General Elections 2019

जाति-मजहब से परे हट आमजन के हक में वोट करने के अभियान का नाम है लोकमंच

जन आंदोलन की समन्वयक और मेधा पाटकर के साथियों ने लोक मंच का गठन किया है, जिसमें चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को आमंत्रित कर उनसे जनता सीधे सवाल करती है।

 
By Anil Ashwani Sharma
Published: Tuesday 14 May 2019
मेधा पाटकर । Photo Credit - wikipedia

अब चुनाव अपने आखिरी चरण में जा पहुंचा है। आगामी 19 मई को आखिरी चरण में मध्य  प्रदेश के सबसे अधिक विकसित मालवा इलाके में मतदान होना है। इस इलाके में बड़ी संख्या में आदिवासी  व अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या है। लेकिन अब उनकी जमीन-जायजाद और घरबार सरसदार सरोवर बांध में डूब चुका है। ऐसे में यह समुदाय पिछले तीन दशक से अपने पुनर्वास की बाट जोह रहा है। हर बार चुनाव आते हैं और उनसे राजनीतिक दल बस यही वायदा करते हैं कि जल्दी आपका पुनर्वास हो जाएगा। लेकिन यह बस हवा हवाई बयान होते हैं। ऐसे में, इस बार इस इलाके में उम्मीदवारों की जवाबदेही तय करने के लिए लोकमंच का गठन किया गया। इसे जन आंदोलन की समन्वयक और मेधा पाटकर ने अपने साथियों के साथ बनाया है और इसके माध्यम से क्षेत्र में सभी राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को आमंत्रित कर उनसे सीधे जनता सवाल करती है। इस लोकमंच और उसके प्रभावों के बारे में मेधा पाटकर से डाउन टू अर्थ ने बातचीत की। बातचीत के प्रमुख अंश।

लोकमंच की परिकल्पना का क्या आधार है?

देखिए इसके माध्यम से आमजन को अपनी बात सीधे राजनीतिक दल से करने का एक तो मौका मिलता है और दूसरा उसकी बात जैसेतैसे आखिरकार क्षेत्र के विकास के नाम पर चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों से सीधे सवाल-जवाब करने का मौका मिलता है। 

अब तक लोकमंच के माध्यम से किए गए सवाल-जवाबों का कोई असर दिखा है?

बिल्कुल, उसका असर ही होता है। पिछली विधासभा चुनाव में बड़वानी में कांग्रेस का उम्मीदवार स्थानीय जनता को मंजूर नहीं था। लोकमंच से इसके खिलाफ सवाल-जवाब हुए, तर्क दिए गए तो उसका असर हुआ कि यहां से खड़े निर्दलीय उम्मीदवार को हजारों की संख्या में वोट मिले।

आपका लोकमंच वास्तव में किसका प्रतीक है?

लोकमंच जनशाही का प्रतीक होता है। राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करने की समन्वय समिति ने निर्णय लिया है इसलिए इस बार जगह-जगह ऐसा लोकमंच खड़े किए गए हैं। जाति, मजहब से परे हटकर हम आम आदमी के हक में वोट करने के लिए अभियान चला रहे हैं।

आप तो पिछले चार दशक से से आदिवासीयों के हक के लिए लड़ रही हैं ऐसे में इस समय आपके सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?

इस समय सबसे बड़ी चुनौती है नर्मदा नदी को बचाने की। अब तक हम अन्य मुद्दों को उठा रहे हैं लेकिन अब असल चुनौती है एक जीती जागती नदी को खत्म होने से रोकने की। नदियों की बात तो सब करते हैं लेकिन नदी को बचाने के लिए जो ठोस काम होना चाहिए उसका अभाव है। जो पहले निर्णय लिए जा चुके हैं, उनपर विचार भी नहीं किया गया है।

क्या मध्य प्रदेश की नई सरकार से इस संबंध में आपकी बातचीत हुई?

मध्य प्रदेश में नई सरकार ने बातचीत तो की है। हां यह सही है कि पिछले पंद्रह साल में बातचीत ही नहीं हुई  थी। लेकिन पंद्रह साल में हमारा संघर्ष चोटी पर जा पहुंचा।

क्या कांग्रेस या भाजपा ने अपने घोषणापत्र में नर्मदा पर किसी प्रकार की वायदा किया है?

वायदा तो दूर, नर्मदा का नाम ही नहीं है कांग्रेस के मुख्य घोषणापत्र में। राज्य के घोषणापत्र में विस्तृत चर्चा थी। चर्चा हो चुकी है,आवेदन हो चुके हैं। हमने नर्मदा को लेकर 28 आवेदन किए हैं, लेकिन किसी पर निर्णय नहीं हुआ है। हम लोकमंच पर तो सवाल करेंगे ही, उसके बाद भी अपेक्षा करेंगे दखल देने की। आजकल तो कोई घोषणापत्र पूरा पढ़ता भी नहीं, बस कुछ मुद्दों पर पूरी चर्चा सिमट जाती है।  

क्या आदिवासी इलाकों में चुनाव बहिष्कार कारगर होता है?

चुनाव बहिष्कार किसी भी तरह से सफल नहीं होता इस इलाके में। आदिवासी क्षेत्र होमीजेनस होता है। यहां ऐसा निर्णय वास्तविक नहीं होता है। हमने तय किया है कि हम सवाल-जवाब करेंगे, हमने देखा है कि लोकमंच का असर होता है।

 

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