वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन और उससे जुडी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रकृति में उपलब्ध समाधानों का सबसे पहले उपयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि वो सबसे अच्छा और सस्ता साधन है
दुनिया भर में बदलती जलवायु के चलते प्राकृतिक आपदाओं का आना आम बात हो गया है । आज भारत ही नहीं दुनिया के अनेकों देश बाढ़, तूफान, सूखा और हीट वेव जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे हैं। इमरजेंसी इवेंट्स डेटाबेस (ईएम-डीएटी) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2018 अकेले जलवायु सम्बन्धी आपदाओं से 6.17 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे । जिसमे बाढ़ के चलते सर्वाधिक 3.54 करोड़ लोगों के जीवन में उथल पुथल मच गयी थी। जहां अकेले केरल में आयी बाढ़ ने 2.3 करोड़ से अधिक लोगों को जनजीवन प्रभावित कर दिया था । वहीं 2018 में तूफान के चलते सबसे अधिक आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा था।
प्रोफेसर प्रशांत कुमार के नेतृत्व में सर्रे यूनिवर्सिटी का ग्लोबल सेंटर फॉर क्लीन एयर रिसर्च (जीसीएआरई), ओपेरैंडम परियोजना के अंतर्गत पूरे यूरोप में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर काम कर रहा है । जिसका उद्देश्य यूरोप और दुनिया के अन्य हिस्सों में क्लाइमेट चेंज से उपजे खतरों और उनके प्रभावों से प्रकृति-आधारित समाधानों की मदद से निपटना है । विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और उससे जुडी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रकृति द्वारा उपलब्ध समाधानों का सबसे पहले उपयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि वो इनसे निपटने का सबसे अच्छा और सस्ता उपाय हैं|
दुनिया में बढ रहा है प्राकृतिक आपदा का खतरा
एनवायरनमेंट रिसर्च द्वारा प्रकाशित इस अध्ययन में जीसीएआरई ने प्राकृतिक आपदाओं को चार भागों - भूभौतिकीय, जलवायु सम्बन्धी, मौसम सम्बन्धी और हाइड्रोलॉजिकल (जल सम्बन्धी) में बांटकर अध्ययन किया है, जिससे इनके कारण और खतरों को बेहतर तरीके से समझा जा सके । उन्होंने पाया कि कुछ खतरे एक दूसरे से इस तरह जुड़े होते हैं, कि उनमे से एक के होने पर दूसरा अपने आप ही आ जाता है, जैसे भारी बारिश के बाद बाढ़ का आना । इस तरह की आपदाएं जीवन, अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान पहुंचा सकती हैं । वैश्विक रुप से पिछले 30 वर्षों (1980 से 2018) में बाढ़, सूखा, भूस्खलन, और हीटवेव जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती ही जा रही है । आंकड़ें बताते है कि इस अवधि में 18,000 से अधिक आपदाएं आयी थी, जिसके परिणामस्वरूप वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 4,80,000 करोड़ यूरो (3,79,92,982 करोड़ रुपये ) का नुकसान उठाना पड़ा था। इसी अवधि के दौरान यूरोप में लगभग 3,000 आपदाओं की गणना की गयी, जिससे लगभग 63,100 करोड़ यूरो का नुकसान हुआ था । आंकड़ों के अनुसार बाढ़ और हीटवेव के चलते यूरोप और दुनिया के अन्य हिस्सों को सबसे अधिक जान-माल की हानि उठानी पड़ी थी । जीसीएआरई के शोधकर्ताओं ने प्रकृति-आधारित समाधानों की उपयोगिता को समझने के लिए 300 से अधिक मामलों का विश्लेषण किया है । जिसमें उन्होंने पाया कि यूरोप में बाढ़ सबसे ज्यादा बार आने वाली आपदा है, जबकि सूखे के कारण अन्य आपदाओं के आने का जोखिम सबसे अधिक बढ जाता है । वहीं वैश्विक स्तर पर जान-माल की हानि के दृष्टिकोण से भूकंप और तूफान सबसे अधिक विनाशकारी आपदाएं हैं।
सामान्य उपायों से कहीं कारगर हैं प्रकृति पर आधारित समाधान
शोधकर्ताओं ने पाया कि यूरोप में बाढ़ से निपटने के लिए प्रकृति पर आधारित समाधानों का 56 फीसदी उपयोग किया गया था । जहां समाधान के रूप में 'हाइब्रिड' विधियों का सबसे अधिक उपयोग किया गया था जैसे कि छत पर पेड़-पौधे लगाना और बगीचों के लिए वर्षा जल का उपयोग करना । वहीं बाढ़ से निपटने में 'ब्लू' निर्माण को सबसे अधिक कारगर पाया गया, जिसके अंतर्गत नदी में आने वाली बाढ़ को रोकने के लिए छोटे तालाबों का निर्माण करना जैसे समाधान अधिक कारगर साबित हुए । इसी तरह शहरी इलाकों में पेड़ों, बगीचों और घास की मदद से हीटवेव के प्रभाव को सीमित करने में सबसे अधिक सफलता मिली। हालांकि, प्रकृति पर आधारित कोई भी समाधान कितना कारगर होगा, यह उसके स्थान, वास्तुकला, टाइपोलॉजी, पौधों की प्रजातियों और पर्यावरण की स्थिति पर निर्भर करता है। इसलिए मौसम और जल संबंधी खतरों से निपटने के लिए समाधान के डिजाइन और उसके प्रयोग पर विशेष ध्यान देने की जरुरत होती है । शोधकर्ताओं ने जब प्रकृति पर आधारित समाधानों की अन्य उपायों से तुलना की तो पता चला कि मौसम और जल संबंधी आपदाओं के प्रबंधन के 85 फीसदी मामलों में यह समाधान अन्य उपायों की तुलना में आर्थिक रूप से कहीं अधिक लाभदायक थे । साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट जर्नल में प्रकाशित एक अन्य पेपर ने भी प्रकृति पर आधारित समाधानों को अधिक कारगर माना है । इस अध्ययन के अनुसार बाढ़, सूखा और हीटवेव जैसे खतरों से निपटने के लिए प्रकृति आधारित समाधानों जैसे घास के मैदान, समुद्री किनारों के रेतीले तटों और वेटलैंड्स को एक सस्ते, कुशल और टिकाऊ समाधान के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
सर्रे विश्वविद्यालय में जीसीएआरई के निदेशक और अध्ययन के शोधकर्ता प्रोफेसर प्रशांत कुमार ने बताया कि "आज जलवायु परिवर्तन हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है जो निश्चित रूप से प्राकृतिक आपदाओं के खतरों को और बढ़ा रहा है। यदि हम इन आपदाओं से निपटना चाहते हैं तो निश्च्य ही प्रकृति पर आधारित समाधान हमारा पहला विकल्प होना चाहिए । वैज्ञानिक इन समाधानों को अपनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, साथ ही हमारे नीति निर्माताओं और राजनेताओं को इनकी उपयोगिता, प्रभावशीलता और आर्थिक कार्यकुशलता को बेहतर तरीके से समझाने में मदद कर सकते हैं।
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