सेनगुप्ता के अनुसार, एनएफएसए के तहत पीएमएमवीवाई को निर्देशित होना चाहिए। इसका कोई दूसरा तरीका नहीं हो सकता। कानून में संशोधन से ही इसे बदला जा सकता है।
तमिलनाडु, ओडिशा ने दिखाया रास्ता
देश में केवल दो राज्य तमिलनाडु और ओडिशा अपनी मातृत्व कल्याण योजना चला रहे हैं और इन योजनाओं में पीएमएमवीआई से अधिक मदद दी जा रही है। तमिलनाडु में सरकार डॉ. मुथुलक्ष्मी मैटरनिटी असिस्टेंस स्कीम चला रही जिसके तहत गर्भवती महिलाओं को 14,000 रुपए की नकद राशि दी जाती है। साथ ही 4,000 रुपए की पोषण किट मुहैया कराई जाती है। यह योजना दो प्रसव के लिए है। 1987 में जब यह योजना शुरू की गई थी, तब 300 रुपए की राशि मिलती थी।
ओडिशा सरकार ममता नामक मातृ कल्याण योजना के तहत 5,000 रुपए की राशि दे रही है। यह योजना सभी महिलाओं को दो प्रसव के लिए मिलती है। ओडिशा में वंचित तबकों के लिए काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन सोसायटी फॉर प्रमोटिंग रूरल एजुकेशन एंड डेवलपमेंट के सचिव बिद्युत मोहंती के अनुसार, आदिवासियों जैसे संवेदनशील वंचित समुदायों की महिलाओं के लिए सरकार तीसरे प्रसव के लिए भी मदद देती है। ममता योजना की प्रशंसा प्लोस वन पत्रिका के दिसंबर 2017 के अंक में भी की गई है। अध्ययन में पाया गया है कि 95 प्रतिशत महिलाओं ने योजना के तहत मिली धनराशि का उपयोग भोजन और दवाओं के लिए किया। हालांकि पीएमएमवीवाई की तरह ओडिशा और तमिलनाडु की योजनाएं भी 19 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं के लिए हैं।
सरकार पर असर नहीं
उच्चतम न्यायालय का ध्यान भी इस योजना के दोषपूर्ण प्रावधानों पर गया है। जुलाई 2018 को दिल्ली स्थित मानव अधिकार संगठन पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी की याचिका पर सुनवाई के दौरान न्यायालय ने सरकार को कहा था कि वह योजना के क्रियान्वयन में हो रही देरी और बड़ी संख्या में महिलाओं को इसके दायरे से बाहर करने के मामले पर ध्यान दे। न्यायालय में मामले की पैरवी कर रहे अधिवक्ता आदित्य श्रीवास्तव का कहना है, “सरकार ने न्यायालय में अब तक अपना जवाब दाखिल नहीं किया है।”
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