Environment

ग्रीन बोनस की खैरात नहीं, राॅयल्टी का हक चाहिए: जगत सिंह जंगली

हिमालयन कॉन्कलेव में ग्रीन बोनस की बात आने के बाद पर्यावरण सेवाओं के बदले आर्थिक लाभ के मांग सबसे पहले उठाने वाले जगत सिंह ‘जंगली’ से विशेष बातचीत- 

 
By Trilochan Bhatt
Published: Monday 29 July 2019
जगत सिंह जंगली। फोटो: त्रिलोचन भट्ट


मसूरी में हिमालयी राज्यों की काॅन्कलेव रविवार, 28 जुलाई को इन राज्यों की विभिन्न समस्याओं पर चर्चा के बाद संपन्न हो गई। इस काॅन्कलेव में एक बार फिर हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस देने की मांग लगभग हर राज्य की ओर से उठाई गई और इस संबंध में एक संयुक्त प्रत्यावेदन काॅन्कलेव में मौजूद केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन और नीति आयोग को उपाध्यक्ष राजीव कुमार को सौंप दिया गया। दोनों की तरफ से आश्वासन दिया गया कि इस संबंध में जल्द कार्यवाही शुरू कर दी जाएगी। सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस देने की मांग पूरी हो पाएगी? पर्यावरणीय सेवाओं के लिए आर्थिक लाभ की मांग सबसे पहले पर्यावरणविद् और अपने मिश्रित वन के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के जगत सिंह ‘जंगली’ ने उठाई थी। ‘डाउन टू अर्थ’ ने इस बारे में उनसे बातचीत की। बातचीत के कुछ अंश यहां दिये जा रहे हैं।

प्रश्न: मसूरी में हिमालयी राज्यों की एक काॅन्कलेव में फिर ग्रीन बोनस की मांग की गई है। यह मांग आपने सबसे पहले उठाई थी। क्या आपको लगता है कि यह मांग पूरी होगी?
उत्तर: नहीं, मैंने कभी ग्रीन बोनस की मांग नहीं की। मैंने ऑक्सीजन राॅयल्टी की बात की थी। इस मांग को लेकर 30 साथियों के साथ 5 अगस्त 1997 को रुद्रप्रयाग जिले के अपने गांव कोट मल्ला से एक पदयात्रा निकाली थी। 15 अगस्त को दिल्ली राजघाट पर यह पदयात्रा समाप्त हुई थी। इसके बाद हमने तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन, प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल और पर्यावरण मंत्री सेफुद्दीन सोज को ज्ञापन दिया गया था। प्रधानमंत्री के तत्कालीन आर्थिक सलाहकार ने यह मांग प्रधानमंत्री के सामने रखने का आश्वासन दिया था, लेकिन हुआ कुछ नहीं।

प्रश्न: ग्रीन बोनस और ऑक्सीजन राॅयल्टी में क्या फर्क है?
उत्तर: वही फर्क है जो अधिकार और खैरात में होता है। मैं उत्तराखंड के परिपेक्ष में ही अपनी बात कहूंगा। हम लोग अपनी जमीनों पर खूब पेड़ लगाते हैं, इससे हमें बेशक नुकसान होता है, लेकिन ये पेड़ पर्यावरण संतुलन बनाते हैं और पूरे देश को आॅक्सीजन देते हैं। इस सेवा के बदले हमें राॅयल्टी मिलनी चाहिए, जो हमारा हक है। लेकिन राज्य सरकारों ने इसे ग्रीन बोनस बनाकर खैरात में बदल दिया। मुझे नहीं लगता कि ग्रीन बोनस कभी मिल पायेगा। ग्रीन बोनस की मांग केन्द्र सरकार आसानी से खारिज कर सकती है और यह तर्क किसी अदालत में भी नहीं ठहर सकता, जबकि आॅक्सीजन राॅयल्टी के लिए कोई भी सरकार मना नहीं कर सकती।

प्रश्न: इसे थोड़ा और स्पष्ट करेंगे?
उत्तर: केन्द्र सरकार और कोई भी अदालत आसानी से कह सकती है कि 70 प्रतिशत जंगल वन भूमि में हैं, इनकी देखरेख वन विभाग करता है। वन विभाग को सरकार वेतन और अन्य कार्यों के लिए पैसा देती है तो फिर ग्रीन बोनस किस बात का मांग रहे हो। दूसरी तरफ राॅयल्टी का मामला दूसरा है। यह साफ है कि उत्तराखंड में ज्यादातर पेड़ लोगों की निजी भूमि में हैं। वन विभाग के पास तो चीड़ के जंगल हैं, जो आॅक्सीजन से ज्यादा गर्मी के दिनों आग लगने के कारण कार्बन उत्र्सजन करते हैं। इस दृष्टि से राज्य सरकार और उसका वन विभाग ग्रीन बोनस पाने नहीं जुर्माना देने का हकदार है।

प्रश्न: तो फिर आॅक्सीजन राॅयल्टी किस आधार पर मिलेगी?

उत्तर: आॅक्सीजन राॅयल्टी पूरी तरह दूसरी बात है। हमारी मांग थी कि यह राॅयल्टी उन ग्राम पंचायतों को दी जाए जो पंचायती भूमि में जंगल विकसित कर रहे हैं और उन लोगों को दी जाए, जो अपनी निजी भूमि में पेड़ लगा रहे हैं। यह बात मैंने दिल्ली में साइंस एकेडमी में आयोजित क्लामेट चेंज काॅन्कलेव में भी कही थी। उस समय मेरी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। एक महीने बाद जब जापान की संसद में यह मामला उठा, तब जाकर यह मांग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आई। बाद में मेरी इस मांग को राज्य सरकार ने लपक लिया। 2009-10 में शिमला में हुए हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्रियो के सम्मेलन में इसे ग्रीम बोनस का नाम देकर यह राशि ग्राम पंचायतों और धरातल पर काम करने वाले लोगों के बजाय राज्य सरकार को देने का प्रस्ताव बनाया गया।

प्रश्न: लेकिन यह पैसा तो राज्य सरकार के माध्यम से भी ग्राम पंचायतों और पेड़ लगाने वालों को मिल सकता है।
उत्तर: फर्क समझना होगा। पहली बात तो यह है कि सरकार के पास वन महकमा है। उस पर लाखों रुपये खर्च होते हैं, तो उसे क्यों बोनस मिले? दूसरी बात यह है कि यदि यह पैसा राज्य सरकार को मिल भी जाए तो इसकी कोई गारंटी नहीं है कि पैसा वनों के विकास में खर्च होगा। कैम्पा का उदाहरण सामने है। यहां पैसा विकास कार्यों के लिए काटे गये वनों की भरपाई के लिए मिलता है, लेकिन खर्च वन विभाग के अधिकारियों के लिए महंगी गाड़ियां खरीदने में किया जाता है। मैंने अपनी निजी जमीन पर 1990 से लेकर अब तक एक लाख से ज्यादा पेड़ लगाये हैं। आज यह एक भरा-पूरा मिश्रित वन है। राज्य में सभी लोग अपनी जमीन पर पेड़ उगाते हैं। कई लोगों ने मेरे कहने पर भी लगाये हैं। कल्पना कीजिए कि हम सभी अपनी जमीन में लगे पेड़ काट दें तो क्या स्थिति होगी। इस लिए पर्यावरणीय सेवाओं के बदले राॅयल्टी आम लोगों को मिले, न किस वन विभाग को। इसलिए राज्य सरकारों को चाहिए कि वे ग्रीन बोनस की मांग छोड़ दें और आॅक्सीजन राॅयल्टी पर आ जाएं।

Subscribe to Daily Newsletter :

Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.