जल उपकर अधिनियम, 1977 खत्म किए जाने के बाद औद्योगिक ईकाइयों और स्थानीय प्राधिकरण पानी के इस्तेमाल के बावजूद सालाना 2.5 अरब रुपये बचा रहे।
देश की औद्योगिक ईकाइयां और स्थानीय प्राधिकरण इस वक्त पानी के इस्तेमाल को लेकर बिल्कुल बेफिक्र हैं। 1 जुलाई, 2017 को जल उपकर (वाटर सेस) खत्म किए जाने के बाद से न ही इनसे पानी के इस्तेमाल पर किसी तरह का कर वसूला जा रहा है और न ही इन्हें यह बताने की जरूरत रही है कि इनके जरिए इस वक्त कितने जल का दोहन किया जा रहा है। वहीं, दूसरी तरफ जल उपकर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और समितियों की वित्तीय रीढ़ थी, जिसको खत्म किए जाने के बाद से अब तक वित्त मंत्रालय विचार कर रहा है।
एक तरफ पर्यावरण को दांव लगाकर पानी का अंधाधुंध इस्तेमाल करने वाली औद्योगिक ईकाइयां और स्थानीय प्राधिकरण प्रतिवर्ष औसतन करीब 2.5 अरब रुपए का फायदा उठा रही हैं। वहीं दूसरी ओर इन रुपयों के अभाव में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड लड़खड़ा रहे हैं। प्रदूषण से बचाव के लिए उपाय करने वाले कई प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड औद्योगिक ईकाइयों की पुरानी देनदारी से ही अपना बजट चला रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्य पर्यावरण अधिकारी (उपकर) अमित कुमार तिवारी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि 1 जुलाई, 2017 के बाद से जो उपकर बंद हुआ वह केंद्र स्तर का फैसला है। जबकि औद्योगिक ईकाइयों की पुरानी देनदारी वसूली जा रही है। बहुत कम ही औद्योगिक ईकाइयों का बकाया बचा है। उन्होंने बताया कि ज्यादातर औद्योगिक ईकाइयां भू-जल पर निर्भर हैं और इसका हिसाब-किताब केंद्रीय भू-जल प्राधिकरण रखता है। वहीं, औद्योगिक ईकाइयां उन्हें अपने जल की खपत भी बताती हैं। जल उपकर के खत्म किए जाने के बाद से अभी राज्यों का केंद्र के साथ पत्राचार जारी है।
सतह के जल का इस्तेमाल करने वाली औद्योगिक ईकाइयों के संबंध में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ज्यादातर औद्योगिक ईकाइयां सतह के जल का इस्तेमाल नहीं करती। बिजली बनाने वाले डिस्कॉम्स ही सतह के जल का इस्तेमाल करते हैं। पर्यावरणविद और जल के उपकर की स्थिति पर सूचना के अधिकार से जानकारी हासिल करने वाले विक्रांत तोंगड़ ने बताया कि सतह के जल का इस्तेमाल कई औद्योगिक ईकाइयां करती हैं। नदी, तलाब और अन्य पानी के स्रोत को औद्योगिक ईकाइयों के जरिए ही बर्बाद किया जा रहा है। जल उपकर को खत्म करना औद्योगिक ईकाइयों को खुली छूट देना है। एक हिसाब से औद्योगिक ईकाइयों को पर्यावरण प्रदूषण के लिए सालाना 2.5 अरब रुपये का आर्थिक लाभ सरकार की ओर से दिया जा रहा है।
जल (प्रदूषण निवारण व नियंत्रण) उपकर अधिनियम, 1977 के तहत स्थानीय प्राधिकरण (नगर निगम, नगर पालिका) औद्योगिक ईकाइयों से वसूले जाने वाले जल उपकर को 1 जुलाई, 2017 को मिला दिया गया था। इसके बाद जल उपकर का अस्तित्व खत्म हो गया। इस जल उपकर का मकसद नगर निगम, नगर पालिका और औद्योगिक ईकाइयों से पानी के बदले उपकर वसूलना था। ताकि पानी की खपत नियंत्रित हो और उसका प्रदूषण से बचाव भी किया जा सके। वसूले जाने वाले उपकर का 80 फीसदी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को संचालन व प्रदूषण नियंत्रण के लिए मिलता था जबकि 20 फीसदी केंद्र स्वयं अपने पास रखती थी ताकि उसका इस्तेमाल केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के जरिए विभिन्न परियोजनाओं में किया जा सके।
आर्थिक मामलों और वित्त विभाग में नियुक्त उप निदेशक सुरजीत कार्तिकेयन के मुताबिक 2013-2014 और 2014-2015 में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या संघ शासित प्रदेशों को प्रत्येक वित्त वर्ष में 250 करोड़ रुपए (रिंबर्समेंट) के तहत दिया गया। जल उपकर में 25 फीसदी की छूट उसे दी जाती थी जो किसी भी तरह का शोधन प्लांट लगाता था। हालांकि उन्हें भी किसी तरह से अधिक पानी के खपत की इजाजत नहीं थी। इसके अलावा ऐसी सभी औद्योगिक ईकाइयां जो प्रतिदिन 10 किलोलीटर पानी से कम खपत करती थीं उन्हें उपकर से छूट थी लेकिन खतरनाक प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक ईकाइयों को कोई छूट नहीं थी।
विक्रांत तोंगड़ ने बताया कि उन्हें आरटीआई के तहत 2012 से 2017 तक अलग-अलग वित्त वर्ष में वसूले गए उपकर की जानकारी मिली है। इसके तहत 2012-2017 तक कुल पांच वर्षों में 13,740,046,841 रुपये (13.74 अरब रु) जल उपकर के तौर पर वसूले गए। यह पांच वर्षों की कुल वसूली जा सकने वाली राशि नहीं है, यह वह राशि है जो वसूली जा सकी। वहीं, 2012-2017 तक प्रदूषण नियंत्रण और संचालन के लिए 8,487,714,896 रुपये (8.74 अरब रुपए) राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्रदूषण नियंत्रण समितियों को दिए गए।
इस आर्थिक गणित से बाहर निकलें तो पर्यावरण संरक्षण के जिस मकसद के लिए जल उपकर कानून को 1977 में लागू किया गया था उसे खत्म करने के बाद से न ही प्रभावी नियंत्रण है और न ही इस नियंत्रण को लागू कराने वाली राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सक्षम बचे हैं। विक्रांत तोंगड़ का कहना है कि जबसे जल उपकर को खत्म किया गया तबसे औद्योगिक ईकाइयों के जरिए शहरों में जल प्रदूषण में भी इजाफा हुआ है क्योंकि अब किसी भी तरह से जल का ऑडिट नहीं किया जा रहा। स्थानीय प्राधिकरण और औद्योगिक ईकाइयां इस जलसंकट के दौर में भी अपने मन मुताबिक पानी का इस्तेमाल कर सकती हैं।
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