Economy

गांधी, 21वीं सदी का पर्यावरणविद -3: पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर गांधी दर्शन

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर डाउन टू अर्थ द्वारा श्रृखंला प्रकाशित की जा रही है। इस कड़ी में प्रस्तुत है पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर गांधी दर्शन पर विशेष लेख

 
By Sasikala AS
Published: Wednesday 25 September 2019
इलेस्ट्रेशन: तारिक अजीज

भारत के हालिया बौद्धिक इतिहास में संभवत: गांधी ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी बातों का सबसे गलत अर्थ निकाला गया है और उन्हें गलत समझा गया। वह एक ही समय पर परिवर्तनवादी और रूढ़ीवादी दोनों थे जिन्होंने स्वतंत्रता और त्याग पर गहराई से चिंतन किया और लिखा। वह एक भविष्यवक्ता थे जिनका इस बात को लेकर दृष्टिकोण स्पष्ट था कि त्याग के जरिए आजादी किस तरह हासिल की जाएगी। इसी के साथ वह एक रणनीतिज्ञ भी थे जिनमें अहिंसा और सत्याग्रह की शक्ति से पूरे िवश्व को झकझोर देने की क्षमता थी। पिछले कुछ दशकों के दौरान शिक्षा जगत, खासतौर पर पर्यावरण और सतत विकास से संबंधित क्षेत्रों में हमें पारिस्थितिकी से जुड़ी समस्याओं का समाधान करने के लिए गांधीवादी सिद्धांतों के संबंध में गंभीर अध्ययन देखने को मिलते हैं।

20वीं सदी की शुरुआत दुनियाभर में पर्यावरण को लेकर जागरुकता से हुई थी। प्रत्येक आंदोलन के अलग राजनीतिक विचार और सक्रियता थी, तथापि इन सभी आंदोलनों को आपस में जोड़ने वाली कड़ी अहिंसा और सत्याग्रह की गांधीवादी विचारधारा थी। रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार भारतीय पर्यावरण आंदोलनों पर तीन अलग-अलग विचारधाराओं का प्रभाव देखते हैं अर्थात आंदोलनकारी गांधीवादी, पर्यावरणविद मार्क्सवादी और वैकल्पिक प्रौद्योगिकीविद। इन आंदोलनों ने प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल की गांधीवादी विरासत को आगे बढ़ाया है।

जैसा कि हम जानते हैं, पर्यावरण सुरक्षा गांधीवादी कार्यक्रमों का प्रत्यक्ष एजेंडा नहीं था। लेकिन उनके अधिकांश विचारों को सीधे तौर पर पर्यावरण संरक्षण से जोड़ा जा सकता है। हरित क्रांति, गहन पर्यावरण आंदोलन आदि ने गांधीवादी विचारधारा के प्रति कृतज्ञता स्वीकार की। आश्रम संकल्प (जिन्हें गांधीजी के ग्यारह संकल्पों के रूप में जाना जाता है) ही वे सिद्धांत हैं जिन्होंने गांधी की पर्यावरण संबंधी विचारधारा की नींव रखी थी। ये ग्यारह सिद्धांत हैं, सच्चाई (जिसे गांधी ने ईश्वर के बराबर माना), अहिंसा (पूरे ब्रह्मांड पर लागू है), संग्रह का निषेध (जिससे निजी संपत्ति और पारिस्थितिकी के नुकसान में भी कमी आ सकती है), चोरी न करना (किसी भी संसाधन का अधिक इस्तेमाल दूसरों से चोरी के समान है), परिश्रम करना (शारीरिक परिश्रम और इसकी सुंदरता), ब्रह्मचर्य (सनातन सत्य ब्रह्म की ओर अग्रसर होना), निर्भय होना, स्वाद पर नियंत्रण (शाकाहारी बनना और इसका महत्व), छुआछूत को मिटाना, स्वदेशी (आर्थिक और पारिस्थितिकीय स्वावलंबन) और सर्वधर्म समभाव (धार्मिक सहिष्णुता)। अहिंसा, चोरी न करना, संग्रह का निषेध, परिश्रम करना, स्वाद पर नियंत्रण और स्वदेशी जैसे सिद्धांतों का पर्यावरण को बचाने में व्यापक इस्तेमाल किया जा सकता है।

गांधीवादी पर्यावरणशास्त्र का दूसरा पहलू उनके रचनात्मक कार्यक्रम हैं। गांधी ने इन कार्यक्रमों को किसी भी सामाजिक कार्य का आधार माना है। उन्होंने बेहतर भारत के निर्माण के लिए अट्ठारह रचनात्मक कार्यक्रमों की परिकल्पना की और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए इनका पालन करना अनिवार्य बनाया। चाहे परिस्थितियां कठिन ही क्यों न हों। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक और आर्थिक समानता, सामाजिक कुरीतियां समाप्त करना, महिलाओं का कल्याण, सभी के लिए शिक्षा के अवसर और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना था। बाद में गांधी की आध्यात्मिक विरासत को आगे ले जाने वाले विनोबा भावे ने गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में तीन और कार्यक्रम जोड़ दिए। विनोबा भावे द्वारा शामिल किए गए तीन सिद्धांतों में से एक सिद्धांत मशहूर “मवेशी संरक्षण” आंदोलन है, लेकिन गांधी ने अपने लेखों में यह स्पष्ट किया है कि “यह गाय बचाने के लिए मुस्लिम को मारना धार्मिक व्यवहार के विपरीत है।” गाय बचाने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच होने वाली लड़ाई को देखने के बाद उन्होंने यह भी कहा कि “हमें यह शपथ लेनी चाहिए कि गाय को बचाते समय हम मुसलमानों के प्रति द्वेष नहीं रखेंगे और उनसे नाराज नहीं होंगे।” यदि हम आजादी के बाद इन रचनात्मक कार्यक्रमों पर उचित ध्यान देते तो भारत की आर्थिक और पारिस्थितिकीय स्थिति अलग होती।

हरित गांधीवादी के नाम से विख्यात जेसी कुमारप्पा वह व्यक्ति हैं जिन्होंने गांधी के आर्थिक विचारों को गांधीवादी अर्थशास्त्र का रूप दिया। जहां एक ओर परंपरागत अर्थशास्त्र बड़े पैमाने पर उत्पादन और लाभ अधिकतम करने पर जोर देता है, वहीं दूसरी ओर गांधीवादी अर्थशास्त्र छोटे पैमाने पर उत्पादन और पर्यावरण को बनाए रखने पर बल देता है। जहां परंपरागत अर्थशास्त्र पूंजी गहन है, वहीं गांधीवादी अर्थशास्त्र श्रम गहन है। कुमारप्पा ने गांधी के अर्थव्यवस्था संबंधी विचारों को मातृ अर्थव्यवस्था या सेवा अर्थव्यवस्था के समान माना है क्योंकि यह सभी के लिए आर्थिक समानता को बढ़ावा देते हैं।

21वीं सदी का ध्यान सतत विकास पर है। सतत विकास का अर्थ भावी पीढ़ियों की क्षमताओं को नुकसान पहुंचाए बिना वर्तमान पीढ़ी का विकास करना है। यद्यपि गांधी सतत विकास की अवधारणा से अपरिचित थे, तथापि उनके रचनात्मक कार्यक्रम प्रकृति और प्राकृतिक वातावरण को नुकसान पहुंचाए बिना ऐसे विकास का प्रथम खाका खींचते हैं। सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की परिकल्पना के बाद गांधी गरीबी, असमानता और अन्याय से मुक्त समाज का सपना देते हैं। गांधी इसे सर्वोदय समाज कहते हैं जहां गरीब से गरीब आदमी का विकास सुनिश्चित हो सके। सर्वोदय की अवधारणा उन्होंने जॉन रस्किन से ली थी जिसके जरिए गांधी ने समाज को वर्ग, जाति और लैंगिक विभाजनों से मुक्त करने की कोशिश की। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में मशहूर फीनिक्स बस्ती में इस अवधारणा का प्रयोग किया और उनके सभी आश्रम इसकी व्यवहारिक प्रयोगशाला थे। दुर्भाग्यवश सर्वोदय के उद्देश्य अर्थात व्यक्तिगत स्वतंत्रता, स्वावलंबन, धार्मिक सौहार्द, आर्थिक समानता और परिश्रम का सम्मान लोकतंत्र में अब भी सपना है।

यद्यपि परंपरागत धार्मिक विचारों का पुनर्निर्माण आधुनिक समाज की प्रमुख विशेषता है तथापि धार्मिक संघर्ष वर्तमान विश्व के लिए कोई नई चीज नहीं है। हाल के अध्ययन दर्शाते हैं कि धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु देशों की सूची में भारत का चौथा स्थान है। सभी धर्मों के सकारात्मक तत्वों को समझना और धार्मिक सीखों का सम्मिलन आज के समय की जरूरत है। गांधी के आश्रम संकल्प सर्वधर्म समभाव सभी धर्मों की समानता को बढ़ावा देते हैं। गांधी ने समझाया कि आत्मा तो एक ही है लेकिन वह कई शरीरों में चेतना का संचार करती है। हम शरीर कम नहीं कर सकते, फिर भी आत्मा की एकता को स्वीकार करते हैं। पेड़ का भी एक ही तना होता है लेकिन उसकी कई सारी शाखाएं और पत्तियां होती हैं, इसी तरह एक ही धर्म सत्य है लेकिन जैसे-जैसे वह मनुष्य रूपी माध्यम से गुजरता है, उसके कई रूप हो जाते हैं।

विश्व शांति सतत विकास के अहम घटकों में एक है। पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए शांति का होना अनिवार्य है और आमतौर पर इसे “यु‍द्ध से मुक्ति और न्याय की उपस्थिति” के रूप में परिभाषित किया जाता है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया एक और परमाणु विस्फोट और विनाश से डरी हुई है। यदि ऐसा होता है तो पूरी मानवता का खात्मा हो सकता है। गहन पारिस्थितिकी के जनक अर्ने नेस एक ऐसी असैन्य सुरक्षा व्यवस्था का विचार प्रस्तुत करते हैं जो केवल अंतरराष्ट्रीय सहयोग से ही संभव है। उनके अनुसार, प्रतिस्पर्धी और अनुचित विश्व में हम तब तक असैन्य सुरक्षा व्यवस्था के बारे में नहीं सोच सकते जब तक हम लोगों को युद्ध और सैन्य अभियानों के दुष्प्रभावों के बारे में शिक्षित नहीं करते। नेस असैन्य सुरक्षा की प्रभावी तकनीकों के रूप में अहिंसात्मक विरोध के गांधीवादी सिद्धांत का सुझाव देते हैं। संक्षेप में कहें तो गांधी के पर्यावरणीय और आर्थिक सिद्धांतों को एक वाक्य में परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह उनकी अपनी सामान्य जीवनशैली से शुरू होता है और उन सिद्धांतों से होकर गुजरता है जो उन्होंने अपने जीवन में अपनाए। यह रचनात्मक कार्यक्रमों और सर्वोदय विचारधारा पर आधारित नए विश्व के उनके दृष्टिकोण से शुरू होकर असैन्य, अहिंसात्मक सुरक्षा पर खत्म होता है जो आज की जरूरत है।

(लेखक विशाखापट्टनम स्थित गीतम विश्वविद्यालय के गांधी अध्ययन केंद्र में सहायक प्रोफेसर हैं)

Subscribe to Daily Newsletter :

Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.