Water

नदियां हिमालय से नहीं सचिवालय से बहती हैं

आज डाउन टू अर्थ पत्रिका को तीन साल पूरे हो चुके हैं। यह पत्र रवीश कुमार ने पत्रिका के पहले अंक में चिट्ठी पाती कॉलम के लिए लिखा था, इसे वेब-एडिशन में पहली बार प्रकाशित किया जा रहा है

 
By Ravish Kumar
Published: Tuesday 01 October 2019

Photo: DTE

हम बिहार से आते हैं। जहां के रास्ते में अचानक कोई नदी आ जाती है और उस पर बने पुल का आकार आपको स्मृतियों के अलग-अलग कालखंड में ले जाता है। हमने नदी को सिर्फ नदी के रूप में जाना। उसके किनारे बसे गांवों और रिश्तेदारों के किस्सों से जाना। मेलों से जाना था और मछली से जाना था। नहीं जानते थे तो राष्ट्रीय संसाधन के रूप में, आपदा-विपदा के रूप में और जीडीपी के समाधान के रूप में। हम नदी के साथ जीते थे। लगता था कि ये नदियां सदियों से हैं और सदियों तक रहेंगी। इसलिए बेफिक्र थे।

स्कूल जाते ही किताबों में नदियों का जो वर्णन मिला, उससे नदियों को जानने की यात्रा बदल गई। नदी कहां से आती है और कहां जाती है। नदी की लंबाई और प्रकार क्या है। जलजीवों से लेकर जलमार्ग बन जाने की कथा ने नदियों को लेकर छात्र जीवन की स्मृतियों पर अलग तरह का बोझ डाला। हम नदियों को रटने लगे। फलां सदानीरा है, फलां बरसाती है तो फलां सहायक है। किताबों को पढ़कर लगा कि नदियां हिमालय से नहीं सचिवालय से बहती हैं।

बचपन में ही देख लिया था कि गंगा अब नदी के अलावा सब कुछ है। मां-मां कहते हुए रेत माफि‍या और बिल्डर माफि‍या उसके आंचल को रौंदने लगे। गंगा तेरा पानी अमृत लिखकर ट्रकों ने अवैध लदान शुरू कर दिया। गंगा के ‘कमोडिफिकेशन’ की वो पहली दस्तक थी। आज वही अमृत बोतल बंद होकर कूरियर हो रहा है। गंगा का व्यापारिक प्रवाह बदल गया है। अब वह गंगोत्री से गैलनों में भरकर रेल में सवार होती है, फिर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन उतरकर डाक विभाग के दफ्तर आती है। वहां कोई उन्हें नन्हीं बोतलों में बंद कर देश के अलग-अलग हिस्सों में कूरियर कर देता है। भागीरथी गंगा को धरती पर ले आए और कूरियर वाले उसे धरती के अलग-अलग हिस्सों में डिस्पैच करने में जुट गए।

नदी से जुड़ी संस्कृतियां उसी के किनारे बनती हैं। कूरियर से नहीं बनती हैं। हम नदियों से जुड़े भावनात्मक लगाव को अब आउटसोर्स करने लगे हैं। ताकि करीब जाकर उसकी दुर्दशा देख आहत होने से बच जाएं। इस यकीन के साथ गंगा, गंडक या नर्मदा न भी बचे तो उनका पानी किसी न किसी के घर में एक बोतल में बचा मिल जाएगा। फिर एक दिन कोर्स की किताबों में पढ़ाया जाएगा कि गंगा दिल्ली के गोल डाकखाने से निकलती है और वहीं पर कुछ बोतलों में उसे बचाकर रखा गया है। हम खुश होंगे कि भारत ने नदियों को कड़ी सुरक्षा में रखा है।

मेरी नदी का नाम गंडक है। मैं इसे मां या मौसी या बुआ नहीं कहता। गंडक मेरे मन का आकाश है जो जमीन पर बहती है। गंडक नदी किसी सांस्कृतिक नौटंकी का हिस्सा नहीं है, न ही पर्यटन विभाग के लिए ब्रांड एंबेसडर है। बस चुपचाप बहती है। जब हम नब्बे के दशक के पहले साल में दिल्ली आए तो यमुना को देखने के लिए इलेवन अप एक्सप्रेस के दरवाजे पर खड़े रहे। सुबह-सुबह के अंधेरे वाली रोशनी में यमुना नीली लगी थी, मगर जब साफ रोशनी में देखा तो स्तब्ध रह गया। यमुना नाले की तरह नजर आई।

अब हम जब भी किसी नदी को देखते हैं, जल्दी कोई स्मृति नहीं कौंधती है। तरह-तरह के लक्ष्य याद आने लगते हैं। नाते में मां, मौसी और बुआ लगने वाली नदियों की सफाई करनी है। सफाई योजना का नाम राजीव गांधी से बदलकर दीनदयाल उपाध्याय योजना करना है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने हैं। टेम्स नदी के बचाने का आइडिया चुरा कर लाना है तो प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाकर विश्व बैंक के दफ्तर जाना है। नदी साफ नहीं हुई तो जल संसाधन मंत्री का इस्तीफा मांगना है।

शहरी और महानगरी आबादी की यही हालत है। ‘स्मार्ट सिटी’ वाले तो गंगा का थ्रीडी एनिमेशन बनाकर खुश हुआ करेंगे कि हमारे यहां लेजर से बहने वाली गंगा है। अब नदियों में नावें भी कम चलने लगी हैं। इस देश में इतनी नदियां हैं। तरह-तरह की नावें बनती हैं, लेकिन नाव पर लिखने वाला कोई पत्रकार या विशेषज्ञ नहीं है। हम नदियों के साथ अपनी स्मृतियों को भी उजाड़ रहे हैं। हम न नदियों के सहचर रहे, न वो हमारी रहबर।

रवीश कुमार 

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