डाउन टू अर्थ ने देश की कृषि शिक्षा की अब तक की सबसे बड़ी पड़ताल की है। इसे चार भाग में पढ़ सकते हैं। प्रस्तुत है, पहला भाग...
भारत की खेती-किसानी दिनों-दिन दरिद्र बनती जा रही है। कृषि विश्वविद्यालयों की पढ़ाई के बाद छात्र खेती-किसानी के नजदीक जाने से कतरा रहे हैं। देशभर में 73 कृषि विज्ञान और उससे जुड़े विषयों की शिक्षा देने वाले विशेष विश्वविद्यालय हैं। इन कृषि विश्वविद्यालयों में किसानों के बेटे-बेटियां पढ़ने नहीं आते हैं। खुद को अकेला महसूस करने वाला किसान अपने काम को बोझ मानकर अपने बच्चों को गैर कृषि कार्यों के लिए प्रेरित कर रहा है। यह स्थिति छोटी जोत वाले खेतिहरों के साथ ज्यादा है। बड़ी जोत वाले किसान परिवारों से कुछ ही बेटे-बेटियां कृषि शिक्षा लेने विश्वविद्यालय पहुंचते हैं लेकिन उनका मकसद खेती को प्राकृतिक तौर पर समृद्ध करने के बजाए खेत को विरासत में मिली कंपनी मानकर उसकी मैनेजरशिप करना है।
सचिन देवरियाल ने पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय के टिहरी स्थित रानीचौरी हिल कैंपस से कृषि विज्ञान से एमएससी की है। अब वह देहरादून के डॉल्फिन इंस्टीट्यूट में कृषि और बागवानी पढ़ाते हैं। सचिन बताते हैं कि कृषि की शिक्षा खेती करने के लिए नहीं हासिल की। उनका लक्ष्य कृषि वैज्ञानिक बनना है। वह कहते हैं कि एमएससी करने वाले उनके ज्यादातर साथी नौकरी की तलाश में हैं। उनके मुताबिक इतनी पढ़ाई-लिखाई कोई खेती करने के लिए नहीं करता। हालांकि, वह मानते हैं कि खेती में अच्छी आमदनी हो सकती है। फलों की कीमत बाजार में अच्छी मिलती है। लेकिन किसानों को इसका फायदा नहीं मिलता।
एक तरफ सचिन जैसे छात्र हैं जो कृषि वैज्ञानिक बनने का सपना पाले बैठे हैं, दूसरी ओर देश के कृषि विश्वविद्यालयों में शिक्षक या वैज्ञानिकों की औसतन 20 फीसदी जगह खाली है। प्रत्येक वर्ष 25 हजार से ज्यादा छात्र चार वर्षीय कृषि स्नातक बन जाते हैं जो रोजगार की एक सीढ़ी भी ऊपर नहीं चढ़ पाते। भारत सरकार कृषि शिक्षा को पेशेवर शिक्षा की श्रेणी में रख चुकी है लेकिन इसके बावजूद अवसरों की अभी जबरदस्त कमी है। हर वर्ष जिन थोड़े से छात्र-छात्राओं को कृषि संबंधी विषयों की पढ़ाई का मौका मिल रहा है, वे खेती-किसानी में अंधकार देख रहे हैं। रोजगार के लिए ऊंची से ऊंची डिग्री हासिल करना उनकी मजबूरी बन गई है। सिर्फ स्नातक और परास्नातक से उनका काम नहीं चल रहा। न ही कृषि के मूल काम में छात्र पढ़ाई के बाद जाने के इच्छुक हैं। जब पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स एंड प्लांट ब्रीडिंग विभाग के प्रोफेसर एएस जीना से सवाल किया गया कि कृषि विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्र खेती क्यों नहीं करते तो उनका जवाब था, “हमारी शिक्षा पद्धति ही जॉब ओरिएंटेड है।
डिग्री हासिल करने के बाद कोई खेत की ओर जाना नहीं चाहता।” देश के शीर्ष कृषि विश्वविद्यालयों में खेती-किसानी की पढ़ाई करने वाले छात्र प्लांट ब्रीडिंग, हॉर्टीकल्चर और फूड प्रोसेसिंग की निजी कंपनियों के अलावा मेडिकल, सिविल सेवा और बैंक को अपने भविष्य का ठिकाना बना रहे हैं। किसानों की मदद करने के लिए जमीन पर वैज्ञानिकों की पहले से ही कमी है जबकि विश्वविद्यालय पेशेवर युवाओं को सीधा जोड़ने में नाकाम साबित हो रहे हैं। कृषि का मूल काम छोड़कर उससे जुड़े और निर्भर अन्य क्षेत्रों में रोजगार के कुछ मौके छात्रों को मिल रहे हैं। हिमालयी राज्यों जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड के शीर्ष कृषि विश्वविद्यालयों से पढ़कर निकलने वाले छात्रों को बागवानी का काम रास आ रहा है तो दूसरी तरफ मैदानी भागों के छात्र निजी कंपनियों की तरफ देख रहे हैं या फिर अपना रास्ता बदल रहे हैं। यदि आंकड़ों में बात की जाए तो कुल छात्रों की संख्या में औसत 20 से 25 फीसदी छात्रों को ही नौकरी मिल रही है। चौधरी सरवण कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के एक प्रोफसर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि इस विश्वविद्यालय में खेती-किसानी करने वालों के बेटे-बेटियां बिल्कुल भी पढ़ने नहीं आते। वहीं, प्रत्येक वर्ष यदि हर बैच में दो या तीन उद्यमी किसान निकल जाएं तो यह बहुत बड़ी बात होती है।
इस विश्वविद्यालय में उच्च तकनीकी और गुणवत्ता वाली प्रयोगशाला है लेकिन यहां शिक्षक, वैज्ञानिक और कर्मचारियों की संख्या में करीब 30 फीसदी की कमी है। उन्होंने बताया कि यहां से निकलने वाले छात्र ज्यादातर निजी कंपनियों और बागवानी विभाग व उच्च शिक्षा की तरफ रुख करते हैं। 2018 में इस विश्वविद्यालय से एक भी छात्र को पीएचडी की डिग्री नहीं मिली, जबकि 216 छात्र स्नातक, परास्नातक (पीजी) में थे। जब पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति तेज प्रताप से पूछा गया कि जो बच्चे कृषि की शिक्षा ग्रहण करने के लिए विश्वविद्यालयों में आ रहे हैं, क्या वे वापस खेती की तरफ लौट रहे हैं तो उन्होंने बताया, “हमारे देश में जो किसान अभी खेती कर रहे हैं, वे अपने बच्चों को इसलिए पढ़ाते हैं ताकि उन्हें नौकरी मिल जाए। बच्चे की पढ़ाई पर इतना पैसा खर्च करने के बाद छोटे या मझोले किसान का बेटा वापस खेती के लिए नहीं जा सकता। खेती में उसके पास इतने साधन नहीं हैं, इतनी आमदनी नहीं है कि वे उससे बेहतर जीवन स्तर हासिल कर सके।”
गुजरात में आनंद कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति एनसी पटेल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उनके विश्वविद्यालय में 450 से अधिक स्टाफ कार्यरत है जबकि 20 फीसदी पद रिक्त हैं। विश्वविद्यालय में करीब 3 हजार छात्र अध्ययनरत हैं। हर वर्ष स्नातक की भर्ती के लिए 20 हजार से ज्यादा आवेदन आते हैं। पटेल ने बताया कि कृषि के लिए इस वक्त देश की सबसे बड़ी चुनौती प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा है। जमीन और पानी का क्षरण तेजी से हो रहा है। ऐसे में यदि इस क्षरण की पूर्ति नहीं की जाएगी तो खेती-किसानी अगले 10 से 15 वर्षों में बहुत जटिल हो जाएगी।
जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर से जुड़े वरिष्ठ कृषि प्राध्यापक और कुलपति ऑफिस में सीनियर टेक्निकल ऑफिसर एमएल भाले बताते हैं कि राज्य में होने वाले प्री एग्रीकल्चरल टेस्ट (पीएटी) काफी कठिन होते हैं और काफी प्रतिस्पर्धा के बाद छात्रों को कॉलेज में दाखिला मिलता है। मध्य प्रदेश के सरकारी कृषि कॉलेज में आने वाले छात्र बेहतरीन होते हैं। हालांकि वे मौसम में बदलाव, लागत में बढ़त और पानी सहित अन्य संसाधनों में लगातार हो रही कमी की वजह से खेती को हाथ नहीं लगाना चाहते। वहीं निजी कॉलेजों में दाखिले के लिए अंधी दौड़ को देखकर कोई भी इसे कृषि शिक्षा का सुनहरा समय कह सकता है, लेकिन स्थिति बिल्कुल इसके उलट है। सरकारी कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों में से अधिकतर अलग-अलग क्षेत्रों में नौकरियों में लग जाते हैं। जबलपुर कृषि महाविद्यालय के असोसिएट प्रोफेसर अमित शर्मा बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि हर कोई नौकरी में जाता है लेकिन अधिकतर छात्रों का रुझान नौकरियों की ही तरफ है।
जम्मू-कश्मीर में शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति नजीर अहमद ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उनके विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए 80 से 90 फीसदी अंक हासिल करने वाले छात्र ही आते हैं। कड़ी प्रवेश परीक्षा के बाद प्रत्येक वर्ष करीब 1,000 छात्रों को दाखिला मिलता है। इस वक्त विश्वविद्यालय में 3,500 बच्चे अध्ययनरत हैं। इनमें रोजगार के लिए सबसे पसंदीदा विषय बागवानी है। कृषि शिक्षा के लिए कितनी मांग है? इस सवाल के जवाब में वह बताते हैं कि राज्य में स्वास्थ्य के बाद कृषि ही छात्रों का सबसे पसंदीदा विषय बन रहा है। इसके अलावा जो भी छात्र बाहर निकल रहे हैं, उनमें से नाममात्र के छात्र ही उद्यमिता कर रहे हैं। ज्यादातर छात्र बागवानी विभाग में या उच्च शिक्षा को अपना लक्ष्य बनाते हैं। उन्होंने बताया कि हमें अब भी भारत को कृषि प्रधान देश ही कहना होगा क्योंकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष 60 फीसदी से भी ज्यादा रोजगार कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। यदि लघु और सीमांत किसानों की उन्नति के लिए उचित फैसले नहीं लिए गए तो वे कृषि में टिक नहीं पाएंगे। साथ ही कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जो इतना बड़ा रोजगार सृजन कर सके। आजादी के समय देश की सकल घरेलू उत्पाद में 50 फीसदी हिस्सेदारी कृषि की थी, अब यह घटकर 14 फीसदी रह गई है। अब जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है खाद्य सुरक्षा। किसानों को उसकी फसल का जब तक उचित दाम नहीं मिलेगा और भंडारण की क्षमता नहीं बढ़ेगी, तब तक किसानों की हालत नहीं सुधरेगी और खाद्य सुरक्षा को स्थायी नहीं बना पाएंगे। उन्होंने बताया कि नवंबर 2018 के दौरान बर्फबारी हुई, इससे सेब के पेड़ों को काफी नुकसान पहुंचा। आजकल प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी किसानों का नुकसान बढ़ा है। यदि उन्हें मदद नहीं दी जाएगी तो निश्चित रूप से खेती-किसानी से वह हासिल नहीं हो पाएगा, जो हम सोच रहे हैं।
... जारी
(साथ में उत्तराखंड से वर्षा सिंह, बिहार से उमेश कुमार राय, मध्य प्रदेश से मनीष चंद्र मिश्रा, छत्तीसगढ़ से अवधेश मलिक, उत्तर प्रदेश से महेंद्र सिंह)
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