एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिंड्राम (एईएस) से उत्तर बिहार में 120 बच्चों की मौत हो चुकी हैं, जिसमें 74 बच्चियां शामिल हैं।
पुष्यमित्र
पिछले एक पखवाड़े से उत्तर बिहार के जिलों में जारी एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिंड्राम (एईएस) के कहर से रविवार को 19 और बच्चों की मौत हो गयी। इनमें बच्चियों की संख्या 12 है। 2 जून से लगातार इस रोग की खबरें सामने आ रही हैं और इन खबरों में खास तौर पर यह बात सामने आ रही है कि मरने वालों में और भर्ती रोगियों में बच्चियों की संख्या अधिक है। वैसे तो इस रोग से अब तक मरने वाले बच्चों के आंकड़ों को लेकर काफी भ्रम की स्थिति रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अब तक 82 बच्चों की मौत हुई है, जबकि गैर आधिकारिक और स्थानीय मीडिया के सूत्रों के मुताबिक अब तक 120 बच्चे अकाल कलवित हो गये हैं, जिनमें 74 लड़कियां हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमारे समाज में आज भी बेटियों से भेदभाव की परंपरा जारी है।
स्थानीय अखबार में प्रकाशित खबरों के मुताबिक एईएस, जिसे स्थानीय लोग चमकी बुखार बता रहे हैं से 3 जून, 2019 को 2 बच्चे मरे, दोनों लड़कियां थीं, 4 जून को 3 बच्चों की मौत हुई, जिनमें 2 लड़कियां थीं, 5 जून को 5 बच्चे मरे, जिनमें 3 लड़कियां थीं, 6 जून को 4 बच्चों की मौत हुई, जिनमें 01 लड़की थी, 7 जून को 6 बच्चों की मौत हुई, जिनमें 4 लड़कियां थीं, 8 जून को 4 बच्चों की मौत हुई, जिनमें 2 लड़कियां थीं, 9 जून को 6 बच्चों की मौत हुई, जिनमें 4 लड़कियां थीं, 10 जून को सबसे अधिक 20 बच्चों की मौत हुई, जिनमें 14 लड़कियां थीं।
इसी तरह 11 जून को 10 बच्चों की मौत हुई, जिनमें 7 लड़कियां थीं, 12 जून को 4 बच्चों की मौत हुई, जिनमें 2 लड़कियां थीं, 13 जून को 8 बच्चों की मौत हुई, जिसमें 2 लड़कियां थीं, 14 जून को 13 बच्चों की मौत हुई जिसमें लड़कियों की संख्या 10 थीं। 15 जून को 16 बच्चों की मौत हुई, इनमें लड़कियों की संख्या 9 थी, जबकि 16 जून को 19 बच्चों की मौत हुई, इनमें 12 लड़कियां थी।
मुजफ्फरपुर के दो बड़े अस्पतालों में भर्ती होने वाले बच्चों में 60-70 फीसदी लड़कियां हैं। मृतकों के आंकड़े भी इसी तरफ इशारा करते हैं। इन आंकड़ों के आधार पर जब हमने यूनिसेफ, बिहार के स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ हुबे अली से बातचीत की तो उन्होंने कहा कि इस रोग की मूल वजह कुपोषण और गर्मियों में भूखे पेट बच्चों का सो जाना है। अगर आंकड़े यह बता रहे हैं कि रोग से पीड़ित होने वाले और मरने वालों में ज्यादातर बच्चियां हैं तो इसका एक अर्थ यह भी है कि बच्चियां भूखे पेट सो जा रही हैं।
वे कहते हैं कि हमारे समाज में आज भी यह परंपरा है कि पुरुष पहले खाना खाते हैं और महिलाएं और बच्चियां बाद में जो बचा खाना होता है, उससे काम चलाती हैं। कई दफा खाना खत्म होने के बाद उन्हें भूखे सोना पड़ता है। इसी वजह से राज्य में कुपोषित बच्चों में बच्चियों की संख्या अधिक है। इस रोग में ही नहीं, हमने कई अन्य रोगों में देखा है कि पीड़ितों में लड़कियों की संख्या अधिक होती है, एक मानसिकता यह भी है कि लड़कियों को लोग जल्दी इलाज कराने अस्पताल नहीं ले जाते, इस वजह से इलाज में देर हो जाती है और रोग बेकाबू हो जाता है।
इस रोग का विश्लेषण करने वाले डॉक्टरों का भी यही मानना है कि रोग से प्रभावित होने और मरने वाले बच्चों में ज्यादातर गरीब तबके के बच्चे हैं और ये पहले से कुपोषण का शिकार हैं। मुजफ्फरपुर के एक शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ अरुण साहा कहते हैं कि हमने पाया है, जिस तरह आम बच्चों के लिवर में ग्लूकोज संरक्षित होता है, कुपोषित बच्चों के लिवर में वह नहीं होता। इसलिए आम बच्चे अगर हाइपो ग्लूकेमिया का शिकार होते हैं तो उनके लिवर में संरक्षित ग्लूकोज, जिसे हम ग्लाइकोजीन फैक्टर कहते हैं, वह उनके शुगर लेवल को स्टैबलाइज कर देता है और उन्हें बचा लेता है, मगर कुपोषित बच्चे आसानी से इसका शिकार हो जाते हैं।
बिहार में महिला अधिकारों के मसले पर काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता शाहिना परवीन कहती हैं कि आज भी हमारा समाज वंचितों का समाज है और इस समाज परवरिश की प्राथमिकता लड़कों के लिए ही है, माना जाता है कि लड़कियां ऐसे ही पल बढ़ लेंगी। इसलिए इस क्षेत्र की लड़कियां ज्यादा कुपोषित हैं और इस रोग की चपेट में अधिक आ रही हैं। इसका मतलब यह भी है कि आंगनबाड़ी की सेवा दूर दराज तक नहीं पहुंच रही, जहां पहुंच भी रही वहां भी लड़कियों की पहुंच नहीं है।
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