Environment

सरकार के लिए गले की हड्डी बनते न्यायालय के फैसले

पर्यावरण के हित में दिए गए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के फैसलों पर अमल करना राज्य सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो रहा है  

 
By Varsha Singh
Published: Wednesday 19 December 2018
Credit: Samrat Mukharjee

नैनीताल उच्च न्यायालय के फैसले उत्तराखंड सरकार के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। अदालत धरती और पर्यावरण की अहमियत को समझते हुए, उन्हें संरक्षित करने की दिशा में जनहित याचिकाओं के माध्यम से फैसला सुना रही है। इन पर अमल लाना राज्य सरकार के लिए चुनौती साबित हो रहा है। यही वजह है कि उत्तराखंड से भारतीय जनता पार्टी के सांसद भगत सिंह कोश्यारी ने केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को पिछले महीने अक्टूबर में ज्ञापन सौंपा। उन्होंने जनहित याचिकाओं में उच्च न्यायालय की अति-सक्रियता का विरोध किया और राज्य की जनता को इस अति सक्रियता से राहत प्रदान करने का आग्रह किया।

उदाहरण के तौर पर नैनीताल में पीक सीजन में पार्किंग व्यवस्था न होने पर उच्च न्यायालय ने पर्यटकों के प्रवेश पर रोक लगा दी। सरकारी या नजूल भूमि पर बसे लोगों को हटाने के आदेश पारित किए। राज्य में कोई जल नीति नहीं है। नदियों में रिवर राफ्टिंग और साहसिक खेलों का आयोजन होता है तो हाईकोर्ट ने इन पर रोक लगा दी और राज्य सरकार को इसके लिए ठोस नीति बनाने के निर्देश दिए। अदालत के ये फैसले उत्तराखंड सरकार को असहज करने वाले थे। इन फैसलों का हवाला देते हुए भगत सिंह कोश्यारी ने कहा कि न्याय का चेहरा मानवीय होना चाहिए। जबकि उत्तराखंड उच्च न्यायालय सरकार व जनता के हित के बजाय पर्यावरण के हित में फैसले दे रहा है।

यहां हम उच्च न्यायालय के कुछ आदेशों का जिक्र कर रहे हैं, जो पर्यावरण संरक्षण के प्रति संतुलित तरीके से आगे बढ़ने की बात कहता है।

4 जुलाई 2018 को नैनीताल उच्च न्यायालय ने राज्य में हवा, पानी और धरती पर रहने वाले सभी जीवों को विधिक अस्तित्व का दर्जा दिया। इसके साथ ही उत्तराखंड के सभी नागरिकों को उनका संरक्षक भी घोषित किया। अदालत ने पर्यावरण प्रदूषण, नदियों के सिकुड़ने जैसी वजहों से लुप्त हो रहे प्राणियों और वनस्पतियों की जैव विविधता पर भी चिंता जताई।

इससे पूर्व 20 मार्च 2017 को भी नैनीताल उच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में गंगा और यमुना नदी को वैधानिक व्यक्ति का दर्जा दिया था। इन दोनों नदियों को क्षति पहुंचाना किसी इंसान को नुकसान पहुंचाने जैसा माना गया था। इस फैसले को विस्तार देते हुए अदालत ने हवा, पानी, ग्लेशियर, जंगल भी इसमें शामिल कर लिया था। इस आदेश को राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जिसके बाद जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने गंगा को जीवित इंसान का दर्जा देने संबंधी फैसले को रद्द कर दिया था।

यदि हम नदियों, जंगल, हवा पानी के अधिकार को मानें, तो आज हवा में जो जहर है, पानी जितना प्रदूषित है, जलवायु परिवर्तन का मुद्दा या ग्लोबल वार्मिंग, इस सबके लिए दोषी हम ही ठहराए जाएंगे। हमने अपनी नदियों को मैला किया है। हम ही तो हैं जिसने हवा में जहर घोला है। एसी और फ्रिज, मोटर-गाड़ियां जैसी मशीनें हमारी सुविधा के लिए हैं, जिनसे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैस ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं। तो जैसा सांसद भगत सिंह कोश्यारी ने कहा कि न्याय का चेहरा मानवीय होना चाहिए, यदि नदी-धरती सब को मानव मान लें, तो न्याय का चेहरा मानवीय ही तो है।

उत्तराखंड पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। विकास हो या पर्यटन, यहां सब कुछ प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर ही होना चाहिए। केदारनाथ आपदा में जो मौतें हुईं थी, उसकी वजह मानवीय चूक ही ठहराई गई थी। नदियों के किनारे हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स और उनका मलबा आपदा में जानलेवा साबित हुआ था। नदियों को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय ने जून 2018 में उत्तराखंड में जल-विद्युत ऊर्जा से जुड़े प्रोजेक्ट्स के निर्माण पर रोक लगा दी थी। अदालत ने सभी जिलाधिकारियों को निर्देश दिए कि हाइड्रो प्रोजेक्ट्स से निकलने वाले कचरे को निस्तारित करने के लिए सही जगह खोजी जाए जो नदियों से कम से कम 500 मीटर की दूरी पर हो। ये आरोप था कि हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स अपना कचरा नदियों में ही निस्तारित कर रहे हैं। अब ये फैसला भी सरकार के लिए मुश्किल था क्योंकि सरकार निजी कंपनियों को नाराज करने का कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती।

पर्यटन को बढ़ावा देने और बदले में राजस्व बढ़ाने के लिए राज्य सरकार हर संभव प्रयास कर रही है। लेकिन यदि इससे पर्यावरण को नुकसान हो रहा हो तो क्या किया जाना चाहिए। नैनीताल उच्च न्यायालय ने 20 अगस्त 2018 को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि बुग्यालों, अल्पाइन, सब अल्पाइन, मीडोज में पर्यटकों की संख्या को अधिकतम 200 तक सीमित की जाए। साथ ही वहां रात्रि विश्राम पर रोक लगा दी। बुग्याल यानी घास के मैदान जो हिमशिखरों की तलहटी में होते हैं। वहां कैंपिंग के नाम पर कमाई तो हो रही है लेकिन पर्यटक वहां जो कचरा छोड़ जाते हैं, वो पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील होते हैं। तो क्या ज्यादा जरूरी है? बुग्यालों की रक्षा या असंतुलित पर्यटन?

ट्रैफिक जाम देहरादून, मसूरी, नैनीताल समेत पूरे चारधाम यात्रा मार्ग की बड़ी समस्या है। सरकार ये जानती है। लेकिन अदालत ने इस पर संज्ञान लिया। 18 जून 2018 को उच्च न्यायालय के आदेश ने पूरे राज्य से अतिक्रमण हटाने के लिए जेबीसी मशीनें दौड़ा दीं। अदालत ने राज्य सरकार को चार हफ्ते में अतिक्रमण हटाने के निर्देश दिए। कोर्ट का आदेश न होता तो राज्य में इतने वर्षों (6 दशक से अधिक) से चल रहे अतिक्रमण को खत्म नहीं किया जा पाता। हालांकि इस मुद्दे पर उत्तराखंड सरकार को अपने ही विधायकों का विरोध झेलना पड़ा। इस आदेश की वजह से ही मलिन बस्तियों में रह रहे लोग भी एक बार फिर सरकार के संज्ञान में आए। कोर्ट के आदेश का ही असर था कि राजधानी देहरादून में 9 मीटर तक सिकुड़ गई सड़क से जब अतिक्रमण हटा तो 25 मीटर चौड़ी सड़क बरसों बाद अपनी पहली सी सूरत में लौटी।

गंगा, यमुना, भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी समेत कितनी नदियों का उदगम राज्य हर साल गर्मियों में जल संकट से जूझता है। इसी वर्ष 13 जून को उच्च न्यायालय का एक फैसला इस समस्या को दूर करने का रास्ता सुझाता है। न्यायालय ने राज्य में तालाबों और पोखरों पर किया गया अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया। न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सभी तालाबों को वर्ष 1951 की स्थिति में लाया जाए। अतिक्रमण की स्थिति ये है कि देहरादून ही आधे से ज्यादा रिस्पना नदी के विस्तार पर अतिक्रमण करके बसा है।

इसी तरह जून महीने में ही न्यायालय ने राज्य की नदियों और झीलों में जल क्रीड़ा पर रोक लगाई तो पर्यटन स्थलों पर उथल-पुथल मच गई। दरअसल राज्य के पास रिवर-राफ्टिंग, पैरा ग्लाइडिंग और साहसिक पर्यटन से जुड़े जैसे खेलों के लिए नीति ही नहीं था।  

बाघों की संख्या पर इतराने वाला उत्तराखंड अपने बाघों के संरक्षण के लिए क्यों ढिलाई बरत रहा है। अदालत ने 23 अगस्त 2018 को राज्य सरकार को टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स गठन करने के निर्देश दिए। इसके साथ ही राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण से पूछा कि जब तक राज्य सरकार अपने दायित्व के प्रति जागरुक नहीं होती और ठोस फैसले लेने शुरू नहीं करती, तब तक क्या एनटीसीए कार्बेट का प्रबंधन संभाल सकती है?

ये उच्च न्यायालय की नाराजगी नहीं थी, ये पर्यावरण के साथ पशु-पक्षियों की सुरक्षा को लेकर जरूरी चिंता थी। जिस पर तत्काल कार्रवाई की जानी चाहिए। न्यायालय एक के बाद एक ऐसे फैसले दे रहा था जिसके बारे में उत्तराखंड सरकार ने गंभीरता से सोचा ही नहीं। नदियों-जंगलों के संरक्षण के लिए जो योजनाएं चल भी रही हैं, वे कागजी ही होती हैं, वरना क्या गंगा अब तक साफ नहीं हो चुकी होती।

केंद्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ में कानून विषय के प्रोफेसर और शिवदत्त शर्मा का कहना है कि संविधान में जो पावर ऑफ डिस्ट्रिब्यूशन है उसके तहत अदालत को कई मामलों में सरकारों से ज्यादा शक्ति है कि यदि कार्य सरकारें नहीं करती हैं तो अदालत समाज के हित में फैसले कर सकें। वह कहते हैं कि अदालत के ये फैसले न्यायिक सक्रियता नहीं बल्कि आवश्यकता की श्रेणी में आते हैं। ये आज के समय की आवश्यकता है। अदालत के इन फैसलों पर लोगों में चर्चा होनी भी जरूरी है।

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