गैस त्रासदी के नमूने ही नहीं बचे, कैसे होगी जांच?

दुनिया की इस भीषण त्रासदी के बचे हुए अवशेषों को नष्ट करने में अधिकारियों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी

By Anil Ashwani Sharma

On: Monday 03 December 2018
 
Credit: Arnab Pratim Dutta/ Cse

भोपाल गैस त्रासदी के चौंतीस साल बाद भी पीड़ितों को न्याय नहीं मिला है। इस त्रासदी के अवशेषों को नष्ट करने में अधिकारियों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। इस बात का सबूत है कि अधिकारियों के पास आपदा का कोई फोरेंसिक सबूत नहीं बचा है। यदि यह होता तो यहां चल रहे परीक्षणों में सबसे महत्वपूर्ण सबूत साबित होता और मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) के दुष्प्रभावों को समझने में भी मदद मिलती।

भोपाल में मेडिको-लीगल इंस्टीट्यूट (एमएलआई) के पास गैस पीड़ितों से संबंधित एक भी नमूना नहीं है। इस संबंध जब एमएलआई के निदेशक अशोक शर्मा से बातचीत करने की कोशिश की गई तो कोई जवाब नहीं आया। यही नहीं इस संस्थान के पूर्व निदेशकों से भी बातचीत करने की कोशिश की गई लेकिन वे दूसरे निदेशक का नाम यह कहते हुए सुझाते गए कि वे ही इस सवाल का जवाब देंगे।

फोरेंसिक नमूने इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उस समय भारत को एमआईसी के बारे में कुछ भी पता नहीं था। इस संबंध में भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते हैं, एमआईसी से प्रभावित अंगों के नमूने स्पष्ट रूप से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय यूनियन कार्बाइड (अब डॉव केमिकल के स्वामित्व में) को प्रभावित करेंगे क्योंकि कोई अन्य कंपनी देश में गैस नहीं बना रही थी। वह कहते हैं, जिन मामलों में नमूने सबूत के रूप में रखे गए थे, वे अब भी जिला मजिस्ट्रेट और जिला सत्र न्यायाधीश की अदालतों में लंबित पड़े हुए हैं। इसमें चार्जशीट में नामित लोग प्रभावशाली हैं। नमूने का परीक्षण सरकारी निकाय द्वारा किया गया था, न कि किसी भी स्वतंत्र निकाय द्वारा। क्या होगा यदि कोई आरोपी यह दावा कर दे कि एमआईसी के कारण कोई नहीं मरा। इसे साबित करने के लिए अब सबूत ही खो गए हैं।

भोपाल गैस त्रासदी पर इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की एक 2010 की रिपोर्ट में कहा गया है कि आपदा के समय एमआईएल के निदेशक हेरेश चंद्र ने दिसंबर 1984 में आपदा के बाद ही 731 शवों को प्राप्त किया था। गैस रिसाव के तुरंत बाद, ग्वालियर में रक्षा अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में पैथोलॉजी इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में आईसीएमआर, लखनऊ में भारतीय विष विज्ञान संस्थान, गुजरात में फोरेंसिक प्रयोगशाला और केंद्रीय ब्यूरो सहित विभिन्न सरकारी विभागों में लगभग 400 नमूने भेजे गए थे।

1990 में एमएलआई के निदेशक के रूप में पद संभालने वाले डी. के. सतपथी ने कहा कि 200 नमूनों को संस्थान में एक विशाल फ्रीजर में रखा गया था। उनके अनुसार, उन्होंने फ्रीजर की रक्षा के लिए दो व्यक्तियों को नियुक्ति किया था क्योंकि संरक्षित अंग मृत्यु के कारणों की जानकारी में मदद कर सकते थे। चूंकि नमूने को संरक्षित करना महंगा था, इसलिए मैंने आईसीएमआर, रक्षा अनुसंधान संस्थान और विभिन्न अन्य संस्थानों को पत्र लिखा कि नमूने के साथ क्या किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, इस संबंध में किसी ने भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। सतपथी ने कहा कि शायद केंद्र या राज्य नमूनों का निपटान नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन पर मेडिकल सबूत को खत्म करने के लिए यूनियन कार्बाइड द्वारा रिश्वत देने का आरोप लगा रहे थे। लेकिन, सतपथी का दावा है कि, जून 1999 में लंबी बिजली कटौती के दौरान, फ्रीजर ने काम करना बंद कर दिया और अधिकांश नमूने नष्ट हो गए। वह कहते हैं कि केवल कुछ नमूने जिन्हें औपचारिक रूप में रखा गया था, बचाया गया। नमूने में बच्चों और भ्रूण शामिल होते हैं। सेवानिवृत्त होने पर मैंने इन सभी चीजों को संस्थान को सौंप दिया था।

भोपाल मेमोरियल अस्पताल एवं रिसर्च सेंटर के निदेशक मनोज पांडे और नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन एनवायरनमेंटल हेल्थ, ये दोनों वे संस्थान हैं जहां सतपथी ने पत्र भेजा था। अब इन संस्थानों का कहना है कि हमें ऐसे पत्र कभी नहीं मिले। गैस पीड़ितों के शव के एकत्र किए गए नमूनों के बारे में पूछे जाने पर, आईसीएमआर के महानिदेशक वीएम कटोच ने कहा कि उनके पास कोई जानकारी नहीं है। यह पहली बार है जब कोई मुझे नमूने के बारे में पूछ रहा है। मुझे पता लगाना होगा। 

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