ग्रामीणों का कहना है कि इस परियोजना की वजह से उनका पारंपरिक रोजगार खेती, मछलीपालन और जंगल के उत्पादों पर अधिकार छिन जाएगा
बरगी बांध की वजह से 162 गांव के आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं। उनमें से कई गांव एक बार फिर चुटका परियोजना की वजह से विस्थापन का खतरा झेल रहे हैं।
नर्मदा घाटी की घुमावदार सड़कें, बारिश के बाद नदी के किनारे की पहाड़ियों पर बसी हरियाली और गांव का परिवेश चुटका गांव की शांत प्रकृति को दिखाता है। जबलपुर से 80 किलोमीटर दूर स्थित मंडल जिले के इस गांव में बसे आदिवासियों और किसानों के दिन की शुरुआत आमतौर पर जंगल जाकर वन्य उत्पाद इकट्ठा करने, जानवरों के लिए चारा और जलावन की लकड़ियां लाने से शुरू होती है, लेकिन शनिवार की सुबह यहां अलग हलचल है। करीब 100 आदिवासी घरों वाले इस गांव के ग्रामीण गांव के रंगशाला पर इकट्ठा होकर बड़े आंदोलन की तैयारी कर रहे हैं। कोई हाथ से बैनर पोस्टर लिख रहा है तो कोई नारे तैयार कर रहा है। यह तैयारी है रविवार को गांव में होने वाले हुंकार रैली की।
गांव के वरिष्ठ नागरिक दादू राम कुडापे के मुताबिक, गांव का अस्तित्व बचाने के लिए अब आंदोलन ही एक मात्र रास्ता है। ग्रामीण चुटका नाभकीय बिजली परियोजना की वजह से विस्थापन का खतरा झेल रहे हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि इस परियोजना की वजह से उनका पारंपरिक रोजगार खेती, मछलीपालन और जंगल के उत्पादों पर अधिकार छिन जाएगा। आंदोलन की रूपरेखा बताते हुए दादू राम बताते हैं कि पहला आंदोलन 20 अक्टूबर को चुटका गांव में होगा, इसके बाद 3 नवंबर को मंडला जिले में रैली निकाली जाएगी। 17 नवंबर को आदिवासी भोपाल आकर हुंकार भरेंगे। आंदोलन विस्थापन एवं पुनर्वास के मुद्दे पर केंद्रित होगा जिसमें चुटका परियोजना पर पुनर्विचार की मांग की जाएगी।
चुटका परियोजना से आखिर किसका फायदा?
इलाके के समाजसेवी राजकुमार सिन्हा बताते हैं कि सिर्फ चुटका परियोजना ही नहीं, बल्कि इलाके के आदिवासी अलग-अलग वजहों से विस्थापन झेलते आए हैं और आगे भी यह खतरा बना हुआ है। यहां 162 गांव के लोग बरगी बांध से विस्थापित हो चुके हैं, जिन्हें अब तक उचित पुनर्वास नहीं मिला। चुटका परियोजना की वजह से यहां के लोगों का घर और रोजगार तो छिनेगा ही, पर्यावरण को भी काफी खतरा उत्पन्न होगा। परियोजना से निकलने वाला प्रदूषित जल नदी में वापस छोड़ा जाएगा, जिससे जलीय जीवन भी संकट में आएगा। यह इलाका बांध बनने के बाद भूकंप की दृष्टि से भी संवेदनशील है और इस संयंत्र को लगाने का मतलब विनाश को बुलावा देना होगा। राजकुमार सिन्हा बताते हैं कि इस परियोजना के नाम पर अमेरिका और फ्रांस जैसे देश के नाभकीय संयंत्र वाली कंपनियों को फायदा होगा जो अपने अपने देश में खतरनाक संयंत्र बंद होने के बाद नया बाजार तलाश रहे हैं। विकसित देश परमाणु ऊर्जा के खतरे को देखकर अब वैकल्पिक ऊर्जा की तरफ बढ़ चुके हैं।
सौर ऊर्जा बेहतर विकल्प
सिन्हा ने कहा कि देश में बिजली की जरूरत से अधिक इसका उत्पादन हो रहा है। इस समय देश में 3 लाख 44 हजार मेगावाट की उत्पादन क्षमता है, जबकि उच्चतम मांग 1 लाख 65 हजार मेगावाट है।
सिन्हा ने कहा कि जिस वक्त इस परमाणु संयंत्र को मंजूरी मिली थी उस समय सौर ऊर्जा से बिजली बनाने के विकल्प महंगा था, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। 1,400 यूनिट के इस प्लांट से 1 मेगावाट बिजली बनाने का खर्च 12 करोड़ आएगा, जबकि सौर ऊर्जा में यह खर्च सिर्फ 4 करोड़ है। 40 साल बाद प्लांट को बंद करना होगा जिसके खर्च भी इसे लगाने के खर्च के बराबर ही आएगा।
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