Agriculture

चुनाव 2019 : मुद्दा विहीन राजनीति के लिए जाना जाएगा यह चुनाव

जीडीपी में 95 फीसदी हिस्सेदारी खपत की है, जिसमें आधा भारत खर्चों का बोझ सहन नहीं कर पा रहा है  

 
By Richard Mahapatra
Published: Tuesday 21 May 2019
file Photo : Meeta Ahlawat

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आम चुनाव की प्रक्रिया खत्म होने को है और 23 मई 2019 को देश को अपनी नई सरकार के बारे में पता चल जाएगा। साथ ही, 90 करोड़ मतदाताओं की प्राथमिकताओं का भी पता चल जाएगा। लेकिन, एक महीने से अधिक चले चुनाव प्रचार के दौरान वे मुद्दे नहीं सुनाई दिए जो ज्यादातर मतदाताओं को प्रभावित करते हैं।

चुनावों के दौरान जिन मुद्दों को अनदेखा किया गया है, उनमें कृषि संकट भी है, जो अप्रत्याशित है। बल्कि पूरे ग्रामीण क्षेत्र के संकट को ही अनदेखा कर दिया गया। यह बेहद आश्चर्यजनक है कि जब देश का हर चौथा मतदाता किसान है और आर्थिक तंगी की वजह से किसान दुखी है। शायद यही वजह है कि आम चुनाव 2019 को मुद्दा विहीन चुनाव कहा जा रहा है।

यदि चुनाव जरूरी मुद्दों के आधार पर चुनाव नहीं जीता है तो सवाल उठता है कि इन लोगों के लिए सरकार का क्या मायना है, जिनकी समस्याओं के समाधान की जवाबदेही है।

चुनाव परिणाम क्या होंगे, किसकी सरकार होगी, इससे हटकर बात करें तो कृषि संकट को लेकर जो हालात हैं,वे पहले कभी नहीं थे। डाउन टू अर्थ ने 2015 ने रिपोर्ट किया था कि कृषि संकट पर काबू नहीं पाया गया तो देश की अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ सकती है।

जैसी कि सरकारी और विश्वसनीय गैर सरकारी सूत्रों से खबरें मिल रही है, भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में प्रवेश कर चुकी है। वित्त मंत्री अरुण जेटली भी अपने हाल के ब्लॉग में स्वीकार कर चुके हैं कि कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें ग्रोथ दिख रही हो। जबकि हमारे पास कोई विश्वसनीय आंकड़े भी नहीं हैं, जिससे हम कह सकें कि आर्थिक संकट कितना गहरा है।

लेकिन भारत जैसे देश के लिए कृषि संकट का होना अच्छी बात नहीं है। वह भी ऐसे समय में, जब नई सरकार का कामकाम शुरू होने वाला है।

वर्तमान में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) खपत पर पूरी तरह से आधारित है। 2017-18 में कुल खपत (कंजप्शन) का जीडीपी में हिस्सा 95 फीसदी था। इसकी बड़ी वजह है कि जीडीपी के दूसरे भागीदारों को मंदी का सामना करना पड़ रहा है। इसी तरह, सरकारी निवेश जीडीपी का बड़ा भागीदार है, लेकिन पिछले कुछ महीनों में सरकारी निवेश में भी कमी आई है। इसलिए, उपभोक्ताओं, जैसे हम या आप पर इस समय अर्थव्यवस्था टिकी हुई है।

लेकिन, लगभग 50 फीसदी उपभोक्ता किसान हैं या किसान परिवारों से हैं, जो खेती बाड़ी से ही कमाई करते हैं। इसका मतलब है कि दुनिया की “सबसे तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था” एक क्षेत्र संकट में है, जो इस किले का आधार स्तंभ है। तो सवाल उठता है कि क्या अर्थव्यवस्था बची रहेगी? नहीं, क्योंकि यह पूरी अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर चेतावनी है। पिछले पांच साल के दौरान कृषि क्षेत्र गंभीर संकट से जूझ रहा है। चाहे, सरकार की वजह से हो या प्रकृति के कारण । हालात यह हैं कि भविष्य में इस क्षेत्र में बड़ी तेजी से विकास होने के बावजूद किसानों की आमदनी पिछले सालों के बराबर नहीं हो पाएगी। आइए, जानते हैं कि इनकी आर्थिक स्थिति क्या है?

2014-15 से 2018-19 के दौरान कृषि क्षेत्र में औसतन 2.9 फीसदी की दर से वृद्धि की। 2014 से पहले के पांच साल के दौरान कृषि क्षेत्र औसतन 4.3 फीसदी की दर से वृद्धि कर रहा था। जिसे पिछले कुछ दशकों के दौरान सबसे अधिक माना गया। अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी के मुताबिक, कृषि क्षेत्र के सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) में 2018-19 में 2.7 फीसदी की वृद्धि हुई, जो वर्ष 2017-18 में 5 फीसदी था। 

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसानों की आमदनी इतनी भी नहीं बढ़ रही है, कि वर्तमान महंगाई दर से मेल खा सके। इसका मतलब यह भी है कि किसानों के पास खर्च करने का पैसा नहीं है तो वे जीडीपी की विकास दर को बढ़ाने में कैसे सहयोग कर सकते हैं।

नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, वास्तविक कीमतों पर किसानों की आमदनी केवल 3.8 फीसदी बढ़ रही है, जो अपनी तरह की पहली रिपोर्ट है। अगर इसी दर को आधार माना जाए तो मोदी सरकार साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य नहीं हासिल कर पाएगी और इसमें 25 साल से अधिक समय लग जाएगा।

इसके अलावा किसानों को बेमौसमी अतिशय घटनाओं का सामना भी करना पड़ रहा है, जिससे प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं और किसान बाढ़ व सूखे जैसे हालात झेल रहे हैं। साल 1871 से लेकर 2002 के दौरान जहां 23 बड़े सूखे वर्ष हुए, वहीं पिछले 16 साल के दौरान देश को चार गंभीर सूखे के हालात का सामान करना पड़ा। वहीं 2014 और 2015 में बेमौसमी बारिश से किसानों की फसलें तबाह हो गई। इन आपदाओं के चलते 74000 रुपए प्रति व्यक्ति का कर्ज का सामना कर रहे किसानों की आर्थिक स्थिति और डांवाडोल हो गई। 

हाल ही में इंडिया टुडे पत्रिका में केयर रेटिंग के चीफ इकोनॉमिस्ट मदन सबनवीस ने कहा कि यदि कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहता है तो उससे जुड़े क्षेत्रों का प्रदर्शन भी ठीक नहीं रहेगा और इससे क्रय शक्ति कम हो जाएगी। यह शून्य कृषि विकास दर परेशानी का एक और बड़ा कारण है। दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले कृषि क्षेत्र की वजह से गरीबी में दोगुना वृद्धि होगी। इसलिए देश की गरीबी को 2030 तक खत्म करने के लिए कृषि संकट का हल ढूंढ़ना होगा।

नई सरकार के लिए यह कृषि संकट विरासत में मिलेगा, लेकिन सरकार को इसका हल निकालना अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखना होगा, ताकि देश की अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाया जा सके।

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