General Elections 2019

मतदान के प्रति उदासीन रहा उत्तराखंड का मतदाता

उत्तराखंड में मत प्रतिशत कम रहने की एक वजह बढ़ते पलायन को माना जा रहा है

 
By Varsha Singh
Published: Saturday 13 April 2019
Credit : Varsha Singh

पढ़ा-लिखा-शिक्षित पहाड़ी राज्य उत्तराखंड मतदान के मामले में क्यों पीछे छूट जाता है। मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए पिछले एक वर्ष से राज्यभर में जागरुकता कार्यक्रम चलाए जा रहे थे। नुक्कड़ नाटक, पोस्टर, स्कूली बच्चों की रैली, पतंगबाज़ी, मेंहदी जैसी प्रतियोगिताएं आयोजित कर लोगों में मतदान के प्रति जागरुकता लाने की कोशिश भी सफल नहीं हो पायी। राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर (74.04%, वर्ष 2011 की जनगणना पर आधारित) से उत्तराखंड की साक्षरता दर (79.63%, वर्ष 2011 की जनगणना पर आधारित) कुछ बेहतर है। इसके बावजूद मतदान के मामले में राज्य की जनता उदासीन है। राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों से डाटा इकट्ठा करन के बाद शुक्रवार देर रात चुनाव आयोग ने अंतिम आंकड़े जारी किए। इसके मुताबिक राज्य में 61.50 प्रतिशत मतदान हुआ। इसी दौरान पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा समेत देश के दूसरे राज्यों में मतदान प्रतिशत कहीं बेहतर है। राज्य पिछले लोकसभा चुनाव के मतदान प्रतिशत से भी कुछ कम ही रह गया है।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड में 62.15% लोगों ने मतदान किया था। वर्ष 2009 में 53.43% और वर्ष 2004 में 48.07% जनता ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया।

मतदान के लिहाज़ से ये आंकड़े अच्छे नहीं हैं। इसीलिए पिछले एक वर्ष से केंद्रीय निर्वाचन आयोग के दिशा-निर्देश पर स्वीप (सिस्टमैटिक वोटर्स एजुकेशन एंड इलेक्टोरल पार्टिशिपेशन) की टीम राज्यभर में अधिक मतदान के लिए मतदाताओं को जागरुक करने का प्रयास कर रही थी।

मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय में स्वीप कार्यक्रम से जुड़े हिमांशु नेगी बताते हैं कि स्वीप के तहत मार्च 2018 से 2019 तक कुल 84 लाख रुपये खर्च किए गए। इसके अलावा लोकसभा चुनाव के लिए जारी किए गए बजट में से भी स्वीप कार्यक्रम पर पैसे खर्च किए गए। इस पर सभी ज़िलों से खर्च की गई रकम के आंकड़े इस महीने के अंत तक आने की उम्मीद है। यानी मोटे तौर पर एक वर्ष में चुनाव जागरुकता के लिए तकरीबन एक करोड़ रुपये खर्च कर दिये गये। स्वीप के तहत राज्यभर के स्कूलों और कॉलेजों में इलेक्टोरल लिट्रेसी क्लब बनाए गए। जिसमें अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोगों को चुनाव में मतदान के लिए जागरुक किया गया। इसके लिए किताबें और अन्य सामाग्री मंगाई गईं। स्वीप के तहत ईएलसी प्रोजेक्ट पर इस एक वर्ष में करीब 44 लाख रुपए खर्च किये गये। इसके साथ ही मतदाता सूची में नाम जोड़ने, नाम हटाने और वोटर अवेयरनेस के लिए भी इसी धनराशि में से पैसे खर्च किए गए।

मतदाताओं को जागरुक करने के स्वीप कार्यक्रम से जुड़े हिमांशु नेगी कहते हैं कि कम मतदान के पीछे सबसे पहली वजह पलायन मानी जा रही है। उनका कहना है कि जो लोग अपनी जगह छोड़कर जा चुके हैं, वे मतदान के लिए वापस नहीं आए।

कम मतदान प्रतिशत की एक वजह ये भी मानी जा रही है कि लोगों को चुनाव के बहाने एक साथ चार दिनों की छुट्टी मिल गई। चुनाव के दिन की छुट्टी घोषित थी। शुक्रवार की एक और छुट्टी लेकर फिर शनिवार-रविवार छुट्टी के दिन पड़ गए। तो जो लोग अपने घरों से दूर रहकर नौकरी कर रहे हैं, वे अपने घर चले गए या फिर छुट्टियां मनाने। क्योंकि पूरे राज्य में मतदान प्रतिशत घटा है। राजधानी देहरादून के लोगों ने भी पिछले चुनाव की तुलना में कम मतदान किया है।

हालांकि त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, नगालैंड, मणिपुर, सिक्किम जैसे राज्यों में लोगों को छुट्टी का मोह अधिक नहीं रहा होगा, क्योंकि वहां मतदान प्रतिशत 80 फीसदी के नज़दीक है।

राज्य में ज़िलेवार मतदान के जो आंकड़े अब तक उपलब्ध कराए गए हैं, उनमें टिहरी में 58.30% वोट पड़े। 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां 57.50% मतदान हुआ था। इसी तरह पौड़ी में इस बार 54.47% (वर्ष 2014- 55.03%), हरिद्वार में 68.92%(वर्ष 2014- 71.63%), नैनीताल 68.69%(वर्ष 2014- 68.69%), अल्मोड़ा 51.82%(वर्ष 2014-53.22%) मतदान हुआ। ये आंकड़े बताते हैं कि किसी भी लोकसभा क्षेत्र में पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में मतदान नहीं बढ़ा है। यानी स्वीप के जागरुकता कार्यक्रम असफल हो गए। इसके साथ ही सबसे कम मतदान प्रतिशत वाले पौड़ी और अल्मोड़ा संसदीय पलायन से सबसे अधिक प्रभावित हैं। इन दोनों ज़िलों से सबसे अधिक लोगों ने पलायन किया है। इसलिए ये माना जा सकता है कि चुनाव नतीजों पर पलायन का असर पड़ा है।

हालांकि विधानसभा चुनावों के मत प्रतिशत से तुलना करें, तो राज्य के चुनाव में यहां की जनता ने ज्यादा उत्साह दिखाया है। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में 64.72% मतदान हुआ था। वर्ष 2012 में अब तक का रिकॉर्ड सबसे अधिक मतदान 66.17% हुआ। इससे पहले वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में 59.45% वोट पड़े थे।

मौटे तौर पर उत्तराखंड के करीब 78 लाख मतदाताओं में से 42 लाख लोगों ने ही वोट डाले। जो मतदाता वोट डालने नहीं पहुंचे, उनकी उदासीनता की वजह समझनी जरूरी है। पलायन और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहे यहां के लोग राजनीतिक दलों पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं।

कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता मथुरा दत्त जोशी कहते हैं कि मतदान प्रतिशत में गिरावट का एक मतलब मोदी मैजिक का कम होना भी है। उनका कहना है कि पिछली बार के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के चलते जिस तरह लोगों ने मतदान किया था, इस बार लोगों का भरोसा टूटा है, इसलिए भी वे मतदान करने घरों से बाहर नहीं निकले। जोशी मानते हैं कि इसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा।

11 अप्रैल को मतदान की सुबह देहरादून में उत्सव का सा माहौल दिख रहा था। सड़कों पर भीड़ नहीं थी। दुकानें बंद थीं। बाज़ार में सन्नाटा सा पसरा था। रेड-लाइट पर रुकने वाली गाड़ियों की संख्या बेहद कम थी। तो लग रहा था कि अगले पांच वर्ष की सरकार चुनने के लिए लोग तैयार हैं। लेकिन जैसे-जैसे दिन दोपहर की ओर बढ़ता गया, मतदान प्रतिशत के आंकड़े आने शुरू हुए, तो ये स्पष्ट होने लगा कि राज्य इस बार भी अपनी पूरी वोट शक्ति का इस्तेमाल नहीं कर रहा है। जबकि निर्वाचन आयोग लोगों को मतदान केंद्र तक लाने के लिए एक वर्ष पहले से ही तैयारी कर रहा था। चुनाव से एक हफ्ते पहले राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष तक अपने नारों और वादों के साथ लोगों से अपने कीमती वोट का इस्तेमाल करने की अपील कर गए थे।

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