जल संकट का समाधान: बारिश की एक बूंद बेकार नहीं जाने देते ये गांव

चिड़ावा पंचायत क्षेत्र में बारिश के पानी का भंडारण कर 66 गांवों की प्यास बुझाई जा रही है

By Bhagirath Srivas

On: Tuesday 22 January 2019
 
चिड़ावा पंचायत समिति क्षेत्र के जखोड़ा गांव में एक घर में बना टांका (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई )

राजस्थान के शेखावटी अंचल के सूखा प्रभावित चिड़ावा पंचायत समिति क्षेत्र के गांव धीरे-धीरे पानीदार बनते जा रहे हैं। झुंझुनू जिले के ग्रामीणों ने वर्षा जल का महत्व समझा और पेयजल के संकट से काफी हद तक मुक्ति पा ली। ऐसे 66 गांवों में करीब 40,000 लोगों की प्यास वर्षा जल से बुझाई जा रही है। ग्रामीण वर्षा जल को एक विशाल टांका अथवा टैंक में संचयित कर रहे हैं। गांवों में ऐसे कुल 3,129 टांके बनाए गए हैं। इनकी मदद से साल भर में करीब 6.25 करोड़ लीटर वर्षा जल का भंडारण किया जा रहा है। चिड़ावा में इस साल 470 एमएम बारिश हुई है जो औसत बारिश 430 एमएम से अधिक है। अगर किसी की छत 460 वर्गफीट है तो औसत बारिश से टांका आसानी से भर जाता है। गांव के घरों की छत आमतौर पर 460 वर्गफीट से अधिक होती हैं।

ऐसे ही एक गांव जाखड़ा निवासी महिपाल सिंह बताते हैं, “मैंने 2016 में वर्षा जल संचयन के लिए टांका बनवाया था। अगर अच्छी बरसात हो जाए तो टांका पूरे साल पीने और खाना बनाने के लिए पानी उपलब्ध करा देता है। नहाने और कपड़े धोने के लिए सरकार द्वारा सप्लाई किया जाने वाला ट्यूबवेल का पानी इस्तेमाल करते हैं। टांका बनवाने से पहले सप्लाई का खारा पानी मजबूरी थी लेकिन अब शुद्ध और मीठा जल पी रहे हैं।”

लांबा गोठडा गांव में ग्रामीणों ने 108 टांके बनवाए गए हैं। गांव के सरपंच रणवीर सिंह मीणा बताते हैं, “टांकों की मदद से पेयजल संकट पूरी तरह खत्म हो गया है। अगर समझदारी से इस पानी का इस्तेमाल किया जाए तो पूरे साल दिक्कत नहीं होती।” इसी तरह आलमपुरा में 40, आनंदपुरा में 13, बदनगढ़ में 24, बजावा में 139, बारी का बास में 30, भारूजगढ़ में 67, भुकाना में 23, भोला की ढाणी में 62, चेनपुरा में 27, धतरवाल में 88, दिलावरपुरा में 100, घुमानसर में 145, गोविंदपुरा में 89 टांके बनाए गए हैं।

गांव में महिपाल सिंह की एक छत पर लगाया गया वर्षा जल मापी यंत्र

गांव के एक घर में टांका बनवाने पर करीब 55,000 रुपए का खर्च आता है। ये टांके पाइप के माध्यम से छत से जुड़े होते हैं। छत पर होने वाली बारिश का पानी पाइप के माध्यम से टांका तक पहुंचता है। इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि पहली बरसात का गंदा पानी टांकों में न जाए। इसके लिए पॉप-अप फिल्टर लगाया जाता है जिससे पानी से कचरा अलग हो जाता है और पहली बारिश का पानी टांका में नहीं जाता। करीब 20,000 लीटर की क्षमता का टांका आमतौर पर 10 बाई 12 फीट का होता है। ईंट, सीमेंट, रोड़ी और बदरपुर से इसे तैयार किया जाता है।

वर्षा जल को मापने के लिए चिड़ावा पंचायत समिति के 38 गांवों में वर्षा जल मापी यंत्र लगाए गए हैं। जिस घर की छत पर यंत्र लगाया जाता है, उसका मालिक हर बरसात के बाद रजिस्टर में कुल एमएम बारिश को दर्ज कर लेता है। इससे पता चल जाता है कि गांव में औसतन कितनी बारिश हुई है।

टांका बनवाने में ग्रामीणों को तकनीकी और आर्थिक मदद रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान की ओर से मुहैया कराई जाती है। संस्थान के परियोजना निदेशक भूपेंद्र पालीवाल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि चिड़ावा के अधिकांश गांव डार्क जोन में आ चुके हैं और यहां भूजल खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। कई बार तो देखा गया है कि खेत में सिंचाई के लिए लगे स्प्रिंकलर को जब चालू किया जाता है तो पानी आता है लेकिन कुछ घंटों बाद ही कई स्प्रिंकलर में पानी आना बंद हो जाता है। यह स्थिति तेजी से गिरते भूजल की तरफ इशारा करती है। चिड़ावा के कई गांवों में भूजल अंतिम चरण में है। इस कारण इसमें खारापन और फ्लोराइड इतना ज्यादा है कि पानी पीने लायक नहीं है। ऐसे गांवों में पीने के पानी का एकमात्र स्रोत वर्षा जल है जो टांकों में संचयित कर लिया जाता है। पालीवाल के अनुसार, अगर इसी तरह पानी का दोहन चालू रहा तो 2045 तक चिड़ावा में भूजल पूरी तरह खत्म हो जाएगा। वह बताते हैं कि हमने इस स्थिति से ग्रामीणों को अवगत कराया और वैज्ञानिक प्रमाण दिखाए। फिर संस्थान की पहल पर गांवों में वर्षा जल संचयन का कार्यक्रम शुरू किया। इसके बेहद उत्साहवर्धक परिणाम सामने आए हैं।

इन गांवों में वर्षा जल संचयन के अलावा भूजल रिचार्ज पर भी जोर दिया जा रहा है (देखें, जल संचयन व्यवस्था)। इन गांवों में 63 पुनर्भरण कूप हैं जो पाइप के माध्यम से तमाम घरों से जुड़े हुए हैं। छत पर होने वाली बारिश का जो पानी टांका भरने पर ओवरफ्लो होता है, वह पाइप के माध्यम से इन पुनर्भरण कूपों में पहुंच जाता है। इन कूपों के जरिए अब तक 57 करोड़ लीटर पानी रिचार्ज किया जा चुका है। इसके अलावा खराब हो चुके बोरवेल या हैंडपंप में भी वर्षा का जल को पाइपों के जरिए पहुंचाकर भूजल रिचार्ज किया जा रहा है। रिचार्ज जल की मात्रा कुल वर्षा व छत और धरातल के क्षेत्र को मापकर कर ली जाती है। पुनर्भरण कूपों में जल पहुंचाने का फायदा यह होता है कि क्षेत्र में भूजल स्तर सामान्य: स्थिर हो जाता है। कई जगह कूपों के पास बने सरकारी बोरवेल में जलस्तर में वृद्धि देखी गई है। भूजल का स्तर पता लगाने के लिए 12 गांवों में भूजल मापक यंत्र पीजोमीटर लगाया गया है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली की मदद से इसे तैयार किया गया है।

ग्राफ़िक : राज कुमार सिंह / सीएसई

इन गांवों में घरों से निकलने वाला पानी भी बेकार नहीं जाता। गांवों में 3,060 सोख्ता (सोक पिट) बनाए गए हैं जो भूजल को रिचार्ज करने में मददगार साबित हो रहे हैं। इसके अलावा बारिश का पानी पाइपों के माध्यम से सूख चुके पांच तालाबों में पहुंचाकर उन्हें पुनर्जीवित किया जा चुका है। डाउन टू अर्थ ने जब 30 नवंबर को गोविंदपुरा गांव का दौरा किया तो यहां के ऐसे ही पुनर्जीवित किए गए तालाब में प्रवासी पक्षी भी देखे गए।

इस्माइलपुर गांव में एक पक्के तालाब का निर्माण किया गया है जिसमें बारिश का पानी पहुंचाजा जाता है। इस पानी का इस्तेमाल खेती में किया जाता है। गांव में 111 टांके भी पानी का भंडारण कर रहे हैं। इन तमाम प्रयासों का नतीजा यह निकला कि चिड़ावा पंचायत समिति में भूजल दोहन 17.6 करोड़ लीटर से घटकर 10.8 करोड़ लीटर हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि पेयजल की आपूर्ति बारिश के पानी से होने लगी है। टांका और पुनर्भरण कूपों के कारण इस जलस्तर में गिरावट की दर कम हुई है। उदाहरण के लिए गोविंदपुरा गांव में 2014 से 2018 के बीच न्यूनतम 1.5 फीट से अधिकतम 3.6 फीट के बीच सालाना जलस्तर कम हुआ है। धानी इस्माइलपुर गांव में टांके और पुनर्भरण कूप नहीं है। इस अवधि के दौरान इस गांव में न्यूनतम 4.2 से लेकर अधिकतम 9.9 फीट के बीच जलस्तर सालाना कम हुआ है (देखें, कितनी कारगर व्यवस्था)।

स्रोत: रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान

पानी बचाने के ये प्रयास इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि झुंझनू जिला अतीत में सूखे की मार कई बार झेल चुका है। साल 2013 में एनल्स ऑफ एरिड जोन में एएस राव और सुरेंद्र पूनिया का अध्ययन बताता है कि देश के बाकी सूखाग्रस्त क्षेत्रों की तुलना में झुंझनू अतिशय मौसम की घटनाओं और सूखे के प्रति अधिक संवेदनशील है। मई और जून में यहां वाष्पीकरण की प्रक्रिया काफी तेज होती है। जिले में औसतन 480 मिलीमीटर बारिश होती है जबकि औसत वाष्पीकरण 1,819 मिलीमीटर है। कम बारिश और वाष्पीकरण की यह स्थिति सूखे के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। अध्ययन के अनुसार, अकेले चिड़ावा क्षेत्र में 1901 से 2011 के बीच 111 बार सूखा पड़ा है। यहां सतह का जल अनुपलब्ध है। इस कारण भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन हुआ है। साथ ही सामान्य से कम बारिश और उसके असमान वितरण से स्थितियां और खराब हुई हैं।

पालीवाल बताते हैं कि गिरते भूजल का मुख्य कारण सिंचाई की परंपरागत पद्धतियां भी हैं। वैज्ञानिक तरीके से एक हेक्टेयर में गेहूं की खेती की जाए तो फसल तैयार करने के लिए 46 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होती है लेकिन किसान जानकारी के अभाव में 76 लाख लीटर पानी का दोहन कर लेता है। अगर ड्रिप पद्धति से सिंचाई की जाए तो मात्र 16.1 लाख लीटर पानी की ही आवश्यकता होती है। एक हेक्टेयर में जौ की फसल तैयार करने में 28 लाख लीटर पानी की जरूरत होती है लेकिन किसान 35 लाख लीटर तक पानी दे देता है।

ड्रिप से सिंचाई करने पर 9.8 लाख लीटर पानी ही लगेगा। साफ है कि अगर समझदारी दिखाई जाए तो 65 प्रतिशत पानी बचाया जा सकता है और गिरते जलस्तर को काफी हद तक रोका जा सकता है। इसके अलावा अगर फसलों को मल्चिंग पद्धति से बोया जाए तो वाष्पीकरण से उड़ने वाला पानी भूमि में संचित किया जा सकता है। इससे सिंचाई की आवश्यकता भी आधी हो जाती है। पालीवाल बताते हैं कि राजस्थान में जल संकट से निपटने के लिए इन पद्धतियों को अपनाने के साथ ही जल संरक्षण के लिए तत्काल उपाय करने की जरूरत है। इसमें देरी का मतलब है अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना।

Subscribe to our daily hindi newsletter