Health

‘जीका’ नया जंजाल

भारत में भी जीका ने दस्तक दे दी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 26 मई को एडवाइजरी जारी कर भारत में 3 मामलों की पुष्टि कर दी थी

 
By Vibha Varshney, Bhagirath Srivas
Published: Saturday 15 July 2017
जीका वायरस गर्भ में पलने वाले बच्चे पर असर डालता है। पीड़ित बच्चों के सिर का आकार स्वस्थ बच्चों की तुलना मे छोटा होता है (रॉयटर्स )

आखिर जिसका डर था, वही हुआ। भारत में भी जीका ने दस्तक दे दी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 26 मई को एडवाइजरी जारी कर भारत में 3 मामलों की पुष्टि कर दी। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को 15 मई को गुजरात के अहमदाबाद जिले के बापूनगर में लैब से पुष्ट इन मामलों की जानकारी मिली थी।

तीनों मरीजों में पिछले साल से जीका वायरस के लक्षण दिखाई दे रहे थे। 64 साल के पुरुष का 10-16 फरवरी के बीच खून का सैंपल लिया था। जांच में जीका वायरस की पुष्टि हुई। यह देश में जीका का पहला पॉजिटिव केस है। 34 साल की एक महिला में जीका का पुष्टि हुई। पिछले साल नवंबर को इस महिला ने बच्चे को जन्म दिया था। गनीमत है कि बच्चे में इस बीमारी के लक्षण नहीं हैं। तीसरे मामले में 22 साल की गर्भवती जीका की शिकार बनी। जीका के ये मामले चिंता की बात हैं। क्योंकि डेंगू और चिकनगुनिया ने देश भर में पैर पसारना शुरू कर दिया है। इन बीमारियों को फैलाने वाला एडीज एजिप्टी मच्छर जीका के लिए भी जिम्मेदार है। मच्छरों की 3500 प्रजातियों में यह सबसे खतरनाक है।

खतरे की घंटी

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, 2004 से 2015 के बीच दुनियाभर में चिकनगुनिया के 30 लाख मामले सामने आए हैं। इसी तरह 35 करोड़ मामले डेंगू के भी पता चले हैं। जब से जीका से माइक्रोसेफेली और ग्यूलेन बैरे सिंड्रम जुड़े हैं, इसका असर दीर्घकालिक और ज्यादा खतरनाक हो गया है। जानकार बता रहे हैं कि दुनिया की आधी आबादी जीका फैलाने वाले मच्छर की जद में है।

यूके की नॉर्थंब्रिया यूनिवर्सिटी के ईकोलॉजी के टीचिंग फेलो माइकल जेफरी का कहना है कि मच्छरों ने मुश्किल माहौल में भी खुद को ढाल लिया है। थोड़े से मच्छर बहुत जल्द अपनी आबादी बढ़ा लेते हैं। अध्ययनों के मुताबिक, मच्छरों के लिए जलवायु परिवर्तन भी मुफीद साबित हो रही है। ठंडी जलवायु में भी मच्छरों ने खुद को ढालना सीख लिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुख्यालय में कार्यकारी बोर्ड मीटिंग में महानिदेशक मार्गरेट चेन ने जनवरी 2016 में भी मुद्दा उठाया था कि विश्व के मौसम में अलनीनो के असर ने भी मच्छरों की आबादी बढ़ाने में मदद की है। अलनीनो के असर से वातावरण में जो गर्मी आ रही है, वह मच्छरों के लिए मददगार है। जलवायु परिवर्तन के अलावा जंगलों की अंधाधुंध कटाई और शहरीकरण ने भी मच्छरों के अनुकूल वातावरण तैयार किया है।

पशुओं से फैलने वाली बीमारी

जीका वायरल का उभार एक बड़ी समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करता है। यह समस्या है जानवरों या कीटों से फैलने वाली बीमारी (जूनोटिक डिसीज, इंटरव्यू देखें) के संपर्क में इंसानों का आना। दुनिया के सामने यह बड़ी चुनौती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन वैश्विक चिंताओं को देखते हुए चार बार पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी (2009 में स्वाइन फ्लू के लिए , 2014 में पोलियो के लिए, 2014 में इबोला के लिए और 2016 में जीका के लिए) घोषित कर चुका है। इनमें से तीन बार चिंताओं का कारण पशुओं या कीटों से फैलने वाली बीमारी ही रही है। चिंता की बात यह भी है कि तीनों इमरजेंसी 2009 के बाद घोषित की गई हैं।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दस में से हर छह इन्फेक्शन जानवरों से इंसानों को रहे हैं। 2012 में प्रकाशित यूके के डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट की रिपोर्ट कहती है कि जानवरों से फैलने वाली बीमारी के कारण हर साल 27 लाख लोगों की जान जाती है जबकि 2.5 अरब लोग इससे बीमार होते हैं। इसे देखते हुए जीका का खतरा और बढ़ जाता है। भारत सरकार ने भले ही राज्यों को जीका के निपटने के लिए गाइडलाइन और एक्शन प्लान जारी कर दिया हो। भले ही इंटरमिनिस्ट्रीयल टास्क फोर्स बना दी गई हो, और भले ही हवाई अड्डों को अलर्ट कर दिया गया हो लेकिन इस बीमारी से निपटने के लिए जमीन पर बहुत कुछ किया जाना अभी बाकी है।

‘भविष्य में दिखेंगी जीका जैसी और बीमारियां’
 

यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज में महामारी वैज्ञानिक ओलिवियर रेस्टिफ संक्रामक बीमारियों के गति विज्ञान का अध्ययन कर रहे हैं। पशुओं से फैलने वाली बीमारी के संदर्भ में डाउन टू अर्थ ने उनसे बात की :

 यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज में महामारी वैज्ञानिक ओलिवियर रेस्टिफ

जूनोटिक बीमारियों पर शोध करने के दौरान क्या परेशानियां आती हैं?
कई साल की मेहनत के बाद उन जानवरों का पता चलता है जो इन बीमारियों के वाहक होते हैं। इबोला बुखार के संदर्भ में देखें तो इसका वायरस चिन्पांजी, चमगादड़, चूहे और गिलहरियों में पाया गया था। यह वायरस चुनिंदा जानवरों के अंदर ही था। ऐसे में सरलीकरण करना या किसी निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल होता है। जब आप जानलेवा वायरस का पता लगाने की कोशिश कर रहे होते हैं तो रिसर्चरों को बेहद सावधानी से कदम बढ़ाने पड़ते हैं।

सही अनुमान लगाने में क्या बाधाएं आती हैं?
वायरस का एक बार फैलाव होने पर महामारी विज्ञान से संबंधित मॉडल्स की मदद ली जाती है। इनसे हमें पता चलता है कि वायरस कितना फैलेगा। इसके आधार पर बचाव के तरीके सुझाए जाते हैं। हालांकि एक प्रभावित व्यक्ति के हवाई जहाज पर बैठने के साथ यह वायरस सार्वभौमिक हो जाता है।   

क्या भविष्य में इन बीमारियों का सही अनुमान विकसित होगा?
जानकारियों का अभाव दूर करने के लिए इस संबंध में बड़े इंटरनैशनल प्रोग्राम चल रहे हैं। पता लगाया जा रहा है कि जंगलों में कौन-कौन से वायरस मौजूद हैं। यह भी पता लगाने की कोशिशें चल रही हैं कि मनुष्य इनके संपर्क में कैसे आ सकता है। लेकिन यह भी सच है कि अनुमान कभी सटीक नहीं हो सकते। इसलिए हमें तात्कालिक नतीजों से सीखना होगा।

इबोला के फैलाव के बाद क्या इस क्षेत्र में फंडिंग में उत्साहजनक बदलाव हुआ है?
सौभाग्य से इबोला वायरस के फैलने से पहले ही इस क्षेत्र में पर्याप्त फंडिंग मुहैया हो गई है लेकिन उभर रही बीमारियां जलवायु परिवर्तन या एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस की तरह हैं। यह वैश्विक चुनौती है। इससे निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत है। सभी देशों को इसमें योगदान देना होगा। फंडिंग और रिसर्च जरूरी है लेकिन पब्लिक हेल्थ में तत्काल निवेश की जरूरत है ताकि विपदा आने पर जिन्दगी को बचाया जा सके।

क्या हमें जीका जैसी दूसरी बीमारियों भविष्य में और देखने का मिलेंगी?
हमें लगता है कि जलवायु परिवर्तन के चलते ऐसी बीमारियां और बढ़ेंगी। बीमारियां फैलाने वाले कीड़े मकौड़े बहुत सालों से ऊष्णकटिबंध क्षेत्रों से तापमान वाले क्षेत्रों में पानी के जहाज या हवाई जहाजों के माध्यमों से आते रहे हैं। अब तापमान वाले क्षेत्रों में अधिक ठंड न पड़ने के कारण ये आसानी से जीवित रहने लगे हैं। 

 

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