हिम तेंदुओं के संरक्षण में स्थानीय समुदायों को शामिल करना और उनकी आजीविका सुनिश्चित करना एक बेहतर रणनीति हो सकती है
हिम तेंदुओं के संरक्षण में स्थानीय समुदायों को शामिल करना और उनकी आजीविका सुनिश्चित करना एक बेहतर रणनीति हो सकती है। भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन में यह बात उभरकर आई है।
हिम तेंदुओं के प्रमुख आवास स्थल लद्दाख में यह अध्ययन किया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि स्थानीय लोगों को यदि इस जीव के संरक्षण के महत्व का अहसास दिलाया जाए और हिम तेंदुओं द्वारा पशुओं के शिकार से होने वाले नुकसान की भरपाई कर दी जाए, तो हिम तेंदुओं को बदले की भावना से मारने की घटनाओं पर लगाम लगाई जा सकती है।
हिम तेंदुए अल्पाइन पारिस्थितिकी तंत्र में पाए जाने वाले प्रमुख शिकारी जीव होते हैं। एशियाई जंगली बकरा आइबेक्स, पर्वतीय तिब्बती भेड़, लद्दाख की उरियल भेड़, चिरु मृग, तिब्बती बकरी ताकिन, सीरो बकरी और कस्तूरी मृग को बचाने के लिए हिम तेंदुए का संरक्षण महत्वपूर्ण हो सकता है। इन जानवरों की घटती आबादी और हिम तेंदुओं की खाल के लिए किए जाने वाले अवैध शिकार से इनकी संख्या कम हो रही है।
गांवों में हिम तेंदुए द्वारा पालतू जानवरों को शिकार बनाने पर बदले की भावना से ग्रामीण उसे मार डालते हैं। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में हिम तेंदुए की रक्षा का प्रावधान तो है, लेकिन इसके आवास और संरक्षण के लिए दीर्घकालिक रणनीति में स्थानीय लोगों की भागीदारी से संबंधित निश्चित जानकारी नहीं है।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने हिम तेंदुओं के अनुकूल आवास क्षेत्रों की पहचान करने के लिए प्रत्यक्ष और कैमरा आधारित प्रेक्षणों के साथ-साथ मैक्सएंट नामक प्रजाति वितरण मॉडल का उपयोग किया है। हिम तेंदुए की मौजूदगी और अनुपस्थिति के आंकड़ों की तुलना अध्ययन क्षेत्र में छह मापदंडों जैसे ऊंचाई, स्वरूप, ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र, पानी से दूरी, भूमि कवर और शिकार हेतु आवासीय अनुकूलता के साथ की गई है, जिससे संभावित क्षेत्र का परिसीमन हो सके।
इन मापदंडों में ऊंचाई को सबसे महत्वपूर्ण कारक पाया गया है। इसके बाद भू-भाग का ऊबड़-खाबड़ होना और वहां की भूमि भी काफी मायने रखती है। हिम तेंदुओं के रहने के अनुकूल आवास में 2,800 से 4,600 मीटर की ऊंचाई और 450 से 1,800 मीटर के ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र हो सकते हैं। लद्दाख में लगभग 12 प्रतिशत क्षेत्र हिम तेंदुओं के रहने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त पाया गया है।
इस अध्ययन में हिम तेंदुओं द्वारा मारे जाने वाले स्थानीय पालतू पशुओं और वहां आने वाले पर्यटकों की संख्या संबंधी आंकड़े स्नो लेपर्ड कन्जर्वेंसी इंडिया ट्रस्ट और पैंथेरा फाउंडेशन से प्राप्त किए गए हैं। ये दोनों ही गतिविधियां हिम तेंदुओं के 60 प्रतिशत से अधिक अनुमानित आवास क्षेत्रों में होती हैं।
हिम तेंदुए के आवास के आसपास के गांवों में स्थानीय लोगों के साथ मिलकर होम-स्टे पर्यटन को सुविधाजनक बनाने का काम शुरू किया गया है। 40 से अधिक गांवों में 200 से अधिक घरों को पर्यटकों के रहने के लिए तैयार करने में सहयोग दिया जा रहा है। इससे लगभग 90 प्रतिशत आय सीधे स्थानीय परिवारों को हो रही है, जबकि शेष राशि का उपयोग वृक्षारोपण, सांस्कृतिक स्थलों के रखरखाव, कचरा प्रबंधन जैसी गतिविधियों के लिए किया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि आवासीय पर्यटन से होने वाली आय से हिम तेंदुओं के हमले से पालतू पशुओं के नुकसान की भरपाई भी हो सकती है।
स्नो लेपर्ड कन्जर्वेंसी इंडिया ट्रस्ट के निदेशक डॉ. त्सेवांग नमगेल ने बताया कि “हिम तेंदुए या किसी अन्य वन्यजीव के संरक्षण के लिए स्थानीय लोग महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं। होम-स्टे पर्यटन शुरू करने से पहले अपने पालतू पशुओं के मारे जाने से आक्रोशित किसान हिम तेंदुओं को मार डालते थे। लेकिन, अब परियोजना क्षेत्र में इस तरह के बदले की प्रतिक्रिया बंद हो गई हैं।”
त्सेवांग नमगेल के अलावा शोधकर्ताओं में सोफी एम. वॉट्स, थॉमस एम. मैक्कार्थी (पेंथेरा, न्यूयॉर्क) शामिल थे। यह अध्ययन प्लॉस वन जर्नल में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)
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