मल्चिंग सिंचाई से अधिकतम जल उपयोग क्षमता 40.27 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति मिलीमीटर के साथ भिंडी की औसत पैदावार में 16.92 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है
फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए मल्चिंग और कम पानी वाली ड्रिप सिंचाई जैसी तकनीकों का प्रचलन बढ़ रहा है। एक ताजा अध्ययन में भिंडी की फसल में मल्चिंग के साथ उपसतही ड्रिप सिंचाई का प्रयोग करने पर भारतीय कृषि वैज्ञानिकों को पैदावार बढ़ाने और खेत में जल संतुलन बनाए रखने में सफलता मिली है।
खड़गपुर स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन के दौरान भिंडी की खेती में मल्चिंग वाली उपसतही ड्रिप सिंचाई का उपयोग किया गया है। इस अध्ययन में मल्चिंग वाली उपसतही ड्रिप सिंचाई से अधिकतम जल उपयोग क्षमता 40.27 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति मिलीमीटर के साथ भिंडी की औसत पैदावार में भी 16.92 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
इस प्रयोग से जड़ों के नीचे मिट्टी की गहरी सतह में होने वाली जल-हानि में 15-16 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई है। इसके अलावा, फसल वाष्पीकरण से होने वाली जल-हानि में भी 27-29 प्रतिशत तक की कमी देखने को मिली है।
फसल की प्रारंभिक अवस्था से लेकर पुष्पण, फलोत्पत्ति और कटाई समेत विभिन्न अवस्थाओं में मल्चिंग वाली फसल का गुणांक अपेक्षाकृत काफी कम 0.31 से 0.77 आंका गया है। उल्लेखनीय है कि फसल गुणांक पौधों के वाष्पोत्सर्जन के संकेतक होते हैं और निम्न फसल गुणांक कम वाष्पोत्सर्जन को दर्शाता है।
इस अध्ययन के दौरान आईआईटी, खड़गपुर के कृषि और खाद्य अभियांत्रिकी विभाग में 266 वर्गमीटर के खेत को मल्चिंग और गैर-मल्चिंग भागों में बांटकर उपसतही ड्रिप सिंचाई की व्यवस्था की गई थी। मल्चिंग के लिए 25 माइक्रोमीटर की काली प्लास्टिक शीट का इस्तेमाल किया गया है।
भिंडी की खेती में लाइसीमीटर की मदद से जल संतुलन संबंधी मापदंडों का आकलन किया गया है। इन मापदंडों में वर्षा, सिंचाई, गहरे अथवा उथले जल की निकासी, मिट्टी की जल संग्रहण क्षमता, मिट्टी एवं फसल से वाष्पीकरण और भिंडी की फसल में जल की आवश्यकता शामिल है। लाइसीमीटर एक प्रकार का उपकरण है, जिसका उपयोग फसलों अथवा पेड़-पौधों में जल उपयोग के मापन के लिए होता है।
शोधकर्ताओं ने मल्चिंग और गैर-मल्चिंग दोनों परिस्थितियों में पौधे की ऊंचाई, पत्तियों के आकार, फूलों के उगने, फसल गुणांक और उत्पादन पर उपसतही ड्रिप के प्रभाव का तुलनात्मक मूल्यांकन किया है।
प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर के.एन. तिवारी ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “उपसतही ड्रिप सिंचाई से पानी सीधे पौधे के जड़-क्षेत्र में पहुंच जाता है, जिससे जड़ें उसका भरपूर उपयोग कर पाती हैं। इसके साथ ही उर्वरक भी सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंच जाते हैं। भविष्य में मल्चिंग के लिए जैव-विघटित प्लास्टिक का उपयोग पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना अधिक लाभकारी साबित हो सकता है। यह तकनीक भिंडी जैसी गहरी जड़ों वाली अन्य सब्जियों की फसल में भी लाभदायक हो सकती है।”
खेत में पौधों के आसपास की मिट्टी को चारों तरफ से प्लास्टिक फिल्म के द्वारा सही तरीके से ढकने की प्रणाली को मल्चिंग कहते हैं। इसी तरह, उपसतही ड्रिप सिंचाई कम दबाव, उच्च दक्षता वाली सिंचाई प्रणाली होती है, जिसमें फसल में पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए मिट्टी की सतह के नीचे ड्रिप ट्यूब या ड्रिप टेप बिछाकर सिंचाई की जाती है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, मल्चिंग के साथ उपसतही ड्रिप सिंचाई से भिंडी की पैदावार में बढ़ोतरी के कई कारण हो सकते हैं। इससे खेत में नमी बनी रहती है और मिट्टी से होने वाला वाष्पीकरण भी रुक जाता जाता है।
इसके साथ ही फसल द्वारा पर्याप्त मात्रा में सौर विकिरण अवशोषित किया जाता है और पत्ती के तापमान, वायु आर्द्रता तथा पौधों की वाष्पोत्सर्जन दर में सुधार होता है। इसका एक फायदा यह भी है कि खेत में खरपतवार नहीं उगते और मिट्टी का तापक्रम अधिक होने से हानिकारक कीड़े भी नष्ट हो जाते हैं।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में डॉ. के.एन. तिवारी के अलावा आशीष पाटिल शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस के ताजा अंक में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)
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