मंदी के इस दौर में ग्रामीण संकट को माप सकता है यह उपकरण

इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के चार शोधकर्ताओं ने यह तैयार किया है, मनरेगा के विशाल ऑनलाइन डेटा का इस्तेमाल ग्रामीण संकट पहचानने में मददगार हो सकता है

By Shagun

On: Friday 20 September 2019
 
मनरेगा के तहत कार्यों की जियो-टैगिंग और श्रमिकों की ऑनलाइन निगरानी संकटग्रस्त क्षेत्रों के लिए रीयल टाइम में चेतावनी देने का एक मंच प्रदान करती है (श्रीकांत चौधरी / सीएसई)

यह एक अद्वितीय उपकरण है। यह महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को ट्रैक करने वाले विशाल आंकड़ों पर आधारित है, जो वास्तविक समय (रीयल टाइम) में इसे ग्रामीण संकट से जोड़ता है और त्वरित राहत उपाय पहुंचाने में सक्षम बनाता है।

मनरेगा देश भर में 10 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार देता है। यह उत्तर प्रदेश की आधी आबादी के बराबर है। यह 5 लाख गांवों में लागू एक ऐसी योजना है, जो ग्रामीण संकट कम करने में मदद करती है और गांव व जिला स्तरों पर संकट की स्थिति को दर्शाती है। लेकिन कृषि संकट का पता लगाने के लिए रीयल टाइम सूचकांक के रूप में इसे हाल ही में मान्यता मिली है और राष्ट्रीय स्तर पर बहस छिड़ी है।

2018 में चार प्रबंधन शोधकर्ताओं ने इस उपकरण का पता लगाया। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस, हैदराबाद के प्रसन्ना तांत्री, श्रद्धा पारिजात प्रसाद और निश्का शर्मा और नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के सुमित अग्रवाल मनरेगा पर शोध कर रहे थे। उन्होंने भारत के मौसम विभाग के सूखे के आंकड़ों को ब्लॉक स्तर पर मनरेगा के तहत काम की मांग और आपूर्ति के बीच संबंध को तलाशा और महसूस किया कि जब भी किसी जिले में सूखा पड़ता है, तो वहां मनरेगा के तहत कार्यरत लोगों की संख्या में बढ़ोतरी होती है। उन्होंने 2012 से 2017 तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया। इन लोगों ने देश के 600 जिलों का अध्ययन किया और पाया कि यह प्रवृत्ति लगभग हर जगह दिखती है। चूंकि मनरेगा डेटा प्रतिदिन अपडेट किया जाता है, इसलिए इसका उपयोग रीयल टाइम में किसी स्थानीय समस्या को उजागर करने के लिए किया जा सकता है। उन्होंने नौकरी की मांग जैसे मापदंडों का इस्तेमाल किया और 2016 से 2018 तक सामान्य, मध्यम और बड़े संकट का सामना करने वाले क्षेत्रों को दिखाने के लिए स्थानीयकृत संकट सूचकांक (आईएलडी) और एक मानचित्र विकसित किया।

यह मानचित्र एक ऐसे देश में उपयोगी उपकरण हो सकता है, जहां ग्रामीण संकट मापने का कोई पैमाना नहीं है। केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ग्रामीण घरेलू स्तर पर मासिक खपत व्यय की गणना करता है, जो स्थानीय संकट को दिखा सकता है। लेकिन यह डेटा दो साल के अंतराल पर जारी किया जाता है। यहां तक कि मंत्रालय जो जिला-स्तरीय जीडीपी जारी करता है, वह भी अनियमित है। तांत्री कहते हैं, “तनावग्रस्त क्षेत्रों के लिए कुछ करने का समय पहले ही बीत चुका है। हमें कार्रवाई करने के लिए तीन या चार साल तक डेटा का इंतजार नहीं करना चाहिए।”

पिछले साल शोधकर्ताओं ने अपने उपकरण के साथ कैबिनेट सचिवालय का दरवाजा खटखटाया, जिसके बाद 4 जुलाई को जारी आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में आईएलडी का उल्लेख किया गया। आर्थिक सर्वे कहता है, “एक आर्थिक झटका घर के उपभोग व्यय को काफी कम करता है, ऐसे में सही समय पर सहायता प्रदान करना महत्वपूर्ण है।” यह सर्वे कहता है कि तकनीक का कुशल उपयोग जमीन पर अंतर ला सकता है।

मनरेगा के तहत कार्यों की जियो-टैगिंग और श्रमिकों की ऑनलाइन निगरानी पहले से ही संकटग्रस्त क्षेत्रों के लिए रीयल टाइम में चेतावनी देने का एक मंच प्रदान करती है। उदाहरण के लिए, डाउन टू अर्थ ने जुलाई 2019 में संकट के स्तर को देखने के लिए रीयल टाइम आंकड़ों पर नजर रखी। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार, महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त अमरावती और नागपुर में 1.8 लाख लोगों ने मनरेगा के तहत काम की मांग की थी, जबकि बेहतर स्थिति वाले जिलों कोल्हापुर और रायगढ़ में काम मांगने वालों की संख्या सिर्फ 18,798 है।

आंध्र प्रदेश का भी यही हाल है, जहां सूखाग्रस्त कुरनूल और प्रकाशम जिलों में 16 लाख लोगों ने काम की मांग की, जबकि कडप्पा और विशाखापत्तनम में यह आंकड़ा 8 लाख से कम है। शोधकर्ताओं ने ग्रामीण संकट का पता लगाने के लिए प्राथमिक स्रोत के रूप में सूखे का उपयोग किया है, क्योंकि ग्रामीण गरीब, जो मनरेगा के लक्षित लाभार्थी हैं, ज्यादातर कृषि पर निर्भर रहते हैं और प्रतिकूल मौसम आर्थिक संकट का संकेतक बन जाता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि सूखा एकमात्र घटना है जिसके साथ इसे जोड़ा जा सकता है।

मनरेगा के तहत काम की मांग को मौसम से जुड़ी अन्य घटनाओं के साथ भी जोड़ा जा सकता है, जैसे बेमौसम बारिश, ओले या बर्फबारी जो फसलों को नष्ट कर देते हैं और ग्रामीण संकट पैदा करते हैं। इसके अलावा, मनरेगा के तहत काम की मांग में वृद्धि के लिए सूखा एकमात्र कारण नहीं है। फसल नष्ट करने वाले कीटों के हमले भी लोगों को मनरेगा के तहत काम का विकल्प चुनने के लिए मजबूर कर सकते हैं। इसी तरह किसी बड़े बुनियादी ढांचा परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की वजह से भी ऐसा हो सकता है। इन सभी को पोर्टल के माध्यम से देखा जा सकता है। एक बार जब सरकार मनरेगा की संख्या में वृद्धि पर गौर करती है, तो वह कारण खोजने और राहत प्रदान करने के लिए जांच शुरू कर सकती है (देखें ‘समय पर हस्तक्षेप’)।

हालांकि सरकार ने अभी तक यह तय नहीं किया है कि इस उपकरण का उपयोग कैसे किया जाए, लेकिन सरकार ने इसकी उपयोगिता को स्वीकार किया है। ग्रामीण विकास विभाग के तहत मनरेगा के निदेशक, राघवेन्द्र प्रताप सिंह का कहना है कि चूंकि योजना के तहत सभी डेटा को ऑनलाइन किया जा रहा है, इसलिए ग्रामीण संकट के बारे में एक आकलन किया जा सकता है।

हालांकि, यह अवधारणा भी त्रुटीहीन नहीं है। पूर्ववर्ती योजना आयोग के सदस्य मिहिर शाह बताते हैं, “मनरेगा के तहत काम की मांग के रिकॉर्ड को कम करके आंका गया है। कानून कहता है कि यदि सरकार 15 दिनों के भीतर आवेदक को काम नहीं देती है, तो उसे भत्ता देना होगा। चूंकि सरकारें ऐसा नहीं चाहतीं, इसलिए वे मांगों को दर्ज नहीं करतीं। जब भी वे काम देने में सक्षम होती हैं, तारीखों में हेरफेर कर देती हैं और कहती हैं कि आवेदन 15 दिन पहले आया था। इसलिए, हम इस धारणा पर काम कर रहे हैं कि प्रदान किया गया कार्य मांग के अनुसार है।” केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद मनरेगा के तहत प्रगति की देखरेख करने वाला एक केंद्रीय निकाय है। इसके पूर्व सदस्य के एस गोपाल भी कहते हैं कि काम की मांग की संख्या संकट को मापने के लिए एक कुशल संकेतक नहीं होगा। तांत्री का मानना है कि उपकरण के साथ समस्याएं हो सकती हैं, लेकिन इसका इस्तेमाल अभी भी वर्षों तक डेटा की प्रतीक्षा करने से बेहतर है।

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