हीरे के खदानों में जाने वाली मजबूर माएं नहीं दे पा रही हैं अपने बच्चों को पोषण का खुराक

पन्ना जिला के धनौजा गांव में हीरा खदानों में काम करने वाली महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति खराब है। खदान में मजदूरी करने के दौरान स्वास्थ्य से समझौता।

By Manish Chandra Mishra

On: Monday 23 September 2019
 

Photo: Manish Chandra Mishra

3 साल की नन्हीं कृति मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में बृजपुर पंचायत स्थित धनौजा गांव में चहलकदमी कर रही है। उसकी एक छोटी मुट्ठी में नमक लगाकर लपेटी गई एक मोटी रोटी है और उसकी दूसरी मुट्ठी में एक प्याज है। यह उसके दोपहर का खाना है। बार-बार पूछने पर अपनी तोतली जबान में वह बताती है कि मां अभी काम से लौटकर आई है और उसके बाद ये रोटियां बनी है। कृति की हमउम्र के ही काले लाल, शिवानी, पंकज, सोहन और शंकर को भी सीधे दोपहर में ही गरम खाना मिलता है और अक्सर उनके खाने में नमक रोटी ही रहती है। गांव के राम शरण ने बताया कि वहां का आंगनबाड़ी पहले नहीं खुलता था लेकिन शिकायत के बाद उसमें आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आती हैं, लेकिन मज़दूरी करने जाने की मजबूरी में कई लोग आंगनबाड़ी केंद्र नहीं पहुंचते।

तकरीबन 100 परिवारों का गांव धनौजा में हर परिवार से कोई न कोई हीरा खदान में मज़दूरी करता है। डाउन टू अर्थ ने गांव के लोगों से बात कर हीरे की चमक के पीछे की सच्चाई को जाना। इन खदानों में मज़दूरी करने वाली महिलाओं को कड़ी शारीरिक मेहनत करनी पड़ती है और साथ में इनके बच्चे भी पोषण और मां की ममता से घंटों दूर रहते हैं।


60 वर्ष की गांव की बुजुर्ग सुनिया बाई कहती है कि गांव के आसपास पहले हीरा मिला था इसलिए पन्ना जिले की अधिकतर खदान इस गांव के आसपास है और पूरा गांव वहीं काम करता है। सुनिया बताती है कि खदान में काम कर करके उनका शरीर खत्म हो गया है। धूल-मिट्टी में जवानी से ही वह रोज सुबह खदान पर जाती आई है। पहले एक दिन के 11 रुपये मिलते थे, और अब 120 मिलने लगे हैं। हर मज़दूरों को रोज सुबह 4 बजे जगकर घर से निकलना होता है। वापसी का समय 10 बजे का है लेकिन काम करते-करते 12 बज ही जाता है। उसके बाद पानी भरने और खाना बनाने में काफी समय लग जाता है। वो खुद तो 2 बजे तक भूखी रह लेती है लेकिन घर के बच्चे इस दौरान काफी परेशान होते हैं।


सुनिया बाई के बगल में बैठी गोविंदा बाई उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि घर के बड़े बच्चे रात का बचा खाना आपस में बांटकर खा लेते हैं। छोटे बच्चों के लिए पैकेट में मिलने वाला चिप्स भी ले आते हैं।
गोविंदा बाई बताती हैैं कि उनके बच्चों का पेट खाली नहीं रहता लेकिन बावजूद इसके वो कमजोर होते जा रहे हैं। हालांकि पोषण विशेषज्ञ और विश्लेषक फरहत सिद्दीकी के मुताबिक खाने में हरी सब्जियां, दाल और प्रचुर मात्रा में दूसरे जरूरी पोषक तत्व न लेने से कुपोषण होता है। हरी सब्जियों में मौजूद विटामिन रोग प्ररिरोधक क्षमता विकसित करते हैं और जब ये नहीं मिलता तो शरीर का प्रोटीन इसकी भरपाई करता है। इस तरह बच्चों के पोषण पर असर होता है। फरहत ने हाल ही में पन्ना जिले का दौरा किया है और वो इसपर एक रिपोर्ट तैयार कर रही हैं। 

गांव की ही 23 साल की मिन्ता बाई के दो बच्चे कोमल(1) और कपिल(3) बारी-बारी से पोषण पुनर्वास केंद्र में भर्ती हो चुके हैं। आंगनबाड़ी के आंकड़ों के मुताबिक कम से कम 10 बच्चों को इस साल पोषण की कमी की वजह से पोषण पुनर्वास केंद्र में दाखिल करवाया गया है। इस केंद्र में अति कुपोषित बच्चों को विशेष निगरानी में रखा जाता है।

ग्रामीण झेल रहे टीबी, कुपोषण और एनीमिया का दंश
गांव की महिला पान बाई ने बताया कि गांव के मर्द मज़दूरी करने आसपास के शहर जाते हैं और हीरा खदान में जाने की जिम्मेदारी अक्सर औरतों के पास ही है। जागरूकता के अभाव में यहां लोगों के 3-4 बच्चे हैं। पान बाई बताती हैं कि राकेश गौर को 17 साल से लेकर 4 महीने तक के 10 बच्चे हैं। कल्लन गौर को भी 7 बच्चे हैं। कल्लन को टीबी हुआ है और उसके एक बच्चे को भी यही बीमारी है। उसकी पत्नी को खून की कमी भी है। इस हालत में भी वो हीरा खदान जाते हैं क्योंकि रोजगार का और कोई साधन नहीं है। स्वास्थ्य के मामले में पन्ना जिले की स्थिति खराब है। आंकड़ों के मुताबिक जुलाई महीने में पन्ना जिले से 73 गंभीर कुपोषित बच्चे दस्तक अभियान के दौरान मिले थे। इनमें से 5 बच्चों का ब्लड ट्रांसफ्यूजन भी किया गया था। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक जिले में 6 से 23 महीने के 43 फीसदी बच्चों को पर्याप्त खाना मिलता है। 43.3 फीसदी बच्चे उम्र के मुताबिक कम वजन के हैं। अनीमिया यानी खून की कमी के मामले में यह प्रतिशत बच्चों ( 6 महीने से 59 महीने) में 69 % और महिलाओं में महिलाओं (15 से 49 वर्ष) में 49.6 प्रतिशत है। 

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