Agriculture

खत्म होने के कगार पर पान की विरासत

पिछले दो दशकों से पान की यह संस्कृति भी सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। जलवायु परिवर्तन के दौर में उसके अस्तित्व पर ही संकट मंडरा रहा है

 
By Bhagirath Srivas
Published: Sunday 14 July 2019

महोबा जिला मुख्यालय में स्थित पान मंडी में पान की आवक कम हुई है। अब यहां  पान के व्यापार के दिन कम हो गए हैं (फोटो: भागीरथ / सीएसई)

“हमें दूर-दूर तक उम्मीद की किरण नजर नहीं आती। हमारी आने वाली पीढ़‍ी पान की खेती नहीं करेगी। हम किसी तरह अपने बाप-दादा की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। यही हालत रही तो आने वाले 10 से 15 साल में महोबा से पान की खेती पूरी तरह खत्म हो जाएगी।” अपने भविष्य को लेकर आशंकित संतोष कुमार चौरसिया उन चुनिंदा किसानों में हैं जो पुरखों से विरासत में मिली पान की खेती को नुकसान झेलकर भी जिंदा रखे हुए हैं। उन्हें पान की खेती का भविष्य अंधेरे में लगता है। पान की समृद्ध परंपरा को वह अपनी आंखों के सामने दम तोड़ते हुए देख रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में महोत्सव नगर के नाम से विख्यात महोबा जिले में दसवीं शताब्दी से पान की खेती हो रही है। चंदेल शासकों द्वारा बनाए बनवाए गए विभिन्न तालाबों के किनारे पान के बरेजा (पान की खेती को संरक्षित करने हेतु बनने वाला अस्थायी ढांचा) लगाने का हुनर हजारों चौरसिया परिवारों के पास है लेकिन अब वे पान से दूर भागते जा रहे हैं। महोबा में पान की जिस परंपरा को चंदेलों और मुगलों ने संरक्षण प्रदान किया, आजाद भारत में वह परंपरा अब विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। दो दशक से पान की खेती कर रहे संतोष कभी एक एकड़ जमीन पर बरेजा लगाते थे लेकिन अब अकेले बरेजा लगाने का जोखिम नहीं उठाते।

अब वह कुछ लोगों के साथ मिलकर सामूहिक बरेजा लगा रहे हैं। उन्होंने इस साल पान की 29 पारियां (लाइन) लगाई हैं। वह अपनी पत्नी के साथ दिन-रात पान की रखवाली करते हैं। पान के सुनहरे अतीत को याद करते हुए वह बताते हैं, “1970 के दशक में लोग सरकारी नौकरी छोड़कर पान की खेती करते थे। उस वक्त पान की खेती से होने वाला मुनाफा सरकारी नौकरी के वेतन से अधिक था। अब हालात बदल चुके हैं। अब कोई किसान पान की खेती नहीं करना चाहता।” नब्बे के दशक में हजारों लोगों को रोजगार देने वाली पान की खेती से अब करीब 150 परिवार ही जुड़े हैं। खेती का रकबा भी पिछले 500 एकड़ से सिकुड़कर 50 एकड़ पर जा पहुंचा है (देखें, पान का पतन,)। पान की विरासत को चंदेल शासकों के दौर से अब तक सहेजने वाले महोबा में लगभग 90 प्रतिशत किसानों ने इसकी खेती छोड़ दी है।

(स्रोत: आंकड़े कृषि क्षेत्र में जाकर एनबीआरआई के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक एवं पान अनुसंधान केंद्र, महोबा के संस्थापक पान वैज्ञानिक राम सेवक चौरसिया द्वारा अनुमानित)

पान की खेती पर मंडराता संकट केवल महोबा तक सीमित नहीं है। यही पूरे प्रदेश की कहानी है। महोबा स्थित पान प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र में पान शोध अधिकारी आईएस सिद्दीकी बताते हैं, “1995 में प्रदेश में 2,000 हेक्टेयर में पान की खेती की जाती थी, जो वर्तमान में 800-1,000 हेक्टेयर रह गई है। पान का व्यापार भी 50-60 करोड़ रुपए से घटकर 25-30 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है।” दूसरे शब्दों में कहें तो प्रदेश में पान का उत्पादन, रकबा व व्यापार 1995 के मुकाबले आधा बचा है।

पिछले 40 साल से पान की खेती में लगे दयाशंकर चौरसिया पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं, “जब बरेजा से मजदूर काम करके घर लौटते थे तो ऐसा लगता था मानो किसी मेले से लोग लौट रहे हों। वह वक्त ही अलग था। अब बरेजा एकदम वीरान हो गए हैं। पहले बरेजा लगाने के लिए महोबा में जगह कम पड़ती थी लेकिन अब इक्का दुक्का बरेजा ही काफी ढूंढ़ने पर दिखाई देते हैं।”

बदली परिस्थितियां

जलवायु परिवर्तन और मौसम के उतार-चढ़ाव ने इस जोखिम भरी खेती को बेहद संवेदनशील बना दिया है। पिछले 4-5 साल के दौरान मॉनसून में बारिश काफी कम हुई है। लगातार सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड के जलस्रोतों में पानी की बेहद कमी है। पानी की अनुपलब्धता का सबसे बुरा असर पान की खेती पर पड़ा है क्योंकि इसे गर्मियों में प्रतिदिन 4-5 बार पानी देना पड़ता है।

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के आंकड़े भी बताते हैं कि महोबा में साल 2018 में औसत से 54.57 प्रतिशत कम बारिश दर्ज की गई। दूसरे शब्दों में कहें तो 853.1 एमएम औसत के मुकाबले 465.6 एमएम बारिश ही हुई, वहीं 2017 में औसत के मुकाबले 496.5 एमएम बारिश हुई। पिछले साल हुई कम बारिश का असर इस साल स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। महोबा के अधिकांश तालाब मई के आखिरी हफ्ते तक सूख चुके थे। ऐसे ही एक तालाब मदन सागर के पास बरेजा लगाने वाले कमलेश चौरसिया ने जेसीबी से 4,000 रुपए प्रति घंटे देकर गड्डा खुदवाया था। उसका पानी भी पूरी तरह सूख चुका है। अब उन्हें करीब 200 मीटर दूर तालाब के पास बने एक दूसरे गड्डे से पाइप से पानी खींचना पड़ता है। उस गड्डे में भी कम पानी बचा है। उन्हें डर है कि गड्डा सूखने पर पान की खेती बर्बाद न हो जाए।

पिछले 25 साल से पान की खेती में लगे कमलेश कुमार चौरसिया इस साल 1.5 बीघा खेत बटाई पर लेकर पान की खेती करते रहे हैं। वह बताते हैं कि 20 साल पहले पानी समय पर बरसता था। सर्दी और गर्मी की चरम अवस्थाएं नहीं थीं। पान की खेती करने वाले अधिकांश किसान ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं। वे जलवायु परिवर्तन की वैज्ञानिक शब्दावली से परिचित नहीं हैं, लेकिन स्पष्ट रूप से मानते हैं कि मौसम में आए बदलाव ने संकट बढ़ाया है। खनन गतिविधियों और जंगलों के सफाए को भी वे संकट से सीधे तौर पर जोड़ते हैं।

संतोष चौरसिया पिछले दो दशक से पान की खेती कर रहे हैं। अब वह सामूहिक बरेजा करते हैं। रेलवे स्टेशन के पास  स्थित बरेजा में उन्होंने इस साल पान की 29 पारियां ही लगाई हैं

लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान से सेवानिवृत प्रमुख वैज्ञानिक एवं 22 वर्ष महोबा में पान शोध अधिकारी रहे राम सेवक चौरसिया ने महोबा में पान की खेती पर लंबे समय से बारीक नजर रखी है। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया, “पान को हर अतिशय मौसम से बचाकर रखना पड़ता है। गर्मियों में आमतौर पर तापमान 45-47 डिग्री सेल्सियस पहुंच जाता है, मॉनसून में अचानक तेज बारिश हो जाती है और ठंड में घना कोहरा या पाला पड़ जाता है। मौसम की ये परिस्थितियों पान की खेती के अनुकूल नहीं हैं।” वह आगे बताते हैं कि कुछ वर्षों में अतिशय मौसम की ऐसी स्थितियां ज्यादा हुई हैं। एक अन्य बड़ी समस्या की ओर इशारा करते हुए राम सेवक बताते हैं कि गुटखे के चलन ने पान की खेती को बुरी तरह प्रभावित किया है। जो लोग पहले पान बड़े चाव से चबाते थे, वे अब गुटखे की तरफ आकर्षित हुए हैं। गांव के घर-घर में गुटखे की पहुंच हो गई है। इसका जहां लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ ही रहा है, वहीं लाभकारी पान की मांग कम हुई है। विदेशों में पान के निर्यात के लिए मशहूर महोबा में अब इतना पान भी नहीं होता कि स्थानीय जरूरतें पूरी हो सकें। अब यहां बंगाल से पान आने लगा है।

सरकारी उपेक्षा

पान के किसान मौसम की मार के अलावा सरकारी उपेक्षा के भी शिकार हैं। पंप चलाने के लिए बिजली की व्यवस्था न होने के कारण मिट्टी के तेल की आवश्यकता पड़ती है। पान के किसानों को 50 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से मिट्टी का तेल खरीदना पड़ता है। प्रशासन की ओर से राशन कार्ड धारक को दिया जाने वाला मिट्टी का तेल ऊंट के मुंह में जीरा के समान है। सरकार राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत 500 वर्गमीटर क्षेत्र में बरेजा लगाने पर करीब 25,226 रुपए का अनुदान देती है। कमलेश बताते हैं कि इस साल 60 किसानों को अनुदान देना था लेकिन 35 किसानों को ही अनुदान राशि मिली। अनुदान राशि भी केवल उन्हीं किसानों को दी जाती है जो भूमि के मालिक होते हैं। कमलेश जैसे अधिकांश किसानों को योजना का लाभ नहीं मिलता जो इसके असली हकदार हैं। वह बताते हैं कि पान की खेती से जुड़े इक्का दुक्का किसानों के पास ही मालिकाना हक है। सिद्दीकी इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, “योजना का ऐसा प्रारूप होने के कारण बटाईदारों को योजना का नाम नहीं मिलता लेकिन अगर जमीन का स्वामी प्रशासन को लिखकर दे तो अनुदान राशि बटाईदार को मिल सकती है। कुछ मामलों में ऐसा हुआ भी है।”

प्रदेश सरकार ने वित्त वर्ष 2016-17 के लिए गुणवत्तापूर्ण पान उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन योजना शुरू की थी। इसके तहत 1,500 वर्गमीटर क्षेत्र में बरेजा निर्माण पर 75,680 रुपए देने का प्रावधान था। पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर शुरू की गई यह योजना प्रदेश के 12 जिलों के लिए थी लेकिन पान उत्पादन के महत्वपूर्ण जिले महोबा को फिलहाल इसमें शामिल नहीं किया गया। सिद्दीकी बताते हैं कि शुरू के कुछ वर्षों में यह योजना महोबा में लागू की गई थी लेकिन उसका फायदा बड़े किसानों को मिलता था। छोटे किसानों की मांग पर जिले में 500 वर्गमीटर का बरेजा लगाने से संबंधित योजना को लागू किया गया।

लागत का बोझ

सरकारी उपेक्षा के साथ-साथ पान की खेती की बढ़ती लागत ने भी किसानों की कमर तोड़कर रख दी है। बरेजा बनाने के लिए लगने वाला बांस, बल्ली, तार, घास, सनौवा आदि सामान के दाम आसमान छू रहे हैं। 20 साल पहले जो बांस 100 रुपए सैकड़ा मिलता था, वह अब बढ़कर 2,300 रुपए सैकड़ा पहुंच गया है। घास के 100 गठ्ठर 3,000 रुपए के पड़ते हैं। 20 साल पहले 100 गठ्ठर की लागत 80-90 रुपए थी। राम सेवक भी मानते हैं कि खेती की लागत पिछले 20 सालों में लगभग दोगुनी हो गई है। पहले एक एकड़ में पान की खेती का खर्च 5 लाख रुपए था जो अब बढ़कर करीब 9 लाख हो गया है। कमलेश बताते हैं कि लागत की तुलना में पान के दाम नहीं बढ़े हैं, इस कारण किसानों को लागत निकालना मुश्किल हो जाता है। सिद्दीकी भी मानते हैं कि पान की खेती के लिए जरूरी बांस आसानी से नहीं मिलता और जो मिलता उसका दाम इतना ज्यादा होता है कि उसे खरीद पाना किसानों के लिए बेहद मुश्किल होता है।


दयाशंकर चौरसिया 40 साल से पान की खेती कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि आने वाले 15-20 साल में यह खेती खत्म हो जाएगी। छत्तरपुर रोड के पास बने बरेजों के बाहर खोदे गए गड्डे में पानी सूख चुका है (दाएं)


आगे का रास्ता

पान की फसल को दैवीय आपदा अथवा मौसम की मार से बचाने के लिए जरूरी है कि सबसे पहले उसे फसल बीमा योजना के दायरे में लाया जाए। रामसेवक चौरसिया पान की खेती को बचाने के लिए इसकी तत्काल जरूरत पर जोर देते हुए बताते हैं कि किसान लंबे समय से इसकी मांग कर रहे हैं और प्रशासन की ओर से प्रस्ताव भी सरकार को भेजा गया है लेकिन अब तक कामयाबी नहीं मिल पाई है। उन्हें उम्मीद है कि सरकार जल्द किसानों के हित में फैसला लेगी। इसके अलावा पान को लोगों में फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए जरूरी है कि उसे वैल्यू एडेड आइटम के रूप में विकसित और प्रचारित किया जाए जिससे लोग हानिकारक गुटखे को छोड़ फिर से पान की आकर्षित हों।

पान किसान समिति के अध्यक्ष लालता प्रसाद चौरसिया बताते हैं कि पान का मूल्य पूरी तरह से बाजार और आढ़तियों के हवाले है। किसानों का इस पर कोई नियंत्रण नहीं है, इसलिए जरूरी है कि सरकार पान की लागत के हिसाब से मूल्य का निर्धारण और उसकी खरीद सुनिश्चित करे। पान की खेती से किसानों का मोहभंग रोकने के लिए जरूरी है कि सभी किसानों को बरेजा लगाने पर आर्थिक अनुदान दिया जाए। साथ ही बरेजा लगाने के लिए जरूरी सामान उपलब्ध कराने में भी योगदान दे। पिछले कई सालों से बंद पड़े पान अनुसंधान केंद्र को पुनर्जीवित कर उसे किसानों के हित में सक्रिय करना भी जरूरी है, ताकि किसानों को तकनीकी और वैज्ञानिक मदद मुहैया कराई जा सके। सिद्दीकी बताते हैं कि पान की खेती को खोया हुआ गौरव लौटने के लिए जरूरी है कि अन्य बागवानी फसलों के समान पान को भी राष्ट्रीय कृषि विकास योजना द्वारा अनुमोदित कर संरक्षित किया जाए। किसान अब बिना सरकारी मदद पान की परंपरा को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं है। इसमें देरी का मतलब है एक समृद्ध परंपरा की मौत।

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