यह स्थिति तब है जब भारत न्यूनतम मजदूरी का कानून बनाने वाला पहला विकासशील देश 1948 में ही बन गया था
भारत में रोजगार की स्थिति पर 28 मार्च को जारी ऑक्सफैम की रिपोर्ट “माइंड द गैप” के अनुसार, देशभर में 14 राज्य/संघ शासित प्रदेश महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में निर्धारित मजदूरी से कम राशि का भुगतान कर रहे हैं।
आंध्र प्रदेश में 2017-18 के दौरान मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी 197 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन थी लेकिन राज्य में औसतन 152 रुपए का ही भुगतान किया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो निर्धारित मजदूरी से 45 रुपए कम मजदूरों को दिए गए। इसी तरह तमिलनाडु में निर्धारित मजदूरी 205 थी लेकिन भुगतान 152 रुपए का ही किया गया। यानी मजदूरों को 53 रुपए कम दिए गए। कुल तेरह राज्य ऐसे हैं जो निर्धारित मजदूरी का भुगतान कर रहे हैं।
हालांकि चार राज्य ऐसे भी हैं जिन्होंने निर्धारित मजदूरी से अधिक भुगतान किया। मसलन बिहार में 168 रुपए मजदूरी निर्धारित है लेकिन मजदूरों को औसतन 177 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से दिया गया। हरियाणा, केरल और सिक्किम भी निर्धारित मजदूरी से अधिक देने वाले राज्य हैं। यह स्थिति तब है जब भारत न्यूनतम मजदूरी का कानून बनाने वाला देश 1948 में ही बन गया था।
न्यूनतम मजदूरी पर कानून बनाकर भारत पहला विकासशील देश बना था। इस कानून के बाद मजदूरी से जुड़े अन्य कानून भी अस्तित्व में आए थे। लेकिन सामाजिक-आर्थिक विभिन्नताओं के कारण न्यूनतम मजदूरी को लागू करना एक जटिल मामला बना रहा। यही कारण है कि वर्तमान में विभिन्न राज्यों में न्यूनतम मजदूरी से संबंधित 1,709 दरें हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, विशाल असंगठित क्षेत्र होने के कारण न्यूनतम मजदूरी को लागू करना और उसकी निगरानी बेहद कठिन कार्य है। इस वजह से जगह-जगह न्यूनतम मजदूरी की अवहेलना होती है। 2014 में जारी श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट भी कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि कार्यों से जुड़े 73 प्रतिशत कामगार, ग्रामीण क्षेत्रों में गैर कृषिगत कार्यों से जुड़े 37 प्रतिशत कामगार और शहरी क्षेत्रों में गैर कृषिगत कार्यों से जुड़े 54 प्रतिशत कामगारों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल रही है। महिलाओं की स्थिति और बदतर है।
न्यूनतम मजदूरी कंपनियों में काम करने वाले लोगों को भी नहीं मिल रही है। 2017 में भारत की 99 कंपनियों में केवल 24 कंपनियों ने न्यूनतम मजदूरी के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर की थी और केवल 6 कंपनियों ने उचित मजदूरी दी।
दिहाड़ी मजदूरों में असमानता
रिपोर्ट के अनुसार, 2011-12 में दिहाड़ी मजदूरी का राष्ट्रीय औसत 247 रुपए था। लेकिन ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में यह असमानता दोगुने से अधिक है। इस अवधि में शहरी क्षेत्रों में दिहाड़ी मजदूरी 384 रुपए थी जबकि ग्रामीण इलाकों में यह मजदूरी केवल 175 रुपए ही थी। मजदूरी में लैंगिक असमानता भी व्यापक है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को काम के अवसर 34 प्रतिशत कम मिलते हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय से आने वाले मजदूरों को अन्य मजदूरों की तुलना में 15 प्रतिशत कम मजदूरी मिलती है।
सामाजिक सुरक्षा पर नेपाल से भी कम खर्च
रिपोर्ट बताती है कि भारत में करीब 93 प्रतिशत असंगठित कामगार हैं लेकिन महज 8 प्रतिशत कामगारों को ही सामाजिक सुरक्षा मिली है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.4 प्रतिशत हिस्सा ही सामाजिक सुरक्षा पर खर्च करता है जो एशिया में सबसे निम्न है। भारत सामाजिक सुरक्षा पर चीन, श्रीलंका, थाइलैंड और यहां तक ही नेपाल से भी कम खर्च करता है। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर 2018-19 के बजट का महज 0.5 प्रतिशत हिस्सा ही व्यय हुआ है।
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