Agriculture

सियासत में पिसता गन्ना-2: ठंडी पड़ती कोल्हू की आंच

सियासत के  शिकार गन्ना किसानों पर आधारित डाउन टू अर्थ की श्रृंखला में प्रस्तुत है चीनी मिलों से पहले अस्तित्व में आए कोल्हू के खत्म होने की कहानी- 

 
By Vivek Mishra
Published: Monday 22 July 2019
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में अमीनगर सराय स्थित कोल्हू में किसानों के गन्ने की पेराई के बाद रस से गुड़ बनाने की तैयारी (विकास चौधरी)

चीनी मिलें भले ही राजनीति के नए केंद्र बन गई हों लेकिन चीनी मिलों से भी काफी पहले अस्तित्व में आए कोल्हू और खांडसारी इकाइयों का आजतक कोई संगठन और समूह नहीं तैयार हुआ। ऐसा माना जा रहा है कि अब कोल्हू थक चुके हैं और इनकी हिस्सेदारी नाममात्र की बची है लेकिन उत्पादन और उत्सर्जन को लेकर नियमों और प्रतिबंधों से बंधते कोल्हू में संभावनाएं अब भी 100 फीसदी बची हैं।

मई का महीना खत्म हो चुका है और पश्चिमी यूपी में छोटे-बड़े करीब 5 हजार कोल्हू की भट्ठियों की आग पूरी तरह ठंडी हो चुकी है। गरम हवा की लपटों के बीच गुड़ की थोक खरीदारी के लिए दुकानदार सीधे कोल्हू पर पहुंच रहे हैं। 2,700 रुपए प्रति कुंतल के भाव से गुड़ का मोलतोल जारी है। ब्रांड वाले डिब्बों में गुड़ पैक किया जा रहा है। दिल्ली से बागपत के रास्ते पर बढ़ने के बाद पता चला कि 50 से 60 कुंतल तक प्रतिदिन की पेराई करने वाले छोटे कोल्हू पूरी तरह बंद हो चुके हैं। गन्ने की पेराई कर गुड़-खांडसारी बनाने वाले कोल्हू व चीनी मिलें कभी एक-दूसरे के मुख्य प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे। अब कोल्हू इस लड़ाई में काफी पीछे छूट गया है। हालांकि इनकी संख्या व इनके उत्पादन को लेकर अब भी कोई स्पष्ट व प्रमाणिक आंकड़ा देश में उपलब्ध नहीं है।

2016 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में याची अनिल कुमार की ओर से कोल्हू के खिलाफ याचिका दाखिल की गई थी। इस याचिका में कहा गया था कि उत्तर प्रदेश में गन्ना मिलों के बराबर ही कोल्हू भी गन्ने की पेराई करते हैं। चीनी मिलों पर प्रतिबंध है लेकिन कोल्हू खुले में ही गुड़ व खांडसारी तैयार करते हैं। इनके उत्सर्जन को लेकर कोई नियंत्रण नहीं किया गया है। याचिका में प्रदेश के गन्ना विभाग की 11 अगस्त, 2012 की बांडिंग नीति का हवाला दिया गया था। इस नीति के तहत यूपी में कोल्हू व चीनी मिलों के बीच गन्ने का बंटवारा 50-50 फीसदी है। इसे साबित करने के लिए इंडियन शुगर मैन्युफैक्चरर्स एसोसिशन (इस्मा) के गन्ना पेराई और उत्पादन आंकड़ों का हवाला दिया गया। हालांकि, एनजीटी ने पेश किए गए आंकड़े की वैधता का सत्यापन न होने पर उसे स्वीकार नहीं किया।

बागपत के अमीनगर सराय में कोल्हू चलाने वाले महेश चंद्र गन्ने के पेराई की 50 फीसदी हिस्सेदारी के दावे पर भड़क उठते हैं। वह कहते हैं कि 100 फीसदी कोल्हू मिलकर भी 50 फीसदी गन्ने की पेराई नहीं कर सकते। उनके आकलन के मुताबिक इस वक्त प्रदेश में 10 फीसदी से ज्यादा गन्ने की पेराई कोल्हू में नहीं होती होगी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ शुगरकेन रिसर्च (आईआईएसआर) के प्रधान वैज्ञानिक और 30 वर्षों से गुड़ पर शोध करने वाले एसआई अनवर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि इस देश में चीनी मिलों की हिस्सेदारी करीब 70 फीसदी है जबकि गुड़ और खांडसारी दोनों की मिलाकर भागीदारी 20 फीसदी के करीब है। शेष 10 फीसदी गन्ना जूस व अन्य कामों के लिए चला जाता है।

अभी गुड़ बनाने वाली और खांडसारी तैयार करने वाली इकाइयों की अलग-अलग गिनती नहीं की जा सकी है। लगभग यही तस्वीर प्रदेश में भी चीनी मिलों और कोल्हू की है। अनवर बताते हैं कि विभिन्न क्षमताओं वाले कोल्हू इतने स्थानों पर काम करते हैं कि इनकी स्पष्ट संख्या और कोई गिनती अभी तक नहीं हुई है। हाल ही में कोल्हू की स्थिति और इनके उत्पादन व संख्या के हिसाब से सूक्ष्म पड़ताल के लिए एक परियोजना जल्द ही शुरू की गई है। इससे इनकी संख्या और उत्पादन का सही अंदाजा भी जल्द ही लग सकेगा।

19 जनवरी, 2017 को अनिल कुमार की याचिका पर एनजीटी ने अपने फैसले में भले ही कोल्हू की संख्या और उसके जरिए की जाने वाली गन्ना पेराई के आंकड़े को स्वीकार न किया हो लेकिन कोल्हू के जरिए होने वाले उत्सर्जन और वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए गाइडलाइन तैयार करने का आदेश जरूर दे दिया। इसके बाद 13 जून, 2018 को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कोल्हू को भी उत्सर्जन मानकों में लाने की गाइडलाइन जारी कर दी। इस गाइडलाइन के तहत स्कूल, आबादी, अस्पताल और संवेदनशील इलाकों से आधा किलोमीटर की दूरी पर कोल्हू नहीं चलाए जा सकते। वहीं, इन कोल्हू को ईंधन के तौर पर रबड़, टायर और प्लास्टिक जैसे गंदे ईंधन इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होगी। इसके अलावा कोल्हू को ऊर्जा क्षमता बढ़ाने और कम से कम 10 मीटर तक की ऊंचाई वाली चिमनी लगानी होगी।

कोल्हू मालिक महेश चंद्र बताते हैं, “किसी तरह ये कोल्हू चलते हैं, अब इनमें कोई फायदा नहीं है। यह पुराना काम है इसलिए छोड़ भी नहीं सकते। अब इस तरह के नए नियम हमारी कमर तोड़ देते हैं। कोल्हू के पारंपरिक तरीकों में बदलाव होना चाहिए लेकिन इसके लिए पूंजी लगती है। हमें न तो बैंक से मदद मिलती है और न ही सरकारी से।”

महेश चंद्र 1975 से कोल्हू चला रहे हैं। 1998 में उनके पास 19 भट्टठियां थीं। इनमें 1,500 से 2,000 कुंटल प्रतिदिन गन्ने की पेराई होती थी। इसके बाद 1998-99 में चीनी मिलें आईं। चीनी मिलें बैंकों से कर्ज लेकर और बड़ी पूंजी वालों के हाथों शुरू हुईं। इनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी कोल्हू ही थे। लिहाजा कोल्हू को हाशिए पर ढकेल दिया गया और महेश चंद्र की तरह कई कोल्हू वाले बर्बाद हो गए।

महेश कहते हैं कि खड़ी और पड़ी दो तरीके के कोल्हू हैं। खड़ी कोल्हू पर कोई टैक्स नहीं है। अभी जल्द ही लाइसेंस इंस्पेक्टर का फोन आया था कि सरकार ने कोल्हू को लाइसेंस मुक्त कर दिया है लेकिन सरकार का क्या भरोसा? इस कोल्हू में पैसा लगाएं और कल को यह आदेश पलट जाए।

चीनी मिलों से मुकाबला करने के नाम पर महेश चंद्र कहते हैं कि हमारी और चीनी मिलों की तकनीकी में काफी फर्क है। मिलें गन्ने की पेराई से 85 फीसदी जूस निकालती हैं जबकि कोल्हू 55 फीसदी जूस ही निकाल पाते हैं। हमारा उत्पादन ऐसे ही कम हो जाता है। कोल्हू में भी इस्तेमाल होने वाला यंत्र इसकी क्षमता को प्रभावित करता है।

मसलन, डेक्चून (आयरन) से चलने वाले कोल्हू 60 कुंतल तक प्रतिदिन पेराई करते हैं तो लोहे की पेराई मशीन वाले 100 कुंतल तक की पेराई करते हैं। इसमें 15 मन यानी कि करीब 600 किलो गुड़ तैयार होता है। चीनी मिलों के 20 से 25 किलोमीटर दायरे में कोल्हू के न होने की शर्त ने भी इन्हें कमजोर बनाया है। इसके अलावा पड़े यानी क्षैतिज कोल्हू में लाइसेंस की बाध्यता है। जबकि खड़े कोल्हू के मुकाबले ज्यादा उत्पादन इसी कोल्हू से हो सकता है।

एसआई अनवर बताते हैं कि कोल्हू कभी पूरी तरह खत्म नहीं होंगे। आने वाले समय में गुड़ की मांग बढ़ेगी। क्योंकि गुड़ में कई तरह के खनिज और प्रोटीन, कैल्शियम आदि तत्व मौजूद होते हैं। यह चीनी से बिल्कुल अलग है। इसका इस्तेमाल अब सेहत से जोड़कर हो रहा है। कोल्हू विंकेंद्रीकृत हैं। अभी हम गन्ने से चीनी, खांडसारी और गुड़ ही बनने की बात कर रहे हैं लेकिन बिहार के कुछ इलाकों में गन्ने और गुड़ से शराब भी तैयार की जा रही है।

कोल्हू को लेकर अनवर बताते हैं कि किसानों के पास एक विकल्प का होना बेहद जरूरी है। चीनी मिलों के मुकाबले कोल्हू एक अच्छा विकल्प है। कोल्हू का इस्तेमाल यदि सही से किया जाए तो यह चीनी मिलों से भी ज्यादा उत्पादक हो सकती हैं।

अनवर ने बताया कि कोल्हू से धुआं उठता है, इससे निश्चित पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। लेकिन हाल ही में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने मेरठ में एक यूनिट प्रयोग के तौर पर लगाई है जिसमें प्रदूषण नियंत्रित किया जा रहा है। इसकी निगरानी भी की जा रही है। कोल्हू का पीक टाइम और बेहतर गुड़ तैयार करने का समय नवंबर से फरवरी तक होता है। इस वक्त ईख बेहतर होती है लेकिन कोल्हू अक्तूबर से मई तक चलते रहे हैं।

कोल्हू मालिक महेश कहते हैं कि सही से कोल्हू चार से पांच महीने ही चलते हैं। दो महीने बदलते मौसम और लेबर की कमी के चलते बाधित रहता है। वह बताते हैं कि मौसम बहुत ही अप्रत्याशित हो गया है। यह हमारे धंधे को भी चौपट कर रहा है। महेश अंत में कहते हैं कि कोल्हू की पेराई से अब बस हमारी सांसें ही चल रही हैं। इसका नफा-नुकसान कुछ भी नहीं है। हमारा कोई राजनीतिक गठजोड़ भी नहीं है कि बाजार में अपने उत्पादों के भाव को चढ़ा और गिरा सकें।

इस श्रृंखला का पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: सियासत में पिसता गन्ना-1: 158 लोस सीटों पर ऐसे किया जाता है कब्जा!

Subscribe to Daily Newsletter :

Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.