सरकार का खुद का आंकड़ा बताता है कि सूचना, शिक्षा और संचार के लिए आवंटित धन में से केवल 0.8 प्रतिशत ही खर्च किया गया है।
वे कौन से कारण हैं जो लोगों को अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने को प्रेरित करते हैं? वह शिक्षा है या सामाजिक दबाव? या फिर दंड का डर? क्या ये सब और इनके अतिरिक्त भी कुछ है जो बदलाव का वाहक बनता है? खुले में शौच रोकने और जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे नीति निर्माताओं के लिए यह लाख टके का सवाल है।
शौचालय का ही उदाहरण लीजिए। शौचालयों का निर्माण और इस्तेमाल बड़ी उलझन बन रहा है। महात्मा गांधी ने कहा था कि स्वच्छता की अहमियत स्वतंत्रता से कहीं अधिक है। स्वच्छता के अभाव में बच्चों की मौतें हो रही हैं जिन्हें टाला जा सकता है। वे बीमार और अल्पविकसित हो रहे हैं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। अच्छी खबर यह है कि भारत सरकार 2 अक्टूबर 2019 तक देश को खुले में शौच से मुक्त करने की दिशा में प्रयासरत है। इस दिन महात्मा गांधी की 150वीं जयंती भी है। साल दर साल शौचालय निर्माण के कई असफल कार्यक्रम चलाए गए हैं। सरकार ने स्वीकार किया है कि उसका लक्ष्य महज शौचालय के निर्माण तक सीमित नहीं है बल्कि इनका उपयोग भी बढ़ाना है। लोगों को अपना व्यवहार बदलकर इनका इस्तेमाल करना होगा। सरकार अब अपने सर्वेक्षण में शौचालयों की संख्या पर नहीं बल्कि इनके इस्तेमाल की गणना कर रही है।
तमाम रिपोर्ट्स में इस बात का जिक्र किया गया है कि जिन शौचालयों का निर्माण किया गया है, उनका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। 2015 में आई सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए बनाए गए कुल शौचालयों में से 20 प्रतिशत में या तो ताले लटके हैं या उनका इस्तेमाल भंडारगृह के रूप में किया जा रहा है। 2015 में ही नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) ने पाया कि 75 जिलों के 75,000 परिवारों में ही शौचालयों का इस्तेमाल हो रहा है। सिक्किम, केरल और हिमाचल जैसे कुछ राज्यों में शौचालयों का 90 से 100 प्रतिशत प्रयोग हो रहा है। लेकिन अधिकांश राज्यों में प्रयोग की दर कम है। अधिक शिक्षित और अन्य राज्यों के मुकाबले संपन्न माने जाने वाले तमिलनाडु में शौचालयों के उपयोग की दर 39 प्रतिशत ही है। इस स्थिति में हम कैसे शौचालयों का इस्तेमाल बढ़ा सकते हैं? व्यवहार में बदलाव लाने के लिए क्या करना चाहिए? यह सामाजिक सवाल नहीं है बल्कि इसका वास्ता विकास की राजनीति से है।
मेरी सहयोगी ने इस संबंध में पड़ताल की है। उन्होंने पाया है कि राज्य सरकारें खुले में शौच से जल्द मुक्ति पाने के लिए लोगों को लज्जित कर रही हैं ताकि उनके व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सके। खुले में शौच सामाजिक रूप से अस्वीकार्य है, इस पर जोर दिया जा रहा है। शौचालय के उपयोग में कामयाब हरियाणा, इस्तेमाल में पीछे उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ने इस दिशा में कानून बनाए हैं। यहां पंचायत चुनाव लड़ने के लिए शौचालय का इस्तेमाल अनिवार्य है। बहुत से जिलों में खुले में शौच करने वाले लोगों को देखकर सीटी बजाई जा रही है। उनके नाम और तस्वीरें गांव के सूचनापट्ट पर लिखे जा रहे हैं। राशन कार्ड निरस्त करने से लेकर सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वालों लाभों से वंचित किया जा रहा है।
राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में ऐसी ही मुहिम का दुखद परिणाम सामने आया। यहां खुले में शौच कर रही महिलाओं का सरकारी अधिकारी फोटो खींच रहे थे। इसका विरोध करने पर एक व्यक्ति की मौत हो गई। जब मेरे सहयोगी ने महताब शाह कच्ची बस्ती (झुग्गी बस्ती) का दौरा किया तो पाया कि यहां खुले में शौच के अलावा अन्य विकल्प न के बराबर हैं। एक तो वे गरीब हैं, दूसरा उनका अपना घर या जमीन भी नहीं है जिस पर शौचालय बना सकें। तीसरा पानी का भी अभाव है। यहां बनाया गया सामुदायिक शौचालय भी 3,000 लोगों की शौच की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम है। इस शौचालय में न तो पानी है और न ही उचित रखरखाव। यह घटना खुले में शौच की आदत की पूर्ण व्याख्या नहीं करती। बहरहाल, लोग शौचालय में निवेश से पहले मोबाइल फोन और साइकिल खरीदने को तवज्जो देते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कैसे शौचालयों की मांग बढ़ाई जाए।
मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर खुली और आक्रामक बहस की जरूरत है। लोगों को व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित करना होगा। गंदगी के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को बताना होगा। मेरा शोध बताता है कि यह अंतरसंबंध केवल नीतिगत शर्तों में ही जाना जाता है, वास्तविक आंकड़ों में नहीं जो स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता लाकर व्यवहार में परिवर्तन करते हैं। तंबाकू के मामलों में व्यवहार में बदलाव आया है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इसके दुष्प्रभाव से सभी वाकिफ हैं। शौचालय के मामले में भी ऐसा ही करने की जरूरत है।
आज सरकार का स्वच्छ भारत मिशन इसे स्वीकार करता है और सूचना, शिक्षा व संचार (आईईसी) के लिए धन भी उपलब्ध कराता है। लेकिन सरकार का खुद का आंकड़ा बताता है कि आईईसी के लिए आवंटित धन में से केवल 0.8 प्रतिशत की खर्च किया गया है। निशानिर्देशों में 8 प्रतिशत खर्च करने का जिक्र है। यह साफ है कि सिर्फ शौचालयों का निर्माण ही काफी नहीं है। लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने के लिए काफी कुछ किया जाना जरूरी है। महताब शाह कच्ची बस्ती जैसे इलाकों में सरकार को सामुदायिक शौचालयों की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। जल और शौच के संबंध को भी समझना जरूरी है।
हमें अब भी समस्या के निवारण की जरूरत है। इसमें संदेह नहीं है कि सामाजिक दबाव काम करता है। लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि पीड़ितों को अपमान न झेलना पड़े। कमजोर को कलंकित करना स्वच्छता की दिशा में उठाया गया सही कदम नहीं है। यह भारत के लिए और शर्मनाक होगा।
We are a voice to you; you have been a support to us. Together we build journalism that is independent, credible and fearless. You can further help us by making a donation. This will mean a lot for our ability to bring you news, perspectives and analysis from the ground so that we can make change together.
Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.