केदारनाथ मंदिर के पीछे बन रही नई झील की पुष्टि हो चुकी है। वैज्ञानिक इस झील का मुआयना कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह सुप्रा ग्लेशियल लेक है।
केदारनाथ के ऊपर चौराबाड़ी में बन रही जिस झील को लेकर पिछले कुछ दिनों से लगातार चर्चाएं हो रही हैं, वैज्ञानिकों ने उस झील का पता लगा लिया है। देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों के एक दल ने चौराबाड़ी पहुंचकर इस झील की स्थिति के बारे में पता लगाया है। फिलहाल चौराबाड़ी में मौजूद वैज्ञानिकों का दल झील का अध्ययन कर रहा है। वैज्ञानिकों ने यहां झील बनने की पुष्टि की है, हालांकि उन्होंने इसे सुप्रा ग्लेशियल लेक बताया है और ग्लेशियरों में इस तरह की झीलें बनने-बिगड़ने को एक सामान्य प्रक्रिया बताया है।
केदारनाथ मंदिर से करीब 4 किमी ऊपर चौराबाड़ी ग्लेशियर की तलहटी में एक पुरानी झील सदियों से अस्तित्व में थी, जिसे चौराबाड़ी झील के नाम से जाना जाता था। राष्ट्रपति महात्मा गांधी की अस्थियां इस झील में विसर्जित किये जाने के बाद इसे गांधी सरोवर के नाम से भी जाना जाता था। 2013 में केदारनाथ और सम्पूर्ण केदारनाथ घाटी में हुए जल प्रलय के लिए इस झील में जमा पानी को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। कहा जाता है कि तेज बारिश के कारण चौराबाड़ी ग्लेशियर का एक बड़ा हिस्सा टूटकर चौराबाड़ी झील में गिर गया था, जिससे झील में सदियों से जमा पानी छलक कर नीचे के तरफ बहने लगा। पहाड़ी ढलान पर तेजी से बहते इस पानी ने केदारनाथ के साथ ही पूरी मन्दाकिनी घाटी को तबाह कर दिया। 2013 की आपदा में चौराबाड़ी झील का अस्तित्व पूरी तरह से समाप्त हो गया था और यहां सिर्फ पत्थरों का रौखड़ बाकी रह गया था।
पिछले सप्ताह एक संस्था की ओर से चौराबाड़ी ग्लेशियर की ट्रैकिंग के दौरान एक नई झील देखे जाने का दावा किया गया। टैकर्स ने इस झील के बारे में संबंधित अधिकारियों को जानकारी दी। तब से यह झील लगातार चर्चाओं में बनी हुई है और आशंका जताई जा रही है कि नई बनी यह झील फिर से केदारनाथ के लिए खतरा साबित हो सकती है। इस तरह की संभावनाओं के बीच रुद्रप्रयाग जिला प्रशासन ने देहरादून स्थिति वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी को पत्र लिखकर झील के बारे में विस्तृत जानकारी एकत्र करने का अनुरोध किया था।
वाडिया इंस्टीट्यूट के चार वैज्ञानिकों की टीम ग्लेशियर विशेषज्ञ डॉ. डीपी डोभाल के नेतृत्व में 26 जून को केदारनाथ और 27 जून को चौराबाड़ी पहुंची। चौराबाड़ी में मौजूद डोभाल ने पुराने गांधी सरोवर के पास ही एक नई झील बनने की पुष्टि की है। हालांकि डॉ. डोभाल ने यह भी कहा कि यह एक सुप्रा ग्लेशियल झील है, जिसका वॉल्यूम बहुत कम है। यह झील एक छोटे से क्षेत्र में है और इसका वॉल्यूम बहुत ज्यादा बढ़ने के कोई आसार नहीं हैं। डॉ. डोभाल के अनुसार उनकी टीम अभी झील का अध्ययन कर रही है और लौट कर रुद्रप्रयाग जिला प्रशासन सहित अन्य संबंधित विभागों को अपनी रिपोर्ट देगी।
वहीं, उत्तराखंड वानिकी और औद्यानिकी विश्वविद्यालय में पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर डॉ. एसपी सती का कहना है कि ग्लेशियर वाले क्षेत्रों में छोटी-छोटी झीलों के बनने और बिगड़ने का क्रम लगातार बना रहता है। इन झीलों को सुप्रा ग्लेशियल लेक कहा जाता है। डा. सती कहते हैं कि यदि चौराबाड़ी या उसके आसपास कोई सुप्रा ग्लेशियल लेक बनी है तो ऐसा होना न कोई असामान्य घटना है और न ही इसमें घबराने वाली कोई बात है। वे कहते हैं कि 2013 की आपदा का बड़ा कारण चौराबाड़ी झील नहीं, बल्कि चारों तरफ से बादल का फटना था। वे कहते हैं कि यदि केदारनाथ की घटना चौराबाड़ी के कारण हुई होती तो उसी दौरान कालीमठ वेली और मद्महेश्वर घाटी में तबाही न हुई होती। सती के अनुसार 2013 की आपदा का मुख्य कारण बादल फटना था, यही कारण है कि न सिर्फ केदारनाथ घाटी, बल्कि बद्रीनाथ और अन्य घाटियों में भी भारी तबाही हुई थी। केदारनाथ तबाही में चौराबाड़ी लेक का योगदान बहुत कम था।
रुद्रप्रयाग के जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी हरीशचन्द्र के अनुसार झील का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों का दल फिलहाल चौराबाड़ी में है और टीम की लिखित रिपोर्ट आने के बाद ही स्थितियां पूरी तरह से साफ हो पाएंगी। हालांकि उन्होंने कहा कि इस बार बहुत ज्यादा बर्फबारी होने से हो सकता है ग्लेशियर के बेस में पानी जमा हो गया हो। हरीशचन्द्र के अनुसार यदि भविष्य में 2013 जैसी कोई स्थिति पैदा होती है तो अब पहले जैसे जान-माल का नुकसान नहीं होगा। केदारनाथ ही अब हर समय आपदा प्रबंधन में प्रशिक्षित टीमें तैनात रहती हैं। टीम में शामिल विभिन्न विभागों के कर्मचारियों को उनके काम के अनुसार बेहतर प्रशिक्षण दिया गया है और किसी भी तरह की आपदा की स्थिति में जिन उपकरणों की जरूरत होती है, उनकी व्यवस्था भी पहले से कर दी गई है।
We are a voice to you; you have been a support to us. Together we build journalism that is independent, credible and fearless. You can further help us by making a donation. This will mean a lot for our ability to bring you news, perspectives and analysis from the ground so that we can make change together.
Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.